पिछले दिनों फेसबुक पर एक नया चलन देखने को मिला- मूंछ और उसके उपर एक मुकुटयुक्त चित्र देकर लिखा गया ‘मिस्टर दलित’. यह उस चित्र की भी याद दिलाती है जब भीम सेना के संस्थापक चंद्रशेखर रावण ने कड़क मूछों के साथ एक मोटरसाईकल पर बैठ कर, जिस पर ‘महान चमार’ का तख्ता लटका था, अपनी सेना का नेतृत्व करता दिखता है. ‘मूछों की लड़ाई’ उस समय से शुरु हुई जब गुजरात में एक दलित युवक को मूछ रखने के अपराध में पीट दिया गया था.

युगों से दलित क्या खायेगा, क्या पहनेगा और कहां रहेगा, यह उच्च जातियां ही निश्चित करती रही हैं. दलितों के अलग टोले मोहल्ले होते हैं. उच्च जातिवालों के मोहल्लों में जाना उनके लिए वर्जित ही होता है. एक जमाना तो ऐसा था कि दलित यदि उंची जाति वालों के मोहल्ले में जाना होता उनकीसेवाके लिए ही तोउन्हें एलान करके या किसी तरह की ध्वनि पैदा कर लोगों कोपहले अगाह कर देना पड़ता था. गुजरात में दलित पुरुषों को बिना कोर की छोटी धोंती पहननी पड़ती थी और उंची जातिवालों के सामने चप्पल को हाथ में लेकर चलना पड़ता था. दलित स्त्रियां सोने की नहीं, केवल लोहा या चांदी के ही जेवर पहन सकती थीं. केरल की दलित स्त्रियों को उच्च जाति के पुरुषों के सामने शरीर के उपरी भाग को ढकने का अधिकार नहीं था. दूसरी तरफ डोम जाति के लोगों को मृत शरीर से उतरे कपड़े ही पहनने की इजाजत थी. महार जाति के लोगों को अपने गले में जाति सूचक काले रंग का धागा लपेटना पड़ता था.

इस तरह पूरे भारत में दलितों के लिए विचित्र नियम बने हुए थे जिनका पालन करना दलितों के लिए अनिवार्य था. इससे उच्च जातियों के अहम की तुष्टी होती थी और स्वार्थ सिद्धि भी. लेकिन न तो भारतीय संविधान इस तरह के किसी भेदभाव की इजाजत देता है और न दलितों की युवा पीढ़ी इन भेदभावों को स्वीकार करने के लिए तैयार है. लेकिन उच्च जातियों का दिमाग अब तक बदला नहीं है और अब भी यदि कोई दलित दुल्हा बन कर घोड़ा चढता है या आएएस अफसर बन कर उच्च जाति के लोगों कोनिर्देशदेता है, या मूछ ही रखताहै तो उन्हें यह बर्दाश्त से बाहर है. दलितों में सम्मान से जीने की यह इच्छा उन्हें नागवार गुजरती है. उना और निंबोदरा की घटनायें इसी असहिष्णुता का नतीजा है.

लेकिन लगता नहीं है कि उच्च जातियां अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करने के लिए दलितों पर अत्याचार करती रह पायेंगी. खून का घूंट पीकर ही सही उनके साथ सामंजस्य बना कर उन्हें जीना ही होगा.