चलिये इस मामले में उन्हें सांप्रदायिक नहीं कहा जा सकता है. उन्होंने उतनी ही नफरत प्रेमचंद के कालजयी हिंदी उपन्यास ‘गोदान’ से भी दिखाई है जितनी ताजमहल से. ताजमहल को हाल में उन्होंने नफरत का शिकार बताते हुए उसे एक ‘कलंक’ बताया. उस ताजमहल को जो भारत की शान है और जिसे देखने मात्र के लिए हजारो सैलानी भारत भ्रमण करते हैं. दरअसल, उन्हें उस हर चीज से नफरत है जिससे सांप्रदायिक सौहार्द और आपसी भाईचारा—प्रेम पैदा हो.
पिछले दिनों मुंशी प्रेमचंद की कालजयी रचना ‘गोदान’ को ‘केंद्रीय हिंदी संस्थान’ ने अपने पाठ्यक्रम से निकाल बाहर फेंका. ‘केहिसं’ प्रशासन ने दलील दी है कि उपन्यास की ग्रामीण पृष्ठभूमि और इसमें प्रयुक्त अवधी भाषा का पुट विदेशी छात्रों को समझ में नहीं आता लिहाज़ा उन्हें भारी दिक्कत होती है. ग़ौरतलब है कि ‘गोदान’ न सिर्फ प्रेमचंद प्रतिनिधि रचना के रूप में जाना जाता है बल्कि हिंदी आलोचना के नज़रिये से इसे उनका सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास माना गया है. भारतीय भाषाओँ की साहित्यिक पुस्तकों में सर्वाधिक बिक्री के रिकार्ड का तमगा भी इसे ही हासिल है. इतना ही नहीं, विश्व की अन्य भाषाओँ में सबसे ज़्यादा अनुवाद होने वाली भारतीय भाषा की किताब भी ‘गोदान’ ही है. सन 1936 से लेकर अब तक इसके अन्यान्य प्रकाशनों की तुलना में संख्या की दृष्टि से केवल लियो तोलस्तोय का ‘वॉर एंड पीस’ ही इसकी टक्कर में खड़ा हो पाता है. ‘हिंदी संस्थान की भोथरी राजनीतिक दलील स्पष्ट कर देती है कि मौजूदा शासन में देश की कालजयी रचनाओं का भविष्य सुरक्षित नहीं. ज़रुरत है, सभी सचेत पाठक ऐसी मूढ़ता और अलोकतांत्रिक कार्रवाईयों का प्रबल विरोध करें.