बीते माह चार अगस्त को देर रात चंडीगढ़ में वर्णिका कुंडू नामक युवती का पीछा किये जाने और उसके अपहरण की कोशिश के बाद एक बार फिर लड़कियों को तरह तरह की नसीहतें दी गयीं. हमेशा की तरह कहा गया कि उसे रात में बाहर निकलने की क्या जरूरत थी. इसके जबाब में स्वतंत्रचेता स्त्रियों ने ‘अपनी सड़कें’ नाम से एक अभियान चलाया जिसमे 12 अगस्त की रात दिल्ली मुंबई कोल्कता चंडीगढ़ पंचकुला जयपुर लखनऊ कानपुर रायपुर जैसे कई छोटे बड़े शहरों में लड़कियां/औरतें सड़कों पर निकलीं, यह अभियान अभी भी जारी है, ऐसे कई शहरों में जहां 12 अगस्त को किसी कारण यह कार्यक्रम नहीं हो पाया था वहाँ बाद में भी इसी थीम पर कार्यक्रम हो रहे हैं. यह एक कोशिश है यह बताने की कि औरतों को भी सड़कों पर चलने का हक है. आज की बदलती परिस्थितियों में ऐसे अभियान की जरूरत भी है. इसलिए कि सड़क पर औरतों का हक हमेशा से ‘किंतु-परंतु’ और संदेह के साथ ही रहा है. और रात में तो बिलकुल नहीं, वहां तो कोई दुविधा ही नहीं है. इसी संदर्भ में अनायास मेरी नजर कुछ वर्ष पहले लिखे सड़क से जुडे एक संस्मरण पर पड़ी, जो आज भी प्रासंगिक है :
मन तो अथाह समुद्र की तरह है. इसमें निरंतर विचारों की छोटी-बड़ी तरंगें उठती रहती हैं. कुछ क्षणिक होती हैं, तो कइयों में निरंतरता होती है. ऐसी ही एक बात, जो छोटी तो है, पर बचपन से ही लगातार मेरे मन में घुमड़ती रही है, आप सबके साथ बांटना चाहती हूं. उन दिनों मुझे जीटी रोड पर पैदल चलने का काफी अवसर मिलता था. एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में (बोधगया भूमि आंदोलन के दौरान) साथियों के साथ; और मित्रों के साथ खुली सड़क पर दो-तीन किलोमीटर पैदल चलने का एक अपना आकर्षण होता है, जिसे मैंने उन दिनों खूब महसूस किया.
लंबी काली चमकदार सड़कें, जो जाने कहां से कहां तक जाती हैं. शिशु जब चलना शुरू करता है, तो बार बार घर से भाग कर सड़क पर जाना चाहता है. वही बच्चा जब साइकिल चलाना सीखता है, तब भी उसकी पहली इच्छा सड़क पर साइकिल चलाने की होती है. लेकिन वही सडकें मुझे इतना भयभीत क्यों करती हैं! निश्चय ही मैंने भी अन्य शिशुओं की तरह घर के सामने की सड़क पर पैर बढ़ाये होंगे. फिर कब और वह तीव्र आकर्षण घबराहट में बदल गया?
मुझे लगता है यह घबराहट संभवतः अन्य लड़कियों-महिलाओं ने भी महसूस की होगी. शायद तभी से, जब से समाज एक शिशु को लड़की या औरत में बदल देता है. भले ही वह चार-पांच वर्ष की ही क्यों न हो. तब वह समझने लगती है कि निरे अनजान लोग, निरी अनजान जगह उसके लिए महफूज नहीं है; और वह घर में सिमटने लगती है. फिर भी अंदर व आकर्षक तो बचा ही रहता है. मेरे अंदर भी वह अदम्य स्वाभाविक आकर्षण बचा रहा है. इसीलिए जब कभी सड़क पर चली, एक अद्भुत खुशी का अनुभव हुआ, पर तभी जब बिना किसी मानसिक-शारीरिक दुर्घटना के घर पहुंच गयी.
मेरे मन में अक्सर यह भाव जगता है कि काश ये सड़कें हमारे लिए भी होतीं. मैं भी उसी (लड़कों जैसी) लापरवाही से बिना किसी विशेष उत्तेजना के सड़क पर चल पाती. बिल्कुल सहज भाव से. अब तो खैर स्थिति थोड़ी बदली भी है, पर मेरी एक लंबी उम्र सड़क पर असहज होकर चलने में बीती है. सड़क सुनसान हो, तो चिंता; बहुत भीड़ हो, तो घबराहट. या तो सिर झुका कर चलें या बहुत जिद हो कि सर झुका कर क्यों चलें, तो सिर उठाकर भी चलें. मगर दोनों ही स्थितियों में सहजता की कोई गुंजाइश नहीं. और सिर्फ सड़क ही क्यों, सड़क पर चलने वाली बसों में चलने का भय भी मैं नहीं भूल पाती. अनजाने-अभद्र स्पर्श झेलने की त्रासदी हमेशा सफर के उत्साह को मटमैला करती रही है. ट्रेन ही बात करें. बहुत भीड़ भाड़ हो, तो चिंता; और बिल्कुल खाली ट्रेन में बर्थ रिजर्व होने के बावजूद कई बार रात भर नींद नहीं आयी.
बड़ी इच्छा होती है कि काश इन सड़कों पर हमारा भी बराबर का अधिकार होता, कि हम भी बिलकुल सहजता से इस पर चल पाते. उल्टे आज तो और भी आफत है. फुटपाथ खत्म हो गये हैं. जीवन की और ट्रैफिक की गति तेज हो गयी है. हर कोई दूसरे को धकेल कर आगे बढ़ जाना चाहता है. ऐसे में जबरन एक सतर्कता ढोनी पड़ती है. मेरी दिली इच्छा होती है कि सड़कें होतीं, उन पर चलने चलते वाहन भी होते, मगर साथ में यह भी संभव होता कि मैं अपनी बेटी (अब नतिनी) का हाथ थामे बिल्कुल सहज भाव से उस पर आराम से चल पाती. सड़कों के किनारे ऐसे शानदार पोस्टर लगे होते, जिन्हें देख कर शर्म से आंखें नहीं झुकतीं, उलटे उनकी आकर्षक फोटोग्राफी और दृश्यावली देख कर मन उल्लास से भर उठता. तब एक तनावमुक्त सहज यात्रा मेरे लिए संभव होती.