भारत की कुछ शाश्वत समस्यायें हैं. जैसे, जनसंख्या की समस्या, भूखमरी की समस्या, भ्रष्टाचार की समस्या, प्रदूषण की समस्या आदि. अनगिनत. आजादी के बाद से ही इन समस्याओं की खबरें आती रही हैं और आगे भी आती रहेंगी. समस्या हो तो समाधान का प्रयास अवश्य होता है. हमारा प्रभु वर्ग किसी भी दल का हो, इन समस्याओं का हल ढ़ूढ़ने का प्रयास अवश्य करता है, लेकिन तातकालिक. समस्या का स्थाई समाधान हो जाये तो उनकी राजनीति ही समाप्त हो जायेगी. हर चुनाव में इन समस्याओं का उल्लेख हर दल अपने घोषणा पत्र में करता है. जीतने पर स्थाई समाधान के वादे भी होते हैं. चुनाव जीत कर सरकार बन जाने के बाद वे उन सारी सुविधाओं को भूल कर सत्ता का सुख भोगने लगते हैं. इस तरह समस्याओं को जिंदा रखा जाता है ताकि अगले चुनाव में काम आये.
दिल्ली प्रदूषण भी ऐसी ही समस्या है. प्रदूषण के मामले में पूरा भारत ही एशिया तथा विश्व में उंचा स्थान रखता है. प्रदूषण दूर हो जाये तो अस्पताल व्यवसाय और दवा व्यवसाय ही ठप हो जायेगा. इसका कायम रहना इसीलिए जरूरी है. हर वर्ष दिल्ली में अक्तूबर और नवंबर महीने में डेंगू और प्रदूषण की बहुत चर्चा होती है. लोग बीमार पउ़ते हैं, मरते हैं, सरकार आनन फानन में प्रदूषण दूर करने और स्वच्छता की कई योजनाएं बनाती है. कुछ पर अमल होता है और ज्यादा नहीं होता है. समय के साथ समस्यायें कुछ कम हो जाती हैं, फिर सरकार सुस्त हो जाती है. अगले वर्ष देखा जायेगा,वाले मूड में आ जाती है.
इस वर्ष भी नवंबर के सात तारीख को प्रदूषण का खेल फिर शुरु हुआ. दिल्ली के पउ़ोसी राज्य हरियाणा और पंजाब के किसानों ने खेतों के ठूठों को जला दिया और उसका धुआं दिल्ली के कुहासे के साथ मिल कर भयंकर धुंध के रूप में फैल गया जिसमें दिल्ली की धूल भी भरी रहती है जिसे अंग्रेजी में स्मॉक कहा गया. दिल्ली वासी उसे धुएं और धूल भरी हवाओं को सांस लेते हैं, फेफड़े के रोगों से पीड़ित होकर मृत्यु को भी प्राप्त होते हैं. लोग तो काम छोड़ कर घर में बैठ नहीं सकते हैं. बच्चे सकूल जायेंगे ही. डाकटर की सलाह पर मास्क पहन कर बाहर निकलते हैं. सकूलों को चार पांच दिनों के लिए बंद ही कर दिया जाता है. लोग कम से कम सउ़कों पर निकलते हैं. यह सब तातकालिक उपाय है. स्मॉक को रोकना हो तो खेतों का धुआं और सउ़कों से उठने वाले धुओं को राकना होगा. खेतों के धुएं को रोकने में दिल्ली सरकार असफल होती है, क्योंकि पड़ोसी राज्य में विरोधी दल के नेता ही यह काम करवाते हैं. यानी, आग जला कर धुआं फैलाना भी राजनीतिक विरोध का अस्त्र बन गया है. दिल्ली की सउ़कों पर गाड़ियों की संख्या कम करने के लिए आॅड—इवेन के नियम लागू करने की बात दिल्ली सरकार सोच रही है. पिछले वर्ष भी उसने दो सप्ताह इस नियम को लागू किया था. इसका कोई विशेष लाभ नहीं हुआ बताया जाता है. इसीलिये इसका विरोध भी शुरु हो गया. एनजीटी के अनुसार इससे लाभ तो नहीं होता है, बलिक लोगों को और गाड़ियां खरीदने को प्रेरित किया जा रहा है. सरकार के पास पेट्रोल और डीजल गाड़ियों से फैलने वाले प्रदूषण का कोई आंकड़ा भी नहीं. दो पहिया गाड़ियों पर कोई रोक नहीं है. लेकिन कानपुर आईटीटी के अनुसार चालीस फीसदी प्रदूषण दो पहिया वाहनों से ही होता है. महिलाओं को वाहन चलाने की दूट देने पर भी सवाल उठे. आड इवेन के समय सरकार के द्वारा चलाये जाने वाले पांच सौ बसों पर प्रश्न उठाते हुए एजीटी ने कहा है कि इन बसों में कितनी बसें डीजल से चलने वाली हैं, यह भी स्पष्ट होना चाहिये. उच्चतम न्यायालय द्वारा बनाये गये प्रदूषण नियंत्रण निगम ने प्रदूषण रोकने के लिए कई सुझाव दिये हैं. सम—विषम वाला नियम उनमें से एक है जिसके अपने भी कई दोष हैं. इसलिए केवल दिखावे के लिए इस नियम को लागू करना एक पिकनिक मनाने की तरह है. यह सारा खेल दिल्ली को एक खराब राजधानी के रूप में ही प्रस्तुत करता है.
उच्चतम न्यायालय हो या एनजीटी की शंकाओं से यही स्पष्ट होता है कि सरकार प्रदूषण मुक्त दिल्ली बनाने के लिए गंभीर नहीं है. वह तत्काल उपाय कर केवल लोगों के आंसू पोछना चाहती है.