अभी झारखंड की रघुवर दास (भाजपा) सरकार के एक हजार दिन पूरे होने का जश्न मनाया गया. हालांकि एक हजार दिन गत 22 सितम्बर को पूरे हुए, मगर जश्न की शुरुआत पांच सितम्बर को ही, सभी अखबारों में पूरे पेज के विज्ञापनों से हो गयी थी. तब से लेकर हर दिन ये विज्ञापन छपते रहे. राजधानी रांची शहर के हर खूंटे और खम्भे पर मुख्यमंत्री रघुवर दास चमक रहे हैं. साथ में नरेंद्र मोदी भी. इस बीच सरकार की अनेक उपलब्धियां गिनाई गईं. अखबारों के पन्नों के अलावा जगह जगह पोस्टरों पर लिखा है- ‘ईमानदारी के एक हजार दिन’, ‘रोजगार के एक हजार दिन’, ‘स्थायित्व के एक हजार दिन’ आदि आदि. इन तीन में से पहले दो- ईमानदारी और रोजगार उपलब्ध कराये जाने के दावों- पर बहस हो सकती है. पर पिछली सरकारों (इनमें अधिकतर समय भाजपा भी शामिल थी) के दौरान रोज रोज मोलतोल और मानमनौवल का जो नंगा खेल खेला जाता रहा था, उससे तो जरूर ही राहत मिली. मानना पड़ेगा कि स्थायित्व के नारे में दम है. यानी सरकार एक हजार दिन चल गयी, यह एक बड़ी ‘उपलब्धि’ है. लेकिन विधानसभा में पूर्ण बहुमत रहने के बावजूद इस ‘स्थायित्व’ को और ठोस बनाने का उपाय झारखंड विकास मोर्चा के अधिकतर विधायकों को तोड़कर किया गया.

लेकिन सरकार यदि ईमानदार भी है, तो उसे ‘ईमानदारी’ से बताना चाहिए कि अपनी कथित उपलब्धियों का ढिंढोरा पीटने पर सरकारी खजाने का कितना धन खर्च हुआ? इस तरह के, हमारी समझ से गैरजरूरी, विज्ञापनों के मामले में अब किसी एक दल और सरकार पर दोष मढ़ना बेकार है. अब तो राज्य की सरकरें इस तरह के विज्ञापन पूरे देश के अखबारों में प्रकाशित करवाने लगी हैं. फिर भी यह तो बार बार पूछा जाना चाहिए कि यदि विकास के, रोजगार के, निर्माण के दावे सही हैं, तो इसे बताने के लिए विज्ञापन और पोस्टर पर इतना धन खर्च करना क्यों जरूरी है? और अब तो यह सर्वविदित और सर्वमान्य ही है कि ‘पार्टी विद डिफरेंस’ भी एक जुमला ही था. वैसे जानकार बताते हैं कि इस सरकार में विज्ञापनों के बजट में लगभग दसगुनी वृद्धि हुई है. जहाँ तक ‘ईमानदारी’ का सवाल है, तो यह सही है कि अब तक मंत्रियों पर वित्तीय गड़बड़ी के आरोप नहीं लगे हैं. लेकिन सवाल है कि ‘ईमानदारी’ को कैसे मापा जाये? क्या अपनी चहेती कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए ख़ास उद्योगपतियों और कंपनियों को रियायत देने, जमीन उपलब्ध कराने, जो राज्य और यहाँ की जनता के दूरगामी हितों के खिलाफ जाता हो, को किस रूप में देखा जाये?

यह भी सही है कि घूसखोरी के आरोप में नीचे से ऊपर तक के कर्मचारी-अधिकारी पकडे जा रहे हैं. अच्छी बात है, लेकिन इससे यह भी तो पता चल रहा है कि प्रशासन तंत्र में भ्रष्टाचार का दीमक लगा हुआ है. वैसे ‘बड़ी मछलियां’ जाल में फंसने से बची हुई हैं.

अंततः तो जनता ही तय करेगी कि सरकार के दावों में कितनी सच्चाई है. लेकिन इन एक हजार दिनों में किसानों, मजदूरों, जमीन मालिकों, विभिन्न सरकारी विभागों के कर्मचारियों का असंतोष जिस तरह सड़कों पर दीखता रहा है, वह अपने आप में तस्वीर का दूसरा रुख दिखाता है.

बीते हजार दिनों में राज्य में और भी बहुत कुछ हुआ है, जिन्हें ‘उपलब्धि’ के तौर पर गिना जा सकता. अपराध का ग्राफ बढ़ा है. राजधानी रांची में ही अपराधी लगातार बेख़ौफ़ होकर वारदात को अंजाम देते रहे हैं. राज्य के अन्य जिलों-शहरों की हालत तो बदतर है ही. देश के नये ट्रेंड के मुताबिक कम से तीन जगह- लातेहार, रामगढ़ और गिरिडीह- गाय के नाम पर मुसलिम पशु व्यापारियों की हत्या का दी गयी. इसके अलावा अफवाहों के कारण भी अनेक लोग भीड़ की हिंसा के शिकार हुए हैं. सिंहभूम में बच्चा चोरी और गो-तस्करी की अफवाह के चलते कम से कम सात लोगों की जान चली गयी. महिलाओं के खिलाफ ज्यादती और हिंसा की घटनाएँ भी बढ़ी हैं. डायन बता कर महिलाओं को प्रताड़ित करने, यहां तक कि हत्या कर देने की घटनाएँ कम नहीं हो रही हैं.

इस बीच सीएनटी एक्ट में संशोधन का प्रयास हुआ. विरोध के बावजूद बहुमत के जोर पर विधानसभा से पारित भी हो गया. पर अंततः ‘आलाकमान’ को खतरे का एहसास हो गया और राज्यपाल ने आपत्तियों के साथ उसे वापस लौटा दिया. फिर धर्मांतरण पर रोक संबंधी कानून बना, जो भाजपा के एजेंडे में हमेशा से रहा है.उस पर राज्यपाल की मंजूरी भी मिल गयी है, जो अब राष्ट्रपति (व्यवहार में केंद्र सरकार) के पास लंबित है. कुछ ‘सरना’ संगठन भी इसके पक्ष में हैं. हालांकि धर्मांतरण पर पूर्ण रोक का तो कानून बन ही नहीं सकता. यह संविधान के खिलाफ होगा. इसलिए यह कानून दरअसल जबरन और प्रलोभन के बल पर कराये जानेवाले धर्मांतरण पर रोक के लिए है. इसमें कोई खास हर्ज भी नहीं है, मगर इसके लिए अलग से कानून बनाने की कोई ठोस वजह नहीं है. क्योंकि धोखाधड़ी अपने आप में दंडनीय अपराध है. इसके पीछे मूल उद्देश्य आदिवासी समुदायों के बीच एक हद तक पहले से विद्यमान विभाजन को और पुख्ता करना है. यानी मकसद राजनीतिक है. इस तरह सरकार की एक उपलब्धि आदिवासी बनाम गैरादिवासी (सीएनटी एक्ट में संशोधन का प्रयास); हिंदू बनाम मुसलिम (गो-रक्षा) और आदिवासी बनाम आदिवासी (धर्मांतरण पर रोक) के बीच दरार करना भी है. कुल मिला कर जोड़ने से अधिक समाज में विभाजन का काम अधिक हो रहा है.

इस बीच शराबबंदी के लिए चल रहे आंदोलन और पड़ोसी राज्य में शराबबंदी करनेवाली सरकार में शामिल होने के बावजूद राज्य की भाजपा सरकार ने खुद ही शराब बेचने (या परोसने) का फैसला किया. इससे नकली व मिलावटी शराब की बिक्री बढ़ गयी. ऐसी ही मिलावटी या जहरीली शराब पीने से कुछ दिन पहले बीस से अधिक लोगों के मारे जाने का हादसा भी हो चुका है.

हां, सरकार कुछ करती हुई नजर आती है. मुख्यमंत्री सक्रिय नजर आते हैं. कम से कम मीडिया में तो जरूर. आलाकमान, यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री के काम से प्रभावित और प्रसन्न हैं. आलाकमान नंबर-दो, यानी शाह तो इतने उत्साहित हैं कि अगले चनाव में कम से कण 60 सीटें जीतने का टारगेट देकर गये हैं. यह भी कम बड़ी उपलब्धि नहीं है. जनता दरबारों का सिलसिला चल रहा है. शिलान्यास हो रहे हैं. रांची को ‘स्मार्ट सिटी’ बनाने की बात थी, पर अब ‘रांची में’ एक स्मार्ट सिटी बनेगी. सड़कें चौड़ी हो रही हैं, फ्लाई ओवर बनाने की तैयारी चल रही है, पर मोहल्ले बदहाल हैं. ‘स्वच्छ भारत अभियान’ चल ही रहा था कि प्रधानमंत्री के जन्म दिन को ‘स्वच्छता ही सेवा’ अभियान प्रारंभ हो गया. वायदों और घोषणाओं की झड़ी लगी हुई है. सरकार अगले एक हजार दिनों के सफ़र पर निकल पड़ी है. शुभकामनाएं!