हाल के दिनों में स्कूलों में घटने वाली धटनाओं को महज दुर्घटना के रूप में लिया जाये या हमारे समाज की अज्ञानता या सरकारी नीतियों में कोई कमी रही है जो कलांतर में इस वीभत्स रूप में प्रकट हो रही है. गुड़गांव के रायन स्कूल में सात वर्ष के बच्चे की हत्या हो जाती है. दिल्ली के एक स्कूल में पांच वर्ष की छोटी लड़की के साथ बलात्कार होता है. हैदराबाद में 13-14 वर्ष की एक छात्रा को, लड़कों के शौंचालय में दो घंटे तक खड़े रहने की सजा इसलिए दी जाती है क्योंकि वह स्कूल यूनीफार्म पहन कर स्कूल नहीं जाती. ये तीन घटनाएं हाल की हैं और उदाहरण के लिए ली गई हैं. इस तरह की अनेकों घटनाएं पहले भी हुई हैं और आगे भी होंगी. जिस देश में 20 करोड़ बच्चे हों वहां उनकी सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ आदि को लेकर कोई स्पष्ट नीति न बने या जो भी नीति है उसका पालन कड़ाई से न हो तो इस तर की घटनाओं को रोक पाना कठिन ही होगा.
भारत के संविधान में प्रत्येक बच्चे को शिक्षा पाने का मौलिक अधिकार दिया गया है और सरकार का दायित्व है कि वह शिक्षा से संबंधित नीति बनाये, अमल करे और उस पर अपने बजट की प्र्याप्त राशि खर्च करे. भारत में शिक्षा पर कुल आय का लगभग तीन प्रतिशत खर्च किया जाता है, जो कि तय राशि 6 प्रतिशत से काफी कम है. 1949 में सरकार ने शिक्षा पर दस प्रतिशत व्यय करने का निश्चय किया था, लेकिन उतना हुआ नहीं. बाद में कोठारी आयोग तथा सैकिया कमेटी ने छह प्रतिशत व्यय करना सुनिश्चित किया, जिसका आधा प्राईमरी शिक्षा पर खर्च करना तय हुआ. लेकिन सरकार शिक्षा पर उतना खर्च नहीं करती. इतनी कम राशि में बढते हुए बच्चों की संख्या के लिए एक समान शिक्षा व्यवस्था करना किसी भी सरकार के लिए कठिन होगा. आजादी के बाद सामाजिक समानता को ध्यान में रख कर एक समान शिक्षा व्यवस्था के लिए पूरे देश में केंद्रीय स्कूल तथा राज्य सरकारों ने राज्य सरकारी स्कूल खोले. उसके लिए जरूरत के भवन, साजो-सामान, प्रयोगशालाएं तथा पाठ्यक्रम भी बने. आगे चल कर ग्रामीण बच्चों को ध्यान में रख कर नवोदय विद्यालय, कस्तूरबा विद्यालय आदि बने. यदि इन विद्यालयों पर पूरा ध्यान दिया जाता और चलाया जाता तो सरकार की समान शिक्षा नीति का लक्ष्य पूरा होता. लेकिन आर्थिक रूप से बंटे हमारे समाज में ये सरकारी स्कूल केवल गरीब बच्चों के लिए मान लिये गये, क्योंकि इनमें निःशुल्क शिक्षा दी जाती है. अमीर घरों के बच्चों के लिए अलग स्कूल की मांग उठने लगी. मंत्री, सरकारी अफसर और अमीरों ने अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार अपने बच्चों को विदेशों में भेज कर बेहतर शिक्षा की व्यवस्था कर ली, लेकिन ऐसा तबका जो अपनी हैसियत सरकारी स्कूलों से बेहतर स्कूलों का मानता था, उनके लिए कई मिशन स्कूल और निजी स्कूल शुरु हो गये जो सरकारी सहायता से ही चलते थे. इस तरह देश में गरीब बच्चों के लिए अलग स्कूल तथा धनी बच्चों के लिए अलग स्कूल बन गये. उंची फीस लेकर महंगी शिक्षा देने वाले स्कूल कुकरमुत्तों की तरह पैदा होते चले गये जो अपने को सरकारी नीतियों से अलग समझते हैं. बच्चों की सुरक्षा के मानक नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए ये अपनी दुकान चला रहे हैं और सरकार देखती रहती है.
दूसरी तरफ, हैसियत वाले अभिभावक जो रात दिन अपने बच्चों के उज्जवल भविष्य की चिंता में घुलते रहते हैं, ऐसे स्कूलों में प्रवेश पाने के लिए अथक प्रयास करते हैं. प्रवेश पा गये, तो खुद को धन्य मानते हैं. ऐसे अभिभावकों को अपने बच्चों के भविष्य की तो चिंता रहती है, लेकिन वर्तमान में बच्चा जिस स्कूल में जा रहा है, वह उसके लिए कितना सुरक्षित है, इसपर ध्यान नहीं देते. कोई अप्रिय घटना घट जाने पर जो भी आवाज उठती है, वह क्षणिक ही होती है. क्योंकि हर अभिभावक को स्कूल बंद हो जाने पर अपने बच्चे की पढाई की चिंता ज्यादा रहती है. किसी भी तरह स्कूल चले, उनका बच्चा पढे और उनका पैसा और प्रयत्न बेकार न जाये, यही उनका लक्ष्य रहता है.
ज्ब शिक्षा व्यवस्था अमीर और गरीब के बीच बंट ही गई तो हम पहले गरीबों के लिए बने सरकारी स्कूलों की स्थिति को देखें. अमूमन इन स्कूलों का हाल खराब ही कहा जायेगा. कहीं स्कूल भवन नहीं है, तो कही स्कूल की हालत खास्ता है. बेंच नहीं, ब्लैक बोर्ड नहीं और शिक्षकों की कमी आम बातें हैं. इस तरह के स्कूलों में 95 फीसदी बच्चे प्रवेश तो लेते हैं, लेकिन पांचवी कक्षा तक आते आते आधे बच्चे कम हो जाते हैं. दसवीं तक आते आते यह गिरावट 62 प्रतिशत हो जाती है. बच्चों को स्कूल तक लाने के लिए मध्यान भोजन की भी व्यवस्था की गई है, लेकिन शिक्षण स्तर में लगातार गिरावट के कारण पांचवी कक्षा का छात्र दूसरी कक्षा की किताबों को पढने में असमर्थ है. यह बात प्रथम नामक संस्था के सर्वेक्षण में पाई गयी है. शिक्षण स्तर के इस गिरावट के लिए तो केवल शिक्षकों को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. मध्यान भोजन केवल बच्चों को स्कूल की ओर आकर्षित नहीं करता, स्कूलों में पढाने का ढंग और अन्य सुविधाएं भी उनके लिए जरूरी है. सरकार को ये जरूरतें नजर नहीं आती हैं या फिर इन जरूरतों को पूरा करना सरकार जरूरी नहीं समझती है.
सरकारी स्कूलों की दुर्दशा हो या निजी स्कूलों की मनमानी, यह बात स्पष्ट होती है कि देश में दोहरी शिक्षा व्यवस्था ही इसके जड़ में है. प्राईमरी स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक शिक्षा का निजीकरण हुआ है, उससे अभिभावाकों का तो दोहन होता ही है, बच्चों की असुरक्षा भी बढ़ गई है. सरकारी स्कूलों तथा शिक्षण संस्थानों से सरकार उदासीन होती चली जा रही है. आरएसएस ने तो सरकारी स्कूलों को बंद करने की सलाह दे डाली है. इसी दोहरी शिक्षा व्यवस्था का परिणाम है कि सरकारी स्कूलों से निकले छात्र प्रतियोगी परीक्षाओं में पास नहीं होते और आत्महत्यायें करते हैं. बजारबादी अर्थ व्यवस्था में शिक्षा का स्वरूप यही होगा जिसमें शिक्षा का लाभ कुछ लोगों को ही मिलेगा और बहुसंख्यक लोग कुशिक्षित या अशिक्षित रहेंगे. आजादी के सत्तर वर्ष बाद भी भारत में निरक्षरों की संख्या 28.7 फीसदी है जो चिंतनीय भी है और सोचनीय भी.