आपने गौर किया है कि अब हम किसी बात से विचलित नहीं होते. चाहे वह हिंसा की घटना हो, जघन्य बलात्कार की वारदात हो या फिर भ्रष्टाचार का बड़ा से बड़ा मामला. हम अखबार की सुर्खियों को एक बार देखते हैं और पन्ना पलट देते हैं. सार्वजनिक पैसे की लूट खसोट का बड़ा से बड़ा मामला टीवी के चैनलों पर एंकर की ढेर सारी लफ्फबाजी के साथ आंखों के सामने लहराता है और बिना हम पर कोई असर डाले गुजर जाता है. नाबालालिग लड़की से सामूहिक बलात्कार और फिर उस पर किरासन छिड़क कर मार डालने जैसी घटनाएं भी हमे उद्वेलित नहीं करती. हम ब्रेड पर मक्खन लगाते हुए उसे पढते या देखते हैं और फिर उदासीन हो जाते है. ऐसा क्यों हो रहा है? हमारी सामान्य मानवीय प्रवृत्तियां क्यों निष्क्रिय होती जा रही हैं?
आइये, पिछले कुछ वर्षों की कुछ घटनाओं को जरा विस्तार से देखें. हमारे पूरा इलाका हिंसात्मक घटनाओं से आक्रांत है. पुलिस व सुरक्षा बल की क्रूरतापूर्ण घटनाएं होती रहती हैं. माओवादी हिंसा में लोग निरंतर मारे जा रहे हैं. लेकिन हम पर कोई असर नहीं होता. लहूलुहान लोगों की तस्वीरे देख कर भी हमारे रोंगटे खड़े नहीं होते. हमे लगता है जैसे वह किसी दूर देश की घटनाएं हैं. बलात्कार की घटनाटें आम हो गई हैं. सिर्फ खापों के प्रदेश हरियाणा में नहीं, देश के हर हिस्से में. देश की राजधानी दिल्ली में चलती कार में बलात्कार हो जाता है. नए दौर के शहर बैंगलोर के लाॅ कालेज के कैंपस में. सुसंस्कृत प्रदेश की राजधानी कोलकाता में नाबालिग लड़की से सामूहिक बलात्कार के बाद किरासन छिड़क कर उसे जला देने की घटना. और फिर उस पर चलती बहस. बलात्कार की शिकार लड़की के जिस्म पर जख्म के निशान नहीं. उसका कौमार्य सुरक्षित है अथवा नहीं…सार्वजनिक पैसे की लूट और बड़े से बड़े भ्रष्टाचार की खबर. सोनिया गांधी के दामाद और प्यारी सी दिखने वाली प्रियंका के पति ने एक ख्यातिप्राप्त बिल्डर से सांठ गांठ कर चंद महीनों में पचास लाख की पूंजी से 300 करोड़ रुपये की संपत्ति खड़ी कर ली. देश के कानून मंत्री विकलंगों के नाम पर लाखों का घोटाला कर लिया और अब मवालियों की भाषा में आरोपी को धमका रहे हैं. प्रतिपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष पर आरोप लगता है कि वे राजनीति की आड़ में अपना बिजनेस अंपायर खड़ा करने में लगे हैं. लेकिन जनता उदासीन है. इस भ्रष्टाचार से जो सबसे अधिक प्रभावित है, वह खामोश. हमारी चेतना कहां उद्वेलित हो रही है?
दरअसल, हमारी चेतना निरंतर कुंद होती जा रही है. संवेदना का नोक निरंतर भोथड़ा होता जा रहा है. और संपूर्ण व्यवस्था इस साजिश में लगी हुई है कि हम मानवीय संवेदना से युक्त मनुष्य न रहें. हम घृणा नहीं कर सकें, प्रेम नहीं कर सकें. हममे करुणा नहीं जागे. अच्छाई पर से हमारा विश्वास खत्म हो जाये. बस कभी कभी हममे जागे एक नपुंसक गुस्सा जिसके वशीभूत हो हम अपने पड़ोसी के घर में या बस में आग लगा दें. हमारे हत्थे कोई निरीह सा व्यक्ति चढ जाये तो उसे हम पीट पीट कर मार डालें.
दरअसल, मामला उस शराबी की तरह है जिसने शुरुआती दौर में किसी के सोहबत में शराब का एक दो घूंट भरा और अब उसका आदी हो गया है. शराब से उसे नशा ही नहीं होता. या फिर नींद न आने पर नींद की दवा लेने वाला आदमी जो उसकी आदत डाल लेता है और जिसे नींद की ढेर सारी गोली खा लेने पर भी नींद नहीं आती. कुछ उसी तरह हिंसा की निरंतर होने वाली घटनाओं ने उसकी चेतना को इस कदर कुंद किया है कि जहां वह थोड़ा सा लहू देख कर विचलित हो उठता था, अब बम के धमाकों से बिखरे क्षत विक्षत शवों को देख कर भी विचलित नहीं होता. सार्वजनिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार का हर खुलासा उसे भ्रष्टाचार से निरपेक्ष बनाता है. उसे लगता है, यही सच है. यही स्वाभाविक है. इससे निजात नहीं. केजरीवाल सरीखे लोगों के लिए भ्रष्टाचार का मुद्दा उनकी राजनीति का हिस्सा. टीवी चैनलों के लिए टीआरपी बढाने का एक जरिया. इसीलिए भ्रष्टाचार का एक मामला आता है और दो चार दिन में पुराना पड़ जाता है.
टीवी चैनलों पर, उपभोक्ता वस्तुओं के विज्ञापनों में इतनी नग्नता पड़ोसी जा रही है कि नग्नता अब प्रभावित नहीं करती. एक तरह की बीमारी पैदा करती है. बलात्कार की निरंतर बढती घटनाओं का संबंध क्या इसी मनोदशा का नतीजा नहीं? पूरी की पूरी व्यवस्था मनुष्य को संवेदनहीन बनाने में लगी है. मनोहर श्याम जोशी ने एक बार लिखा था कि ‘चोली के पीछे क्या है’ पर ठुमका लगाने वाले और उसका मजा लेने वाले समाज की चड्ढी उतारेंगे तो वहां आपको ‘कुछ’ नहीं मिलेगा.
तो, व्यवस्था की इस खतरनाक साजिश से बचा कैसे जाये? मेरे पास कोई नुस्खा नहीं. बस इस साजिश को समझिये. सचेत रहिए. मनुष्य की अच्छाईयों पर विश्वास कीजिये और हर तरह के दुर्गुणों से भरसक संघर्ष कीजिये. अन्याय का प्रतिकार कीजिये. तभी बचेगी आपकी मानवीय संवेदना.