यह सवाल बहुतों के जेहन को मथने लगा है कि झारखंड की सबसे बड़ी आबादी होते हुए भी आदिवासी राजनीति में पिट क्यों रहा है? जबकि यह बात सामान्य समझ कि है कि राजनीति में पिटने का अर्थ ‘अपने देश में, दूसरों का राज’ होना होगा. और यह कहने से काम नहीं चलेगा कि आदिवासी भोला—भाला होता है और दूसरे उसे ठग लेते हैं. यह भी समझने की जरूरत है कि सिर्फ ‘जय झारखंड’ कहने से झारखंड की जय नहीं होने वाली, बस हम इस भ्रम में रहते हैं कि ‘जय झारखंड’ बोलने से झारखंडियों की जय होगी. जबकि सच हमारे सामने है. जिस भाजपा ने झारखंड आंदोलन के दबाव में आकर झारखंड अलग राज्य बनने के पहले संगठनात्म दृष्टि से ‘वनांचल प्रदेश’ का गठन किया था, जिस भाजपा ने अलग राज्य बनने के बाद आदिवासी मुख्यमंत्री बनाया और कई वर्षों तक चलाया, उसी भाजपा ने अब एक गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बनाया और निकट भविष्य में उसका कोई इरादा नहीं कि झारखंड में आदिवासी मुख्यमंत्री बनाये.
विडंबना यह कि झारखंड में आदिवासी के बाद सबसे बड़ी आबादी सदानों—कुर्मियों की है. और कुर्मियों में अनेक सक्षम नेता भी रहे, लेकिन भाजपा ने कभी यह दबाव भी महसूस नहीं किया कि राज्य में किसी कुर्मी को ही मुख्यमंत्री बनाया जाये.
दरअसल, वह झारखंड की इन दो बड़ी आबादी को आपस में लड़ा कर मजे से गैर आदिवासी मुख्यमंत्री के नेतृत्व में राज्य की सत्ता पर काबिज है. उल्टे भाजपा के रणनीतिकारों की समझ है कि यदि आदिवासी और कुर्मी के फेर में पड़े तो सत्ता ही हाथ से निकल जायेगी. उनके लिए फायदेमंद यह है कि ये दोनों आपस में भिड़े रहें और वे राज करते रहें. यह तो पुरानी कहावत है कि दो बिल्लियां आपस में लड़ती हैं तो बंदर को फायदा होता है.
आईये, झारखंड की भौगोलिक और सामाजिक स्थिति को देखें. झारखंड को मुख्य रूप से तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है.उत्तरी छोटानागपुर,दक्षिणी छोटानागपुर और संथाल परगना. उत्तरी छोटानागपुर कुर्मी और अल्पसंख्यक बहुल है. दक्षिणी छोटानागपुर आदिवासी बहुल और संथाल परगना तो आदिवासी बहुल है ही. वैसे, सभी इलाकों में सभी समुदाय के लोग छिटपुट रूप से मिल जायेंगे.
अब उत्तरी छोटानागपुर में तो आदिवासी बहुत कम हैं, दूसरी तरफ आदिवासी बहुल संथाल परगना और दक्षिणी छोटानागपुर की राजनीति में अंदरुनी बिखराव यह है कि संथाल और उरांव राजनीति में एका नहीं. शिबू लोकप्रिय नेता हैं, लेकिन संथाल नेता ही मूलत: हैं और उरांवों के बीच बहुत अधिक लोकप्रिय नहीं. उसी तरह उरांव नेता संथालों के बीच सहज स्वीकार नहीं.
आदिवासी समाज में एक तीक्ष्ण विभाजन ईसाई और सरना के रूप में भी हुआ है. विभाजन तो पहले भी था, लेकिन उतना तीक्ष्ण नहीं. लेकिन रघुवर दास ने सत्ता में आने के बाद इस विभाजन को पूरी कोशिश लगा कर और बढ़ाया है. साम, दाम, दंड, भेद, सबका इस्तेमाल कर इस तफरके को बढ़ाया है. सीएनटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ चले आंदोलन में भी दोनों साथ थे, लेकिन भाजपा ने सीएनटी में संशोधन के प्रस्ताव को तो वापस ले लिया, और फिर सारा जोर इस एका को तोड़ने में लगा दिया. फिर तेज दोधारी खंजर की तरह आया धर्मांतरण बिल. और देखते देखते हालात बदल गये.
एक बात और है जो झारखंड की सामाजिक संरचना को जटिल और अन्य प्रदेशों से भिन्न बनाती है.आदिवासी बहुल राज्यों से अलग उत्तर भारत के राज्य हों, या गुजरात, महाराष्ट्र आदि, मनुवादी समाज व्यवस्था के ही हिस्सा हैं. वे एक सामाजिक संरचना के अंग हैं और उन्हीं के भीतर वोटों की राजनीति या तोड़ फोड़ होती है. लेकिन आदिवासी एक भिन्न किस्म की संस्कृति और सामाजिक—आर्थिक संरचना के हिस्सा हैं. यहां बहुत आसानी से एक सुस्पष्ट विभाजन आदिवासी और गैर आदिवासी के रूप में हो जाता है. अब सीएनटी एक्ट या डोमेसाईल के पक्ष में चला आंदोलन हो या धर्मांतरण बिल, दोनों गैर आदिवासियों को एकजुट करता है.दूसरी तरफ आंदोलन के दौरान उभरे जन उभार को देख कर हम उत्साह से भर जाते हैं, लेकिन अंदरुनी बिखराव की वजह से चुनाव में पिट जाते हैं.
एक और विभाजन है. वह शहर और गांव का विभाजन. आदिवासी समाज व्यवस्था कृषि और वन आधारित आर्थिक व्यवस्था थी. रांची को भी एक बड़ा गांव ही माना जाता था. लेकिन विकास के नाम पर जो शहर—कस्बे अस्तित्व में आये, वे बहिरागतों से भर गये. और जाहिर हैं, उन्हें भाजपा भाती है.
इस तरह हो यह रहा है कि भाजपा का वोट बैंक निरंतर बढ़ रहा है, और बिखराव की वजह से वह आसानी से आदिवासी राजनीति को पराजित करने में कामयाब हो रही है. और हमारे पास ‘जय झारखंड’ का नारा के सिवा इस बिखराव को रोकने की कोई रणनीति नहीं.
(अगले अंक में: आदिवासी नेताओं की मृगतृष्णा)