देश के अम्बेडकरवादी और अन्य जनवादी-क्रान्तिकारी समूह जाति के खात्मे की लड़ाई में अम्बेडकर की भूमिका को काफी महत्त्वपूर्ण मानते हैं. अपने राजनैतिक जीवन के शुरुआती दौर में उन्होंने सवर्णों के पाखंड का विरोध किया और फिर दलितों के मन्दिरों में प्रवेश दिलाने हेतु जोरदार आन्दोलन किया. इसी सिलसिले में उन्होंने कांग्रेसियों की सवर्ण मानसिकता और गाँधी के अछूतोद्धार की अवधारणा का विरोध किया. उन्होंने अछूतों के लिये जमीन व अलग काॅलोनियों की माँगें की. साथ ही साथ, उन्होंने जाति व्यवस्था के खात्मे की भी बात की. उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि ‘स्वाधीनता से पहले जाति उन्मूलन जैसे सामाजिक सुधार होने चाहिए।’ उनकी मान्यता थी कि जाति उन्मूलन के पहले भारत अगर स्वाधीन होगा तो ‘वह हिन्दुओं की स्वाधीनता होगी और निम्न जातियों की स्वाधीनता नहीं होगी।’
अम्बेडकर मुस्लिम लीग के समर्थन से संविधान सभा के सदस्य बने और इस सभा के पहले भाषण में ही उनके रुख में गुणात्मक परिवर्तन दिखाई पड़ा. यह उनका विलक्षण भाषण था जिसमें एक ओर कांग्रेस को राजनैतिक तौर पर व हिन्दुओं को साम्प्रदायिक तौर पर संतुष्ट करने की कोशिश की गयी. इसके बाद कांग्रेस ने न केवल उन्हें बम्बई से निर्वाचित किया बल्कि नेहरू के नवगठित मंत्रिमंडल में उन्हें विधिमंत्री भी बना दिया. फिर जब संविधान सभा ने ‘भारतीय संविधान’ को पारित किया तो अम्बेडकर ने इसे ‘राजनीतिक लोकतंत्रा की विशाल संरचना’ के रूप में चित्रित किया। लेकिन संविधन लागू होने के दो-तीन वर्षों के अन्दर ही उन्हें इसके असली चरित्र का अहसास हो गया। 1953 में राज्य सभा में ‘आन्ध्र राज्य के बिल’ पर बोलते हुए उन्होंने कहा - सब लोग मुझे संविधान सभा का निर्माता कहते हैं. वास्तव में, मुझे बहुत सी बातें अपनी इच्छाओं के विरुद्ध लिखनी पड़ी थी. अब मैं संविधान से सन्तुष्ट नहीं हूँ जिसे मैंने स्वयं लिखा. मैं पहला व्यक्ति होऊँगा जो इसे जलाने के लिए आगे आएगा. यह संविधान किसी के लिए उपयोगी नहीं है. ̧
अन्ततः निराश होकर उन्होंने 1955 में विधिमंत्री के पद से इस्तीपफा दे दिया. इसके बाद अम्बेडकर ने 14 अक्तूबर 1956 को नागपुर में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया. धर्मान्तर के तुरन्त बाद उन्होंने जो भाषण दिया उसमें मार्क्सवाद की तीखी आलोचना की गयी. उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि मार्क्सवाद केवल भौतिक सुखों की प्राप्ति का उपदेश देता है और यह मानवता के लिए उपयोगी नहीं है. उनके अनुसार, जाति व्यवस्था की मुक्ति और मानवता के समग्र विकास के लिए
बुद्ध का अष्टांग मार्ग सर्वोत्तम मार्ग है.
इस प्रकार वर्तमान सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को तोड़ने का विचार उनकी चेतना का हिस्सा नहीं बन पाया और उनका आन्दोलन सुधारवाद की सीमा से बाहर नहीं निकल पाया. हालाँकि अम्बेडकर ने अर्धसामंती ढाँचे के एक महत्त्वपूर्ण स्तम्भ, जाति व्यवस्था पर सीधा प्रहार करने की जोरदार चेष्टा की.