(एक चुटकी सिंदूर की कीमत तुम क्या जानो….)

यह तो सर्वमान्य ही है कि आस्था तर्क से परे होती है; और थोड़ी नाजुक भी. इसलिए आस्था और उससे जुड़ी मान्यताओं पर बहस करना बेकार है, समय को जाया करना है. नाहक विवाद में उलझना है. मगर पर्व-त्योहारों में आस्था रखनेवाले भी जब उनसे जुड़ी मान्यताओं को ‘वैज्ञानिक’ कसौटियों पर सही साबित करने का प्रयास और खुद से असहमत लोगों के साथ अभद्रता करने लगते हैं, तो बात दूसरी हो जाती है. जबकि आस्थावानों को भी ऐसी बहस में दिये गये तर्कों को अन्यथा नहीं लेना चाहिए.

पर्व-त्योहार मूलतः संस्कृति से जुड़े होते हैं. लेकिन विभिन्न धर्मों वाले देश-समाज में संस्कृति भी धर्म से बंध जाती है. एक ही जगह पैदा हुए, पले-बढ़े हम सभी अलग अलग धर्म मानने के कारण भिन्न संस्कृति का हिस्सा हैं, और उन्हें ढोने को बाध्य भी. वैसे जहां हम रहते हैं, वहां की सांस्कृतिक विरासत का असर पड़ता ही है, हालाँकि बहुधा उसे स्वीकारने में झिझक होती है. पर्व-त्योहार संस्कृति और परंपरा से (जुड़े होते हैं) निकलते हैं. उनके साथ अनेक थार्मिक कहानियां जुड़ जाती हैं.

आन्दोलन और संघर्ष वाहिनी में काम करते हुए धीरे-धीरे हम पूरी समझदारी के साथ परंपरागत व परिवार के साथ जुडी-मिली गलत और अंध-आस्थाओं से दूर होते गये, जिनको तर्क और विवेक से मानना कठिन था/है, इसलिए भी कि वे अन्धविश्वास से ओत-प्रोत थीं. लेकिन फिर इसी समाज में, इसकी मुख्यधारा में रहते, नौकरी करते हुए हमें भी समाज के साथ तालमेल बिठाने का अभ्यास करना पड़ा. ऐसे में अपनी एकमात्र हिंदू पहचान के कारण बहुत परेशानी हुई. अपनी गृहस्थी की शुरुआत में इससे बचने की कोशिश की. पहला : कोई पर्व नही मनाना है. मगर यह संभव नहीं हुआ. नये-वैकल्पिक त्योहार विकसित करने की बात हम सोचते ही रह गये, आज भी कुछ साथी ऐसा कहते हैं. पर आज तक यह हो नहीं सका. यह आसान भी नहीं है. हमारा जीवन क्या सिर्फ हमारे विचार के लोगों के साथ जुडा है? हम और हमारा परिवार और बच्चे विविध विचारोंवाले लोगों के साथ रहते हैं. तो पर्व त्योहार भी उनके बीच ही मनाना चाहेंगे. या तो कुछ के साथ मनायेगे या कुछ जो मना रहे हैं, उनको बधाई देंगे; उनके घर जाकर उनकी खुशी में शामिल होंगे. तो, ‘नहीं मनायेंगे’ यह चला नहीं दूसरी कोशिश की कि सभी धर्मों से जुड़े त्योहार मनायेंगे. जब तक बच्चे (एकलौती बेटी) की बुद्धि खुली नहीं थी, यह चला. ईद में सेवईयां बनाते, एक्समस में क्रिसमस ट्री सजाते, केक बनाते. पर जल्दी ही समझ में आने लगा कि सेवईयां खाना या चरनी सजाना ईद या क्रिसमस मनाना नहीं है. इसके लिए कुछ ज्यादा जरूरी दूसरी चीजें हैं, जो हम नहीं कर सकते. हां, बधाई दे सकते हैं, उनकी खुशी में शामिल हो सकते हैं.

तो हमारे साथ बची रह गयी हमारी संस्कृति, यानी जिनसे हम बचपन से जुड़े थे, उनसे जुड़े पर्व-त्योहार. बस कोशिश इतनी रही- और वह लगभग सफलतापूर्वक जारी है- कि इन्हें संस्थागत धर्म से, या यों कहें पूजा-पाठ और कर्मकांड से मुक्त कर दें.

तो फिर वापस लौटती हूं. धर्म और संस्कृति कई बार एक ही प्रतीत होते हैं, लेकिन कई बार धर्म से अलग भी संस्कृति को पकड़े रहना संभव है और यह सहज भी है. जैसे पहनावे में साड़ी और चूड़ी को लें. ईसाई और मुस्लिम महिलाओं के बीच भी यह उतना ही सहज है, बल्कि सिंदूर भी कुछ हद तक चल पड़ा है. हालांकि यह सिर्फ हिंदी पट्टी में चलन में है. पंजाब और दक्षिण भारत में तो इनके बिना ही/भी ‘सुहाग’ है. सिंदूर नहीं लगाने से न उनके पति पर कोई आंच आती है, न सुख-सौभाग्य पर कोई संकट आता है. जाहिर है, इसका संबंध धर्म के बजाय परंपराओं से ही है. अपनी संस्कृति से जुड़े रहना ताकत देता है. पर तभी, जब हम संस्कृति से गलत, बेकार और आज की परिस्थितियों में बोझ बन गयी परंपराओं की निरंतर छंटनी और उनका परिमार्जन करते रहें. इसके बगैर सारा कुछ प्राणहीन होता जायेगा. संस्कृति और परंपरा की अच्छी बातों को कस कर पकड़ें, समय के अनुसार इनको विकसित करें और समता, बंधुत्व और न्याय के मूल्यों के अनुरूप विकसित करें. तब हमारे पैरों के नीचे पुख्ता जमीन भी होगी और आसमान छूने की हैसियत भी. बेशक संस्कृति हमें ताकत देती है. तो क्या इसके नाम पर स्त्रियों-दलितों और अन्य वंचित तबकों के साथ भेदभाव और अमानवीय व्यवहार भी चलता रहे?

कहने-सुनने में जितना भी बुरा और अतिशयोक्तिपूर्ण लगे, पर यह पूरी तरह झूठ नहीं है कि स्त्री अपनी मर्जी से पुरुष के अधीन है. वह मार खाती है, दहेज या दूसरे कारणों से उत्पीड़ित होती है, जला दी जाती है या जल कर मरने को विवश होती है, लेकिन ‘पति’ नामक जीव-अवलंब को कस कर पकड़े रहती है. क्योंकि इसके बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं है. समाज-परिवार में कोई सम्मान नहीं है.

हां, यह उसकी मर्जी है. वह पति से मार खाते हुए भी, कोई बचाने आये तो कहती है- किसी को बीच में आने की जरूरत नहीं. पति पीटता है तो क्या हुआ, प्यार भी तो करता है, भरण-पोषण भी तो करता है. वह अपनी मांग में सिंदूर को बचाये रखना चाहती है. पति छोड़ दे, घर से निकाल दे, दूसरी शादी तक कर ले, मगर वह प्राणपन से, निष्ठा से माथे में सिंदूर सजाये रहती है.

सचमुच यह उसकी ‘स्वतंत्रता’ का मामला है- अगर वह सिंदूर लगाने, उसे मांग से आगे नाक पर लगाने को ही अपना गौरव माने, उसकी मर्जी. इसे ‘संस्कृति’ कह कर औरत की इस ‘स्वतंत्रता’ और सिंदूर को महिमामंडित करने वाले भी स्त्री को इसी ‘गौरव’ तक सीमित-बांधे रखना चाहते हैं. (और अब तो ‘सिंदूर’ की वैज्ञानिकता और उसे लगाने के ‘लाभ’ भी बताये जाने लगे हैं!) गौरव तो- स्त्री हो या पुरुष- स्वयं के विकास में है. खुद का विकास, परिवार का और समाज का विकास. अपनी योग्यताओं और क्षमताओं का विकास. अब अगर कोई इस पर सवाल उठाये तो जाहिर है, इसे महान भारतीय-हिन्दू संस्कृति पर हमला माना जायेगा. ऐसा माना भी जा रहा है. शायद भिन्न विचारवालों के साथ गाली-गलौज, उनके शरीर और सारी स्त्री सम्बन्धियों के शरीर के चिथड़े- चिथड़े कर सात पुश्तों का ‘उद्धार’ करने की बात क्या हमारी संस्कृति का ही हिस्सा है! इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि बात-बेबात (स्त्रियों के साथ भी) गाली-गलौज करने वालों के खिलाफ संस्कृति के ये रक्षक कभी नहीं खड़े होते. मगर मेरी राय में ऐसा कर हम अपनी संस्कृति को ही नष्ट कर रहे हैं, ऐसा करके हम संस्कृति के अर्थ को संकुचित ही करते हैं. संस्कृति को धूमिल ही करते हैं. और संस्कृति के इस संकुचन-विकृति की मार प्रथमतः तो स्त्री पर ही पड़ती है; दीर्घकालीन दृष्टि से पूरे समाज पर भी, जो स्त्री-पुरुष संबंधों में इस संतुलन से और आधी आबादी, यानी अपनी परतंत्रता को सौभाग्य मानने की स्त्री की इस मानसिकता के कारण एक बीमार और कमजोर समाज बना हुआ है.

सवाल है कि स्त्री की स्वतंत्रता-बराबरी की बात करना क्या संस्कृति पर हमला है? दलितों-उपेक्षितों के लिए भी बराबरी का समाज गढ़ने का संघर्ष भारतीय संस्कृति के खिलाफ है? नहीं. ऐसा मानना नासमझी है. ऐसे प्रयासों से संस्कृति विकसित होगी. असहमत लोगों के साथ गाली-गलौज और (वह महिला हो तो) बलात्कार तक की धमकी - यह सब हमारी संस्कृति को नष्ट कर रहे हैं. भारतीय संस्कृति तो-मेरी समझ में- सजीव-निर्जीव सब में ईश्वर का दर्शन है. यानी सब के प्रति सम्मान, संवेदनशीलता और ग्रहणशीलता. अगर कुछ रूढ़ हो चुकी गलत परंपराओं से इसमें गिरावट आयी है तो इसे झाड़ कर साफ करना है. तभी संस्कृति भी बचेगी. समाज भी बचेगा. समृद्ध भी होगा.