दुमका से एक सामूहिक बलात्कार की खबर आई है. हम उसका ब्योरा यहां नहीं देंगे. वह आप अखबारों में पढ़ चुके होंगे. खबर यह है कि एक आदिवासी युवती को उसके मित्र के साथ कुछ युवकों ने पकड़ा. उसके साथ लूट-मार की और फिर उसके साथ सामूहिक बलात्कार हुआ. इसके पूर्व लिट्टीपाड़ा में संथाल युवकों द्वारा चार पहाड़िया लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार की भी घटना तीन वर्ष पूर्व हुई थी. वह 13 जुलाई का दिन था और उसके तीन चार दिन बाद एक आदिवासी लड़की के साथ चार आदिवासी युवकों ने बलात्कार किया था. बलात्कार की इन जघन्य घटनाओं ने उस आम धारणा की नींव हिला दी है कि आदिवासी समाज औरत-मर्द की बराबरी वाला समाज है, वहां औरत मर्द के रिश्ते स्वचछंद नहीं सहज हैं और वहां बलात्कार की घटनाएं बिरल हैं. अब इस तरह की खबरें आदिवासीबहुल इलाकों से आती रहती है. बहुधा यह होता है कि बलात्कारी बहिरागत और उत्पीड़क होते हैं और कभी कभार यदि आदिवासी युवकों के द्वारा ही आदिवासी युवतियों के साथ बलात्कार की घटना की इक्की दुक्की खबरें आती हैं तो कहा जाता है कि आदिवासी समाज अपसंस्कृति का शिकार हो रहा है.
लेकिन क्या यह महज अपसंस्कृति का मामला है?
संथाल परगना में बहुत ज्यादा उद्योग धंधे नहीं, कोयले के कुछ सार्वजनिक और कुछ निजी खदाने हैं, लेकिन विकास मद का पैसा कमीशनखोरी के रूप में राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं तक पहुंचता है. राजनीतिक गतिविधियों से आमद होती है. अदना से अदना पार्टी कार्यकर्ता बलेरो और स्कारपीयो में घूमता है और जम कर दारू पीता है. बलात्कार की पिछली घटना की रात घटनास्थल के करीब के एक गांव में कोई समारोह था. विवाह या किसी और तरह का जश्न. जमकर दारू पी गई और फिर शोहदों की एक टोली निकल पड़ी शिकार के लिए. इसीआइ मीशन द्वारा संचालित एक स्कूल के खुले प्रांगन मे, जहां दो-तीन कमरे में पहली से तीसरी कक्षा के बच्चे-बच्चियां पढते हैं और बड़ी लड़कियों को सिलाई मशीन चलाने की ट्रेनिंग दी जाती थी, उन लोगों ने टार्च की रौशनी में ढूंढ कर भरसक बड़ी चार लड़कियों को उठाया और करीब के जंगल में ले गये. उनके साथ बलात्कार किया.
दरअसल, यह मामला आसानी से उपलब्ध होने वाले पैसे से उत्पन्न संस्कृति का तो परिणाम है ही, इसके कुछ और भी वस्तुगत कारण हैं. आदिवासी समाज नशे का आदी है, लेकिन पहले वह चावल से बना एक पेय पीता था जिसे हडिया कहते हैं और जिसका व्यावसायिक उत्पादन नहीं होता था.् लेकिन अब इसका व्यावसायिक उत्पादन होने लगा है और गरीब आदिवासी महिलाएं इसे बना कर हाट.बाजारों में खुले आम बेचती हैं. इसके समानांतर महुएं की शराब का प्रचलन तेजी से बढा है. शाम होते ही संथाल परगना के छोटे बड़े कस्बे, हाट- बाजार के निकट के खुले मैदान शराब के अड्डों में तब्दील हो जाते हैं. एक जमाने में शिबू सोरेन ने शराबखोरी के खिलाफ अभियान चलाया था.् वे दल बल के साथ जा कर शराब की भट्ठी तोड़ते थे और शराब पीने वालों की पिटाई करते थे.् लेकिन वह अभियान कब का पीछे छूट गया. अब तो सरकार ही शराब की दुकानें ग्रामीण इलाकों में भी जबरन खोलने में लगी है. आज आलम यह है कि पूरा संथाल परगना शाम घिरते ही नशे में लड़खड़ाने लगता है.
राजनीतिक दलों से जुड़े तमाम कार्यकर्ता चाहे वे किसी भी दल के हों, जिला से लेकर प्रखंड स्तर तक कोटा- परमिट- ठेका आदि के चक्कर में व्यस्त रहते हैं और कमाई करते हैं. राजनीतिक दल का कार्यकर्ता या पदाधिकारी होना एक धंधा हो गया है. भ्रष्ट अधिकारी चालाकी से इस मनोदशा का अपने फायदे के लिए उपयोग करते हैं. किसी उल जलूल योजना को कार्यान्वित करना है तो बस उस इलाके के ही दो चार युवकों को पेटी ठेकेदार या मजदूरों का सप्लायर बना दो और बगैर किसी विरोध के लूट पाट करते रहो. विधायक फंड के रूप में एक एक विधायक को प्रतिवर्ष पांच-छह करोड़ की राशि मिलती है. इसके लूट खसोट का माध्यम पार्टी कैडर ही बनते हैं. इसलिए अब गांव में कोई खेती करना नहीं चाहता, श्रम करना नहीं चाहता.् इजी मनी चाहता है और इजी मनी नहीं मिले तो उठाईगिरी, लूट-पाट करता है.
सबसे चिंतनीय है यह पहलू कि इन इन बिगड़े युवकों पर अंकुश लगाने वाला कोई नहीं. आदिवासी समाज में स्वशासन की एक लंबी परंपरा रही है.् पहले समाज अपने सदस्यों के क्रिया कलापों पर नियंत्रण रखता था. लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था के थपेड़े खा- खा कर वह परंपरा खत्म होती जा रही है. अब तो सारा नियंत्रण राजनीति करती है और उसे नियंत्रित करने वाले नेता विधायकजी अपने समाज के सबसे बड़े आदमी हैं. वे आपके गांव में तालाब बनवा सकते हैं. कुआं खुदवा सकते हैं. उनकी सिफारिश से आपका इलाज हो सकता है. आपके बच्चे को वजीफा, कोटा, परमिट, ठेका, सब कुछ तो उनके हाथ में हैं और सबसे बड़ा लाभ यह कि आप किसी के घर में सेंधमारी करते धरे जायें तो वे चुटकी में आपको पुलिस हिरासत से छुड़वा सकते हैं. फिर समाज की किसे परवाह?
यह प्रकृति का एक सामान्य सानियम है कि आप जिससे लड़ते हैं, धीरे-धीरे आप उस जैसे ही बन जाते हैं. जैसी आपकी सोहबत रहती है, उसी जैसे आपका चरित्र ढलने लगता है. इस बार बलात्कार की घटना में सिर्फ आदिवासी युवक नहीं, उनके साथ पकड़े गये कई युवक अन्य समुदाय के हैं. यानि, जिन लोगों के साथ आप उठते बैठते हैं, उन जैसा ही चरित्र आपका बनने लगता है और उनके साथ मिल कर आप अपने ही समाज की एक लड़की से बलात्कार करते हैं. इससे बचने का उपाय मात्र यह है कि आप आदिवासी संस्कृति के जिन उदात्त जीवन मूल्यों की बात पर गर्व करते हैं, उस सचेत रूप में अंगीकार कीजिये. अब यह कहने से काम नहीं चलेगा कि आपकी संस्कृति बहुत महान है. महज जन्मना आदिवासी होने से आप उन उदात्त जीवन मूल्यों के वाहक नहीं बन जाते.