अभी जब पटना विश्वविद्यालय के सौ साल हुए, तो मन अनायास पुरानी यादों में डूबने-उतराने लगा. यह सोच कर कि मैं भी इसका एक हिस्सा रह चुकी हूं. स्कूल की पढ़ाई पूरी कर इंटर के लिए मगघ महिला कॉलेज आयी. पटना विश्वविद्यालय से जुड़े कॉलेज बहुत कम ही थे, शायद आज भी कम ही हैं. लड़कियों के लिए वीमेंस कॉलेज या फिर मगघ महिला कॉलेज. वीमेंस कॉलेज विवि का कुछ नफासत भरा मुस्कुराता हुआ शालीन चेहरा था, तो हमारा कॉलेज अल्हड़, हंसता और खिलखिलाता हुआ.
मैं आयी थी को-एड से, जहां लड़कों के बीच सिर झुकाये रहना पड़ता था. यहां के खुले खुले वातावरण ने बड़ी मदद की. वय:संधि की उड़ान को हम उम्रों का अच्छा साथ मिला. पता नहीं आज देखकर कैसा लगेगा, पर उस समय तो कॉलेज काफी फैला फैला और विस्तृत था. सफाई और सज्जा बहुत प्रशंसनीय थी, ऐसा नहीं, मगर गंदगी भी नहीं, न ही बेजान. बस सुंदर सुंदर. क्लासरूम में पर्याप्त जगह, रौशन. खाली समय कम होता था और शिक्षक सचमुच पढ़ाते थे, पढ़ाना चाहते थे. अपवादों को छोड़ दें तो छात्राएं पढ़ना चाहती थीं और शिक्षक पढ़ाना. शिक्षा जगत में और क्या चाहिए? पटना विश्वविद्यालय में तो राज्य भर से अच्छे विद्यार्थियों का जुटान होता था. हम अपने शिक्षकों में अधिकतर को प्यार करते, आदर करते और उनको ही अपना रोल मॉडल बनाते. समय कुछ बदला हुआ सा था, जब शिक्षकों से न केवल यह कि डर नहीं लगता था, बल्कि सहजता से बात होती. ठीक मित्रवत तो नहीं, पर अनुशासन के नाम पर कठोरता भी नहीं. अपनी पढाई संबंधी समस्याएं बताने और मदद लेने में संकोच नहीं होता था.
मुझे खाली समय में घास पर बैठना बहुत भाता था. जाहिर है, मुख्य भवन के सामने फूलों से सजे प्रांगण में शायद ही बैठने का मौका मिलता. जब मिलता तो मजे करते, पर मुझे उसकी थोड़ी कम ही परवाह थी. हमारे भौतिकी विभाग के निकट काफी जगह थी. बहुत व्यवस्थित नहीं, पर वृक्षों से घिरा. मेरी पसंदीदा जगह. मैं वहां मजे से उपन्यास या कहानियां पढ़ती और डूब जाती. समय का ध्यान नहीं रहता. और घंटी की आवाज सुन वैसी ही किताबें हाथ में लिये दिये दौड़ पड़ती. क्लास रूम में घुसते समय शर्मिंदा होती. और यह होता ही रहता, क्योंकि दोनों के बीच अच्छी दूरी थी- मुख्य भवन जहां अधिकतर कक्षायें होतीं और भौतिकी विभाग के बीच, जो मेरी प्यारी जगह थी. इस विभाग की शिक्षिकाओं से कुछ अतिरिक्त लगाव भी बना. और फिर हिंदी साहित्य की कक्षाएं. सचमुच मैं डूब-सी जाती. उस समय हमारे कॉलेज में राज्य भर (संयुक्त बिहार) के तेज विद्यार्धी ही नही थे, बल्कि शिक्षक भी चुनिंदा ही थे. हां, मुझे गर्व था वहां होने का, उन शिक्षकों के बीच होने का, उस वातावरण में होने का जहां निषेध कम थे, प्रोत्साहन ज्यादा था. कॉलेज में घुसते ही कुंठामुक्त-निर्द्वंद सी हो जाती. इंटर के बाद पटना साईंस कॉलेज पहुंची. यह भी पटना विश्वविद्यालय से जुड़ा था. शुरू शुरू में लड़कियों के कॉमन रूम में बैठती. वहां से अपने विभाग के बीच दायीं ओर दो विशाल मैदान थे, जिनमें हमेशा कोई न कोई खेल होता रहता. लॉन टेनिस का खेल पहली बार मैंने वहीं देखा.
जल्दी ही विभाग की सीढियां हमारा अड्डा बन गयीं. विभाग में मुख्य प्रवेश के अलावा साइड गेट भी थे, जहां आवाजाही कम थी. और ठीक वहीं पर क्लासेज भी होते थे. साईंस कॉलेज में पोस्ट ग्रैजुएट भी था. यानी विज्ञान की मास्टर डिग्री की पढाई सिर्फ यहीं होती थी. तो सारी व्यवस्था भी उसी स्तर की थी. विभाग में सीनियर विद्यार्थी घूमते रहते. शुरू में हिचक सी होती, मगर जल्दी ही इस सब से अपनापन बनता गया. यों तो सभी विभागों में ऐसा ही वातावरण था; खास कर हमारे विभाग में और भी सुरक्षित और आत्मीय. पढ़ने-पढ़ाने का माहौल था. मुझे याद है कि हमारे एक शिक्षक समय के पहले क्लासरूम में आ जाते, ताकि डायग्राम बना कर तैयार रहें; और हमारे समय पर पहुंचते ही पढ़ाना शुरू. डायग्राम काफी जटिल होते, पर उसकी मदद से समझना आसान होता. तो हमारा समय बचाने वे पहले ही आ जाते. अन्य शिक्षक भी कमोवेश मेहनत करते-हमें समझाने के लिए और आगे बढ़ाने के लिए. और अपने शिक्षकों की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए हम भी खूब मेहनत करते. तो ऐसा था हमारा कॉलेज. हां, उसी समय एक दो ऐसे शिक्षक भी थे, जो वहां की गरिमा के अनुरुप नहीं थे. शायद वह क्षरण की शुरुआत थी.
और सबसे शानदार यह कि मगध महिला और साइंस कॉलेज सहित विवि के तमाम कॉलेज गंगा नदी के किनारे अवस्थित थे, जिससे इनकी खूबसूरती और बढ़ जाती थी/है. कॉलेजों के छात्रावासों के पास ढंग के घात बने हुए थे. घाट की सीढ़ियों पर पानी में पानी में बैठने का सुखद अनुभव लेना सबको सुलभ था.
पढाई के बाद/अलावा भी हमारी गतिविधियां चलती रहतीं. सभी राजनैतिक दलों की युवा शाखाएं यहां सक्रिय थीं. हमेशा उनके कार्यक्रम चलते. राजनैतिक चेतना का अभाव नहीं था. इमरजेंसी के समय भी विरोध के कार्यक्रम लिये गये और पटना विश्वविद्यालय इसका केन्द्र बना. और हम सभी जानते हैं कि 1974 में शुरू हुए बिहार के उस बड़े और ऐतिहसिक आंदोलन की अगुआई यहां के छात्रों ने ही की, जिसका बाद में लोकनायक जयप्रकाश ने नेतृत्व किया. हो सकता है, इससे यहां के सेशन गड़वड़ा गये हों, पर देश-समाज के प्रति अपने दायित्वों को इसने पूरा किया. मैं तो मानती हूँ कि यह विश्वविद्यालय पढ़ाई में तो अव्वल रहा ही, जरूरत पड़ने पर सामाजिक जिम्मेदारियों को भी पूरा किया. सत्ता-परिवर्तन की लड़ाई हो या व्यवस्था-परिवर्तन का संघर्ष, यहां के विद्यार्थियों ने जम कर हिस्सा लिया.
आज इस विश्वविद्यालय की दुरावस्था के बारे में पढ़-सुन कर दुख होता है. आज हालत यह है कि जिनके अभिभावकों की हैसियत है, वे अपने बच्चों को ऊंची शिक्षा के लिए बाहर ही भेजते हैं. यह उस समय कल्पना से परे था. यह विश्वविद्यालय फिर से देश के शिक्षा जगत में अपनी पुरानी ऊंचाई हासिल करे. हालांकि यह बहुत आसान भी नहीं है, फिर भी आशा करती हूँ. शुभकामना.