आजकल करप्शन और कम्युनलिज्म का बाजार गर्म है। करप्शन यानी भ्रष्टाचार और कम्युनलिज्म माने साम्प्रदायिकता। पूरे देश के राजनीतिक ‘बाजार’ में। कहा जाता है कि भौगोलिक और राजनीतिक विविधताओं के बावजूद उनके बीच ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध हैं।
हर जगह ये माल काफी महंगे दाम में बिक रहे हैं। इनके साथ क्राइम (अपराध) और कास्टिज्म (जातिवाद) फ्री मिल रहे हैं। दरअसल फ्री मिलने वाले क्राइम और कास्टिज्म ने करप्शन और कम्युनलिज्म को राजनीति के बाजार में अपना एकाधिकार जमाये रखने में काफी मदद दी है। चुनाव के वक्त तो इनके दाम आसमान छूने लगते हैं।
पिछले दस-बारह (अब 30-35) साल से इनके दाम आसमान से नीचे उतर ही नहीं रहे। देश के पिछड़े समाजों में इसके खरीदार कम हैं। फिर भी इनकी कीमत घट नहीं रही है। उल्टे इनका बाजार गर्म रखने के लिए विभिन्न राजनीतिक पार्टियां ‘नॉलेज सोसाइटी’ से लेकर ‘विलेज मार्केट’ जैसे विज्ञापनों के माध्यम से इनका जोरदार प्रचार कर रही हैं।
आजकल इस नजारे में कुछ तब्दीली आयी है। अब दिख रहा है कि राजनीति के बाजार में भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता के बीच होड़ लगी है। सो खेमों में बंटी राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने लाभ के लिए इस होड़ का सर्वथा नया अर्थ परोस रही हैं। ‘दिव्य ज्ञान’ के रूप में। कि भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता एक दूसरे के ‘दुश्मन’ हैं! जी हां, दोस्त नहीं, दुश्मन!
तमाम पर्टियां इस दिव्य ज्ञान को नित नये पैकेजिंग में पेश कर रही हैं। कुछ अंग्रेजी और कुछ अमेरिकन स्टाइल में। उदारीकरण के इस दौर में अंदर के माल से ज्यादा प्रोडक्शन कॉस्ट बैठ रहा है पैकेजिंग में। पिछड़े समाजों में बिक्री कम होने की वजह से वे पार्टियां मानती हैं कि वहां की जनता कुछ कम पढ़ी-लिखी है, कम समझदार है और समझ से भी कम है उसकी क्रय शक्ति।
सो अब वे पार्टियां नयी स्ट्रैटजी के तहत ‘आम जन की भाषा’ में उस दिव्य ज्ञान का प्रचार करने में उतर गयी हैं। वे जनता को समझा रही हैं कि यह दिव्यज्ञान कुछ महंगा है, लेकिन है मूल्यवान। इसे ग्रहण किये बिना देश की पुरानी सोच में बदलाव नहीं आ सकता। सोच बदले बिना देश में 21वीं सदी की तरक्की संभव नहीं।
तो ‘दिव्यज्ञान’ यह है कि करप्शन यानी भ्रष्टाचार और कम्युनलिज्म यानी साम्प्रदायिकता एक दूसरे के दोस्त नहीं हैं। एक दूसरे के दुश्मन हैं। अगर नहीं हैं, तो बनाये जा सकते हैं।
फिलहाल इस दिव्य ज्ञान की मदद से अपना-अपना माल बेचने वाले कई हैं लेकिन बाजार में जारी प्रतिस्पर्धा के लिहाज से सब सिर्फ दो खेमों में बंटे हुए हैं।
एक पक्ष करप्शन बेच रहा है। अपने खरीदारों को समझा रहा है कि भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता एक दूसरे के दुश्मन हैं। करप्शन और कम्युनलिज्म दोनों खतरनाक हैं लेकिन कम्युनलिज्म ज्यादा खतरनाक है। तथाकथित करप्शन यानी भ्रष्टाचार व्यक्ति विशेष के आचरण से सम्बद्ध है। इसलिए उसे चेक किया जा सकता है। कम्युनलिज्म तो एक वाद-विचार है। वह तेजी से फैलता है और समाज को तोड़ देता है। इससे समाज की शक्ति खंडित होती है। इसलिए हमें पहले कम्युनलिज्म यानी साम्प्रदायिकता को राजनीति के बाजार से बाहर करना है।
दूसरा खेमा बेच रहा है कम्युनलिज्म। वह उसी दिव्य ज्ञान के तहत यह समझा रहा है कि करप्शन और तथाकथित कम्युनलिज्म दोनों खतरनाक हैं लेकिन करप्शन ज्यादा खतरनाक है। कम्युनलिज्म तो एक विचार है। उसका क्षेत्र सीमित है। उससे वैचारिक स्तर पर लड़ा जा सकता है। जबकि करप्शन दैनंदिन जीवन के आचार-व्यवहार से जुड़ा है। यह व्यक्तिगत आचरण बनकर पूरे समाज के संस्कारों को गंदा कर देता है। उससे पूरा समाज लुट-पिट जाता है। लुटा समाज अक्षम-असहाय होगा ही। इसलिए पहले करप्शन को बाजार से उखाड़ फेंकना है।
कुछ खुदरा व्यापारी भी हैं। वे भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता दोनों बेच रहे हैं लेकिन छिप-छिपा कर। कभी धर लिये जाते हैं, तो कहते हैं कि पापी पेट के लिए, खुद को जिंदा रखने के लिए इतना तो करना ही पड़ता है। वे भी कह रहे हैं कि ‘करप्शन और कम्युनलिज्म एक दूसरे के दोस्त नहीं हो सकते।’ लेकिन वे उक्त दिव्यज्ञान के तहत अपना माल कुछ अलग व सस्ते पैकेजिंग में बेचने की कोशिश में हैं। इसके लिए वे करप्शन और कम्युनलिज्म दोनों के खिलाफ तेवर लिये हुए हैं लेकिन अपने स्टाकिस्टों के प्रति उदार हैं। वे फिलहाल उक्त दोनों खेमों के खिलाफ हैं क्योंकि उन्हें एक के खिलाफ होने के बहाने दूसरे खेमे के मौन समर्थन का लाभ पाना है।
इस दृश्य के ठीक उलट भारतीय जनता, जो धार्मिक होकर भी सेक्युलर है और गरीब हो कर भी किंचित ईमानदार है, स्तब्ध-चकित है। उसे यह संभव नहीं दिखता कि जो ईमानदार नहीं है, वह सेक्युलर हो। उसे यह भी असंभव लगता है कि जो साम्प्रदायिक है, वह करप्ट नहीं हो। वह यह भी देख रही है कि जो सचमुच सेक्युलर है, वह भ्रष्ट ताकतों से जुड़े बिना ‘अंधा’ है और जो सचमुच ईमानदार है, वह कम्युनल ताकतों का सहारा प्राप्त किये बिना ‘लंगड़ा’ है।
और, जो धर्मनिरपेक्ष और ईमानदार दोनों है, वह आंख और पांव दोनों से लाचार हो गया है। वह न उठने के काबिल है और न देखने के। उसको कोई फोर्स नहीं पूछता - न भ्रष्ट और न साम्प्रदायिक।
जनता को बाजार में प्रचलित दिव्यज्ञान पुरानी लोककथा का नया पाठ जैसा लग रहा है। लोक कथा के अनुसार एक अंधे और एक लंगड़े में दोस्ती थी। क्योंकि एक अंधा और दूसरा लंगड़ा था, इसलिए दोनों में दोस्ती ही हो सकती थी, दुश्मनी नहीं।
देश की जनता की पारम्परिक समझ भी यही है कि साम्प्रदायिकता और भ्रष्टाचार के बीच ‘अंधे और लंगड़े’ जैसी दोस्ती होती है। वे एक दूसरे के दुश्मन हो नहीं सकते। क्योंकि समाज में दोनों में से कोई एक आग लगाता है, तो गरीब की झोपड़ी जलती है, उसका पेट जलता है और इसके साथ वह गरीब भी जल कर स्वाहा हो जाता है। तब अंधा-लंगड़ा दोनों एक दूसरे की मदद से बच निकलते हैं। आजादी के पचास साल का अनुभव भी यही है। भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता में से कोई एक जब-तब आग लगाता है और देश के किसी न किसी कोने को तबाह करता है। फिर दोनों अंधे-लंगड़े की तरह एक दूसरे को सहारा देकर किसी और जगह आग लगाने निकल पड़ते हैं। जनता यह देखती आ रही है। हां, पचास साल बाद भी जनता यह जान नहीं पायी है कि साम्प्रदायिकता और भ्रष्टाचार में कौन अंधा है और कौन लंगड़ा? देश की जनता को सिर्फ इतना समझ में आया है कि साम्प्रदायिकता और भ्रष्टाचार दोनों बहुरूपिये हैं। जब एक अंधा बनता है, तो दूसरा लंगड़ा बन जाता है। कुल मिलाकर दोनों अन्योन्याश्रित हैं। उनकी दोस्ती अटूट है।
लेकिन आजकल राजनीति के बाजार में तो इससे उल्टा दिव्य ज्ञान बिक-बंट रहा है! वह भी ऊंची कीमत पर। आम जनता खरीद नहीं रही। फिर भी न उनकी कीमत घट रही है और न उनकी सप्लाई रुक रही है। जनता देख कर भी पहचान नहीं पा रही है कि देश में वे लोग कौन हैं, जो करप्शन और कम्युनलिज्म को एक दूसरे का दुश्मन करार देकर दोनों की डिमांड बनाये रखते हैं और राजनीति के बाजार में लाभ लूटते हैं?