आदिवासियों की सांस्कृतिक अस्मिता और पहचान को बचाने के नाम कई पर कई नये राज्य बन गये,आदिवासियों के नाम पर कई सरकारी परियोजनाएं चल रही हैं, शैक्षणिक जगत और शोध संस्थानों में तरह तरह के शोध हो रहे हैं, लेकिन अब तक देश के प्रभु वर्ग के सामने यह स्पष्ट नहीं कि आदिवासी या जनजाति कौन है? जो प्रचलित मापदंड हैं उनमें है –
एक, किसी जनजाति के ‘जनजाति’ होने के लिए उसमें कम से कम कार्यशील परस्पर निर्भरता होनी चाहिए. उनके हिसाब से हिंदू वर्ण व्यवस्था उच्च परस्पर निर्भरता का एक उदाहरण है.
दो, उसको आर्थिक रूप से पिछड़ा हेाना चाहिए. यानी, वे मौद्रिक अर्थतंत्र का पूरा महत्व नहीं समझते हों. प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में आदिम संसाधनों का उपयोग करते हों आदि.
तीन, इसके लोगों का दूसरे लोगों से अधिक भौगोलिक बिलगाव हो.
चार, साझा बोली हो
पांच, उनके पास राजनीतिक रूप से संगठित और सामुदायिक पंचायत प्रभावी संस्था हो,
छह, समुदाय के सदस्यों में परिवर्तन की कम से कम आकांक्षा हो,
और सात, उनका अपना पारंपरिक कानून हो और उसके सदस्यों को उन पारंपरिक कानूनों से पीड़ित होना पड़ सकता है.
हैं तो अन्य मापदंड भी, लेकिन मूलतः इन्हीं के इर्द गिर्द खंडन मंडन की प्रक्रिया चलती रहती है जो अंततोगत्वा इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि जनजाति की अब तक कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं.
आईये, हम एक एक कर इन मापदंडों के अर्थ को समझने की कोशिश करें. दरअसल, ये सारे मापदंड प्रकारांतर से आदिवासी समाज को एक पिछड़े समाज के रूप में पारिभाषित करने की कोशिश है. वह भी विकास के अपने नजरिये और पैमाने से.
एक, कम से कम परस्पर निर्भरता का अर्थ? हमारे हिसाब से यह कि इसमें समुदाय की हर ईकाई आत्मनिर्भर है. वह अन्न भी उपजाता है. अपने लिए घर भी बना लेता है. अपने घर और आस पास की सफाई भी कर लेता है आदि. तो इसे गुण माना जाये या अवगुण. जहां जरूरत है पूरा समाज एक दूसरे की मदद भी करता है. मसलन, जब धान की रोपनी होती है तो बारी बारी से सभी के खेतों में रोपनी का काम सभी घर की महिलाएं मिल कर करती हैं. धन कटनी के वक्त भी वे एक दूसरे की मदद करते हैं.
उसकी तुलना में हिंदू वर्ण व्यवस्था जिसे उच्च परस्पर निर्भरता का उदाहरण बताया गया है, मूलतः एक बड़ी आबादी के श्रम के शोषण पर टिकी व्यवस्था है. मुट्ठी भर लोग बहुसंख्यक आबादी के श्रम के शोषण पर मौज करते हैं. और इसे वर्णाश्रम धर्म के रूप में जस्टीफाई किया गया है. उच्च परस्पर निर्भरता का अर्थ है कि आपका मल जल एक समुदाय विशेष उठाये, मरे पशुओं का संस्कार एक अन्य समुदाय करे. हर तरह का शारीरिक श्रम शूद्र करे और उसका फल आप खायें. तो यह है परस्पर उच्च निर्भरता वाली कार्य संस्कृति का उदाहरण.
दो, उसे आर्थिक रूप से पिछड़ा होना चाहिए. यानी, प्रकारांतर से आप कहते हैं कि आदिवासी आर्थिक रूप से पिछड़ा है. उसके सदस्य मौद्रिक अर्थतंत्र का महत्व नहीं समझते. प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में आदिम साधनों का उपयोग करते हैं आदि. सबसे से पहले तो हम यह कहना चाहेंगे कि तकनालाजी का इस्तेमाल करने वाला तथाकथित सभ्य और सुसंस्कृत समाज भी अंततोगत्वा करता क्या है? उदर और शिश्न की जरूरतों की पूर्ति से इतर? मौद्रिक व्यवस्था का भी लक्ष्य तो तो मानव जीवन को सुगम बनाना ही है न? या इससे इतर कुछ और? आदिवासी समाज भी अपने हिसाब से मुद्रा को समझ रहा है. वह खेती भी करता है और नगदी के लिए उसका एक हिस्सा बेचने भी लगा है, या मजूरी करने लगा है. लेकिन वह बैंक और सटोरियों के जाल में फंस कर आत्महत्या के लिए प्रवृत्त नहीं हुआ है. जहां तक प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में आदिम साधनों के इस्तेमाल का सवाल है तो इसके लिए शेष समाज को उसका शुक्रगुजार होना चाहिए. थोड़ा बहुत जंगल, भूमिगत जल, पहाड़, वनस्पति, शुद्ध हवा आज बचे हैं तो उनके द्वारा आदिम तरीकों के इस्तेमाल की ही वजह से. प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में तकनालाजी के प्रयोग से विनाश किस तरह हर दिन प्रकट हो रहा है, यह बताने की जरूरत नहीं. दरअसल, तकनालाजी का इस्तेमाल आर्थिक आधार बढने पर निर्भर है. आदिवासी इलाकों में भी जहां संभव है, अब खेत जोतने के लिए ट्रैक्टर का इस्तेमाल होता है. लेकिन बहुसंख्यक आबादी की हैसियत ऐसी नहीं कि वे उच्च तकनालाजी का इस्तेमाल कर सकें. तकनालाजी मंहगी है और मुट्ठी भर लोग ही उस तकनालाजी का इस्तेमाल कर सकते हैं. मोबाईल सुलभ हो गया तो आदिवासी भी उसका उपयोग करता है. बिजली उपलब्ध होगी तो वह ढिबरी का उपयोग नहीं करेगा. वह अपनी भौतिक स्थिति की सीमाओं को जानता है और उन सीमाओं के भीतर ही अपनी आवश्यकताओं को सीमित कर लिया है. वह गांधी के उस सूत्र वाक्य पर गांधी के पहले से अमल करता चला आ रहा है कि धरती सभी की जरूरतों को पूरा कर सकती है, लेकिन किसी एक व्यक्ति के हवस को नहीं.
तीन, जहां तक भौगोलिक अलगाव का सवाल है, वह एक हकीकत है. अपनी जरूरत और स्वभाव के हिसाब से आदिवासी समाज की अलग- अलग जातियां अलग- अलग और एक दूसरे से स्वायत्त रहती हैं. पश्चिमी सिंहभूम के पोटका में यदि खड़िया पहाड़ों पर रहता है तो संथाल बस्तियां पहाड़ों के ढलान और जंगलों के बीच और भूमिज भरसक समतल क्षेत्र में. उनके रहन-सहन में अंतर है, और वे एक दूसरे से कम मिलते जुलते भी हैं. लेकिन उनमें कभी टकराव भी नहीं होता. वे शांतिपूर्ण सह अस्तित्व में विश्वास करते हैं. और उन्हें जोड़ने वाला तथ्य यह कि वह श्रमशील समाज है. इसके अलावा भौगोलिक अलगाव के बावजूद उनमें कुछ सामान्य गुण हैं जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे.
चार, सांझा बोली तो हर समुदाय की होती है. बिहार के एक हिस्से में भोजपूरी बोली जाती है तो एक अन्य हिस्से में मैथिली और कहीं मगही. संपर्क भाषा या सामान्य भाषा के रूप में लोग खड़ी बोली का इस्तेमाल करते हैं. इसी तरह अलग अलग जनजातियों की भाषायें भी अलग-अलग हैं और आपस में बातचीत के लिए उन लोगों ने भी सामान्य भाषाओं की इजाद की है जो देश के विभिन्न हिस्सों में बोली जाती है. मसलन, झारखंड के बड़े हिस्से में आदिवासी समाज नागपुरिया का इस्तेमाल करता है. .
पांच, राजनीतिक रूप से संगठन और पंचायत प्रभावी संस्था का अर्थ हम यह लगाते हैं कि सभी आदिवासी समुदायों में स्वशासन की अपनी व्यवस्था होती है. कुछ खामियों के बावजूद स्वशासन की यह व्यवस्था बगैर थाना, कोर्ट, कचहरी, वकील के सदियों से चला आ रहा है. इसके समानांतर गैर आदिवासी समाज में हमेशा से थाना और पुलिस, कोर्ट कचहरी रहे हैं. उनका स्वरूप पूर्व में भले ही भिन्न रहा हो. तो स्वशासन की आदिवासी व्यवस्था को हम पिछड़ेपन की निशानी नहीं मान सकते. सजा का प्रावधान वहां है, लेकिन उसमें गलती की गुंजाईश बहुत कम होती है और सजा एक तरह से समाज देता है. इसकी तुलना में आधुनिक न्याय व्यवस्था पुलिय और वकीलों की मुहताज होती है और मंहगी न्याय प्रणाली ने उसे गरीबों के लिए दुर्लभ बना दिया है.
छह, समुदाय के सदस्यों में परिवर्तन की कम आकांक्षा होनी चाहिए, तभी वह जनजाति माना जायेगा. यह अजीबोगरीब मापदंड है और मान कर चलता है कि आदिवासी समाज परिवर्तन का आकांक्षी नहीं है. यदि है तो उसकी आदिवासियत ही संदिग्ध हो जायेगी. यानी, विकसित प्राणी होने के लिए उसे ‘यह दिल मांगे मोर’ की संस्कृति का अनुगामी होना होगा. या फिर आकांक्षा पैदा होते ही वह आदिवासी नहीं रहेगा.
दरअसल, आदिवासीयत को पारिभाषित करने का काम ज्यादातर बहिरागतों ने ही किया है जो ब्यूरोक्रैशी, शैक्षणिक शोध संस्थानों में बैठे हैं. उन्होंने कभी गहराई से आदिवासी समाज और संस्कृति को सहानुभूति नहीं, आत्मीयता से देखा ही नहीं. उनके विकास के पैमाने पूंजीवादी सोच और चिंतनधारा से प्रभावित हैं. हम और हमारे मित्र लगातार इस पर चिंतन मनन करते रहे हैं. हमारे लिए आदिवासियत का पैमाना है:
- वह श्रमशील होता है. दूसरे के श्रम पर का शोषण नहीं करता
- वह प्रकृति के साहचर्य में रहता है और उसका उतना ही दोहन करता है जितना जितना नितांत जरूरी है
- सामूहिकता उनके जीवन का मूलाधार है
- वह समता मूलक समाज है, वहां आर्थिक आधार पर बने अलग-अलग वर्ग नहीं.
- वहां उत्पादन की प्रेरक शक्ति मुनाफा नहीं
- वहां स्त्री-पुरुष समानता है. वहां कन्या भ्रूण की हत्या नहीं की जाती.
- वहां वर्णाश्रम धर्म प्रभावी नहीं
- वहां मंच और दर्शक दीर्घा का प्रावधान नहीं.
- वह समाज सदियों से थाना-पुलिस, कोर्ट कचहरी और जेल के बगैर चला आ रहा है.
- शांति और युद्ध में पूरा समाज एक साथ होता है.
- वह मृत्यु को अंत नहीं मानता. सिर्फ शरीर का अदृश्य हो जाना मानता है. उसे हर वक्त यह एहसास रहता है कि उसके पूर्वज उसके घर आंगन, खेत खलिहान में मौजूद हैं और उसे देख रहे हैं.
भौगोलिक बिलगाव के बावजूद ये आदिवासी समाज को जोड़ने वाले कुछ सामान्य तथ्य हैं. समय के साथ आदिवासी समाज का भौतिक आधार बढेगा, और उनकी मनोवृत्तियों में भी बदलाव आयेगा. लेकिन जिन सदगुणों को लेकर वे चल रहे हैं, मनुष्य जाति को बचाने के लिए आवश्यक हैं. वे पिछड़ेपन की निशानी तो यकीनन नहीं और उन्हें पहचानना मुश्किल नहीं.ूद ये आदिवासी समाज को जोड़ने वाले कुछ सामान्य तथ्य हैं. समय के साथ आदिवासी समाज का भौतिक आधार बढेगा, और उनकी मनोवृत्तियों में भी बदलाव आयेगा. लेकिन जिन सदगुणों को लेकर वे चल रहे हैं, मनुष्य जाति को बचाने के लिए आवश्यक हैं. वे पिछड़ेपन की निशानी तो यकीनन नहीं और उन्हें पहचानना मुश्किल नहीं.