हमारे देश भारत को एक ‘कृषि प्रधान’ देश कहा जाता है, क्योंकि 70 प्रतिशत आबादी गांवों में रहती है और कुल ग्रामीण आबादी के करीब 58 प्रतिशत लोगों की जीविका मुख्य रूप से कृषि एवं इससे जुड़े हुए धन्धे से चलती है। 2016-17 के आंकड़े के अनुसार कुल जीवीए, ग्रास वैल्यू एडेड, में कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्रों का योगदान 17.3 प्रतिशत है और ये क्षेत्र देश के कुल कार्यबल के 48.9 प्रतिशत हिस्से को रोजगार प्रदान करते हैं। गांवों में रहने वाले लोग पहले स्वावलंबी थे, लेकिन ब्रिटिश राज के दौरान इस फलती-फूलती ग्रामीण अर्थव्यवस्था को काफी हद तक तबाह कर दिया गया। 1947 के बाद जब भारतीय शासक सत्ता पर बैठे तो इन्होंने न केवल प्राक- पूंजीवादी भूमि सम्बन्ध को कायम रखा, बल्कि कृषि विकास की पूंजीवादी-साम्राज्यवादी नीतियों पर अमल किया। विगत 70 सालों के दौरान विभिन्न दलों एवं गठबंधनों की सरकारें केन्द्र व राज्यों में सत्तासीन हुई और उन्होंने भूमि सुधार एवं कृषि विकास की ढेर सारी योजनाएं चर्लाइं । यहां तक कि उन्होंने कृषि एवं ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के नाम पर इन्द्रधनुषी क्रान्ति यानी हरित, श्वेत, नीली, पीली आदि क्रांतियों, को सफल करने के दावे भी किए। लेकिन सच्चाई यह है कि कृषि एवं ग्रामीण विकास की जो नीतियां अपनाई र्गइं, उनसे पूरा कृषि क्षेत्र संकटग्रस्त और खेती-किसानी घाटा के धन्धे में तब्दील हो गया।
फिर किसान साहुकारों एवं सहकारी व सरकारी बैंकों के कर्ज जाल के भंवरजाल में फंसकर आत्महत्यायें करने लगे। मनमोहन सरकार के दस साला कार्यकाल में न तो किसानों को कर्जजाल से मुक्त करने और न ही उनकी बढ़ती आत्महत्याओं को रोकने हेतु कोई ठोस कदम उठाया गया। जब 2014 का लोकसभा चुनाव आया तो भाजपा को अपने चुनावी घोषणापत्र में एम
एस स्वामिनाथन कमीशन की रिपोर्ट की अनुशंसा के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्यों को कृषि उत्पादों की लागत से डेढ़ गुना करने का वादा किया। लेकिन जब नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में मई 2014 में केन्द्र में एनडीए की सरकार गठित हुई तो उसने अपने इस वादा पर अमल करने की बजाय कर्ज जाल में फंसे किसानों को नये-नये सब्जबाग दिखाना शुरू किया। उसने किसानों की आय को बढ़ाने के लिए कई अव्यवहारिक योजनाओं की घोषणा की और 2022 तक उनकी आय को दुगना करने का दिवास्वपन दिखाया।
मोदी सरकार की इस बेरूखी एवं वादा खिलाफी से बौखलाकर आम किसानों और उनके किसान संगठनों ने अपनी गोलबन्दी शुरू की। खासकर, जब मंदसौर पुलिस गोलीकांड में छह किसान मारे गए और 7 घायल हुए तो उनकी गोलबंदी और तेज हो गई। उन्होंने दिल्ली में दो बैठकें आयोजित कर ‘अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति’ — एआईकेएससीसी— नामक एक साझा किसान मोर्चा की स्थापना की। इस मोर्चा में शामिल संगठनों के बीच केवल इन दो मांगों को लेकर देशव्यापी किसान आन्दोलन खड़ा करने की सहमति बनी: एक, किसानों की तमाम फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य उसकी लागत से 50 प्रतिशत अधिक तय किया जाये और दो, राष्ट्रीयकृत बैंकों के राज्य की सहकारी समितियों एवं वित्तीय संस्थानों और साहूकारों द्वारा लिए गए किसानों के सभी कर्जों को पूरी तरह माफ किये जायें। पहले इसमें करीब 150 किसान संगठनों शामिल थे और आज उनकी संख्या बढ़कर 184 हो गई है। इस संयुक्त किसान मोर्चा की ओर से देशव्यापी ‘किसान मुक्ति अभियान’ चलाया जा रहा है, जिसके तकत ‘किसान मुक्ति यात्रायें’ एवं ‘किसान मुक्ति संसद’ आयोजित किये जा रहे हैं। सबसे पहली ‘किसान मुक्ति यात्रा’ के तहत मंदसौर—मध्य प्रदेश— से दिल्ली तक 6 जुलाई, 2017 से लेकर 18 जुलाई, 2017 के बीच 13 दिवसीय पदयात्रा आयोजित की गई। यह पदयात्रा मध्यप्रदेश, महाराष्टं, गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा के विभिन्न स्थानों से गुजरते हुए 18 जुलाई को जंतर मंतर पहुंची, जिसमें बड़ी तादाद में किसानों एवं खेती-किसानी से सरोकार रखने वाले अन्य लोगों की भागीदारी हुई। 18 एवं 19 जुलाई को जंतर मंतर पर ‘किसान मुक्ति संसद’ चलाया गया, जिसमें करीब 6,000 किसानों की भागीदारी हुई। इसके बाद 20 जुलाई, 2017 को एआईकेएससीसी की ‘वर्किंग कमिटी’ की बैठक हुई, जिसमें देश के अन्य भागों को पदयात्राओं एवं किसान सभाओं को जारी रखने का निर्णय लिया गया। इस निर्णय के आलोक में 31 अगस्त, 2017 से 5 नवम्बर, 2017 के बीच अब तक चार और पदयात्रायें सफल की गई हैं जो कुल मिलाकर 18 राज्यों से गुजरी हैं। आगे 20 नवम्बर, 2017 को संसद के शरद सत्र के पहले दिन दिल्ली में एक विशाल किसान रैली एवं सभा आयोजित करने का निर्णय लिया गया है, जिसकी तैयारी देश के विभिन्न राज्यों एवं दिल्ली में जोर-शोर से चल रही है। इसके साथ-साथ 21 नवम्बर से लेकर इस संसद सत्र के अंतिम दिन तक दिल्ली में ही लगातार ‘किसान मुक्ति संसद’ चलाते रहने का निर्णय लिया गया है।
संयुक्त किसान आन्दोलन की सीमायें
वैसे तो वर्तमान समय में चलने वाला किसानों का यह संयुक्त आन्दोलन कई मायने में अनूठा है। एक तो इसमें सीपीएम, एनएपीएम, स्वराज इंडिया एवं कुछ अन्य शासक वर्गीय दलों से जुड़े किसान संगठनों से लेकर कई सीपीआई एमएल व अन्य नक्सलवादी धारा के संगठन शामिल हैं और दूसरे इसका विस्तार देश के अधिकांश राज्यों में हो चुका है। लेकिन ऐसा नहीं है कि देश के विभिन्न भागों में कार्यरत किसान संगठन पहली बार किसी मोर्चा के तहत एकजुट हुए हैं। 1980 के दशक में गन्ना, कपास एवं अन्य कृषि उपजों के खरीद मूल्य को बढ़ाने की मांग को लेकर कई राज्यों में जुझारू फार्मर/किसान आन्दोलन हुए। इस आन्दोलन के दौरान उत्तर प्रदेश के किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में किसान संगठनों की व्यापक एकता दिखी थी। फिर जब भारत सरकार ने विश्व व्यापार संगठन में शामिल होने और खासकर कृषि क्षेत्र को इस साम्राज्यवादी संगठन के मातहत करने का निर्णय लिया तो 55 किसान संगठनों को लेकर ‘ज्वायंट एक्शन फोरम आॅफ इंडियन पीपुल अंगेस्ट डब्ल्यूटीओ’ का गठन किया गया। इस संयुक्त फोरम में महेन्द्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में चल रहा भारतीय किसान यूनियन, हरियाणा के घासीराम नैन का भारतीय किसान यूनियन, कर्नाटक के नन्जुंदास्वामि का कर्नाटका राज्य रैयत संघ, महाराष्टं के विजय जाबन्दिया का शेतकारी संगठन और पंजाब, बिहार आंध्र प्रदेश एवं अन्य राज्यों के संघर्षशील फार्मर/किसान संगठन शामिल थे। इसके नेतृत्व में कई बड़ी रैलियों और सभाओं के सफल आयोजन किए गए। ये सारे संयुक्त किसान आन्दोलन, चूंकि सीमित और मुख्यतः आर्थिक मांगों केा लेकर चलाये गए थे, इसलिए उन्हें ज्यादा समय तक जारी रखा नहीं जा सका। यहां तक कि ये आन्दोलन किसानों को सीमित आर्थिक अधिकार दिलाने में भी सफल नहीं रहे। अभी एआईकेएससीसी के नेतृत्व में चल रहा ‘किसान मुक्ति’ आन्दोलन भी मात्र दो आर्थिक मांगों को लेकर चलाया जा रहा है। इसलिए किसानों का यह व्यापक साझा मोर्चा अपनी मांगों को पूरा करवाने में कितना सफल होगा, कहना मुश्किल है। यह किसान मोर्चा ‘किसानों की मुक्ति’ का नारा देता है, लेकिन किसानों की समस्या को समग्रता में देश के कृषि संकट से जोड़ कर नहीं देखता है।
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