इस पुरूष प्रधान देश मे महिलायें अपने सम्मान और हक़ की बात कैसे कर सकती हैं जब वो एक दूसरे का ही सम्मान नहीं करती? जब वे खुद ही आपस मे एक दूसरे की मदद नही करना चाहती और ना ही उनकी बात सुनना चाहती हैं? वो भले ही उन सब दिक्कतों से, चाहे खुद क्यों ना गुजरी हो, भले ही वो ये जानती हों कि ये व्यवहार जो दूसरी महिला के साथ वो कर रही हैं, उससे उसे कितना बुरा लग रहा होगा. लेकिन फिर भी वो ये सब करती हैं. कभी जलन में कभी खुद के फ्रस्ट्रेशन में.
हम अपने आसपास कितने सारे उदाहरण देखते हैं ऐसे, जिनमें किसी महिला को परेशान करने वाली स्वयं एक महिला ही होती है. वैसे, तो वो अबला है, पर एक दूसरे को परेशान करने के लिए उसमे खूब साहस आ जाता है. वैसे वो बहुत भावुक, पर तब कोई भावनाएं नहीं रहती.
वैसे, अब पहले जैसी स्थिति बहुत नही है. अब महिलाएं इन सब बातों से बहुत ऊपर हैं. अब वो खुद से सक्षम हैं, आत्मनिर्भर हैं. उनको पता है कि परिवार,ऑफिस या कहीं भी और उन्हें खुद की बात रखने के लिए या अपनी तरक़्क़ी के लिए, किसी दूसरी महिला की बात काटने या टांग खींचने की जरूरत नहीं. वो खुद ही इतनी लायक हैं. घरों में भी अब सास बहू को अपना प्रतिद्वंद्वी नही मानती, वरना तो पुराने जमाने की तरह सास का दिमाग इसी बात पर रहे कि कहीं बहु खुद को मुझसे ज्यादा ना समझ ले.
औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन है, ये बात उन्ही महिलाओं के लिए सच है जिनमें आत्मविश्वास की कमी है, जो खुद को लायक नही समझती. और ऐसी महिलाएं तो खैर सबकी ही दुश्मन हैं. यहाँ तक कि खुद की भी. जो खुद से लायक होते हैं उनको तो जरूरत ही नहीं, किसी और की कमी निकाल कर उसको नीचा दिखाने की.
हम अपने समाज मे सुधार की उम्मीद तभी कर सकते हैं, जब हम खुद में सुधार करें. महिलायें अपने हक़ की लड़ाई तभी लड़ सकती हैं, जब वे किसी दूसरी महिला की दुश्मन न बनें. और नारी शक्ति की बात करने वाले कैसे सफल हो सकते हैं, जब वे खुद ही दूसरी महिला के दुश्मन हैं? जो उनके ही जैसी हैं, जिसकी भी वही समस्या. जो महिलाएं अपने हक़ की लड़ाई लड़ रही हैं, वो पुरुषों से क्या उम्मीद करें, जब महिलाएं ही उनके साथ नहीं?
महिलाओं को चाहिए वो अपनी सोच बदले, खुद ही खुद की दुश्मन ना बनें. सहयोग करें एक दूसरे को, अपनी जैसी बाकी महिलाओं को. उन्हें बताये कि वो अकेली नहीं. जरूरी तो नहीं कि जिस समस्या का का सामना हमने किया, वो हमारे साथ वाली महिला भी करे. या जो समस्या हमारे साथ नहीं भी आएगी कभी, उसके लिए हम क्यों किसी का साथ दें. या हमे क्या मतलब, इस सोच को बदलें. अब जब महिलाओं की स्थिति में इतना सुधार हुआ है, जब वे इतनी सक्षम हैं, तो होना तो ये चाहिए कि जो महिलाएं सक्षम नहीं, वो उन महिलाओं के रहते खुद को इस पुरुष प्रधान देश मे भी बेचारी न समझें. वरना तो बस बातें ही करती रहिये महिला सशक्तिकरण की, होना कुछ नही जब तक महिलाओं के साथ के लिये खुद दूसरी महिला ही नहीं.