अगर आपको कभी गिरने-पड़ने या मारपीट के वक्त गम्भीर चोट लगी हो और पूर्वा हवा चलने पर दर्द उपट जाता हो तो आप अर्थव्यवस्था पर नोटबंदी की मार किस तरह पड़ी है, ये महसूस कर सकते हैं. नोटबंदी का उदेश्य अगर कालेधन के कालेपन को समाप्त करना था तो आज 99% नोट बैंक के पास है, अब इनकम टैक्स की एक लम्बी लड़ाई के बाद सरकार को कूछ लाख करोड़ कालाधन (टैक्स/जप्ती)के रुप में भी मिलने की उम्मीद है’, क्या ये काम बिना नोटबंदी के नहीं हो सकता था ? हो सकता था, अगर मशीनरी दुरुस्त होती. और जब मशीनरी दुरुस्त नहीं है तो सरकार की कौन सी योजना सफल होगी, ये बड़ा प्रश्न है. तो ले दे कर आम आदमी हीं परेशान और बेहाल हुआ.

लगभग तीन लाख वो कंपनीयाँँ बँद हुईं जो टैक्स की चोरी तो करती थीं, लेकिन बाजार में रोजगार को सृजित करने में खास भूमिका अदा करतीं थीं और बाजार की सबसे बड़ी आवश्यता, लीक्विडिटी को थामे रखती थी. लिक्विडिटी मतलब - वस्तुओं अौर सेवाओं के उत्पादन के बराबर कितने परिमाण में करेन्सी की ज़रूरत है. आज ये तमाम कम्पनियाँ बँद हैं. तो कैसे माना जाये की बाजार की तरलता (लिक्विडिटी) और रोजगारी अपने पूर्व अवस्था में है? आज इन टैक्स चोर कोम्पनियोँ की जमा पूँजी बैंक के पास है - सरकार माले माल और बाजार खाली. अगर ये कम्पनियां इनकम टैक्स के अदालतों मे केस हार भी जायें तो नफ़ा किसको ? इस काले धन से सृजित और पोषित रोजगार से हाथ धो बैठी जनता के पास सरकार को मालदार पर मालदार होते रहने को टुकुर टुकुर देखते रहने के सिवा और क्या बचा है. हाँ, वन रैंक वन पेंशन, सातवां वेतन आयोग और सांसदों की बढ़ती हुई तनख्वाह को हीं सरकार अगर जनता की बढ़ती आय का नाम दे दे तो ये अलग बात है.

करेन्सी की तरलता और उद्यमिता को सरकार अगर कोम्पँसेट भी करती तो एक तो समय लगता और दूसरी बड़ी बात कि इसके लिये सरकार ने अलग से किया हीं क्या है ? क्या सरकार माईक्रो फाइनान्स बाजार में आंदोलनात्मक रुप से उतरी ? नहीं , क्योंकि करेन्सी के वितरण की अपनी मशीनरी पर सरकार को खुद भरोसा नहीं है, नहीं तो मुद्रा योजना जनधन अलग अलग नहीं होती.

सरकार जानती है कि रुपया का सिर्फ 10-15 पैसा ही जनता तक पहुंचेगा, मतलब फ़िर कालेधन का हिमालय. अगर करेन्सी का वितरण, रुपया को गरीब तक पहुँचने की मशीनरी ठीक हो जाये तो गरीबी मिट जाये - ये बात कौन नहीं समझ रहा है ? माईक्रो फायनांस ही एक रास्ता है जिससे रुपया लोवर मिडल सेगमेंट में आ सकता है जो बाजार को माँग और करेन्सी से तर रख सकता है, लेकिन इस सेगमेंट में शिक्षा और कुशलता की घोर कमी है जो माईक्रो लोन की बड़ी बाधा है- इसपर सरकार ने कूछ नहीं किया, जबकि नोट बंदी के कड़वे खुराक के बाद इसकी सख्त ज़रूरत थी ! क्या ये बात सरकार नहीं जानती थी?

कर्ज देने के मोडायलिटी को सरकार आज भी सुधार दे तो धीरे धीरे हीं सही, स्थिति में कूछ सुधार तय है. ये निम्न वर्गीय रोजगारी कर्ज के लिये प्रोजेक्ट और उसके पेंच के बजाये गिरवी पर सस्ते कर्ज को आसानी से लेने को आतुर है. लेकिन सरकार का इसपर कोई ध्यान ही नहीं है. दूसरी ओर इस तरह के बड़े बड़े प्रॉजेक्ट्स नहीं आये हैं जो ग्रामीण और अकुशल रोजगारी को प्रोत्साहित करे और जो प्रॉजेक्ट्स चल रहे हैं वो gst के पेंचों खम में शहीद हो रहे हैं.

सच तो यह है की अर्थव्यवस्था कभी भी इतनी बेहाल न थी.

सरकार के बारे में कभी हीगल ने कहा था की state is the march of god. इस ब्रह्म वाक्य का क्रियान्वन देखिये की एक कागज के टुकड़े पर सरकार दस्तखत कर देती है और हम उसे रुपया मान कर क्या नहीं कर देते?

अब आप ये सोँचिये की क्या इसका मतलब यह होना चाहिये की देश का 60% धन देश के सिर्फ 1% जनता के पास हो- जो की आज है.

ये सब रुपया से ही हुआ है, जी हाँ रुपया नामक अस्त्र से. आजादी के समय ये आंकड़ा सिर्फ 16% था. तो इसी रुपया ने गरीब को और गरीब और अमीर को और अमीर किया. तो किस बात का भाई - State is the march of god ? अब सत्ता हमारे कंधे पर और राजनीत सर पर है कि नहीं और अर्थशास्त्र उसके जूते के नीचे!

खैर, बावजूद इन तमाम ​विडम्बनाओं के हम कभी 9% की जीडीपी को छू रहे थे- एल पी जी का सिलिंडर 400/ का, चावल 16/ का दाल 30/ का आटा 12/ का चीनी 22/ का और स्कूल कॉलेज की फीस आज से आधी…

आज कहाँ खड़े हैं हम ?

ऊपर के सब चीजो के दाम आज दुगना है कि नहीं. अब अच्छे दिन की बुदबुदाहट कान को सुनती कम ऐत्ठि ज्यादा है की नहीं?

जिन अमीरों के कालेधन आज बैंकों मे हैं उससे पलने वाले गरीब के पेट को ये सरकार और उनके अर्थशास्त्री कभी trickle down कहते नहीं थकते थे, मतलब पैसा ऊपर से नीचे आ रहा है,आज वो बँद है क्योंकि वो अब अपने कालेधन को बचाने में फूँक फूँक कर चल रहे हैं. सरकार इसे किस तरह कंपनसेट कर रही है, जवाब तो 2019 में देना पड़ेगा सर जी.

एक जवाब और देना पड़ेगा और सवाल बड़ा दमदार है. नोटबंदी में रुपया बाजार से, घरों के गुल्लक से अल्मारियों की सेफ से निकल कर बैंकों के पास गया है - ये सब रुपया के सेगमेंट हैं, सबकी अपनी अपनी गत्यात्मकता है, सब एक कारगुजारी के परिणाम,चाहे लीगल या इलीगल. क्या चुनाव जैसे कालेधन के जखीरे से पैसा आया है बैंक के पास? तो चुनाव के लिये कालेधन को बेलगाम छोड़ देना और बाजार से इसी (काले) धन को टैक्स के लिये चूस चूस कर ले लेना, किस नज़र से नैतिक ठहराया जा सकता है. हमने लेबर मिनिस्टर को स्वीकार करते सुना है संसद में की 2013-14 की तुलना में 2014-15 में केन्द्र सरकार ने 86% कम appointment दिये.

आपके सामने क्या पता यह तथ्य कभी आया है कि नहीं - एक आम आदमी अपनी औसतन कमाई का करीब 70% हिस्सा tax के रुप में सरकार को दे देता है. ये ‘त्वमेव माता पिता त्वमेव’ से ज़रा भी कम है क्या ?

अपनी कमाई का यही 70% हिस्सा अख़लाक़ भी देता होगा, लेकिन उसकी जान बची क्या ?

ये बड़े कड़वे सवाल हैं sir, कभी रात को सोने के दरमियान हाथ सीने पर चला जाये तो खुद से हीं पूछ लीजियेगा.

नोटबंदी के बाद से gdp लगभग 2.5% कम हुई है, 1% gdp एक लाख पैतीस हजार करोड़ के बराबर होता है, मतलब तीन लाख सैंतीस हजार करोड़ रुपया gdp के दायरे से बाहर. इतने रुपये की गत्यात्मकता मूवमेंट बंद , अगर करेन्सी का परिमाण पूर्ववत है तो इसी असंतुलन का नाम इन्फ्लेशन है, इन्फ्लेशन मतलब मंहगाई. 2.5% GDP की इस कमी ने देश के अनओर्गैनाइजड सेक्टर की रोजगारी को कितने जूते मारे हैं, इसकी कल्पना किसने की? क्या नोटबंदी लागू करने वाले को ये नहीं सोंचनी चाहिये थी कि इससे बेरोज़गारी और मंहगाई दोनो बढेगी ?

अर्थवयवस्था के लिये सबसे बड़ी कमाई क्या है - रोजगार या टैक्स ? अगर इस सरकार ने रोज़गार के जगह टैक्स उगाही को प्राथमिकता दी है तो निश्चय ही यह प्रजातंत्र नहीं है, और इसीलिये रघुराम राजन जैसे अर्थशास्त्री ने नोटबंदी पर अपनी सहमति नहीं दी थी. उसे रोजगार के इस तांडव का अंदाजा था. और इसी लिये मनमोहन सिंघ जैसे धुरंधर अर्थशास्त्री ने कमसे कम 2% gdp के कम होने की भविष्यवाणी करते देर नहीं की, जिसका परिणाम ये हुआ की बेचारे को बरसाती ओढ़कर बाथरूम में घुसना पड़ा. लेकिन सत्य पराजित कैसे होगा? आज gdp दाँत नीपोरते गिर गई..2% से ज्यादा.

पता नहीं आप सहमत होंगे या नहीं - एक चाय वाला चाय वाला होता है अौर एक अर्थशास्त्री अर्थशास्त्री.