यह धान कटाई का मौसम है. पंजाब, हरियाणा सहित उत्तर भारत में और झारखंड सहित अन्य इलाकों में धान कट रहे हैं. धान, यानि, वह फसल जिससे चावल बनता है और जो देश की आबादी का एक मुख्य खुराक है. इसलिए अधिकत इलाकों में पके धान का मौसम खुशियों की सौगात लेकर आता हैं. लेकिन पिछले कुछ वर्षों से धान की इस फसल का मौसम पंजाब और उससे सटे इलाकों के लिए भयानक तबाही का मौसम बन गया है. इस संकट को घनीभूत रूप से हम देख रहे हैं दिल्ली में जो कोहरा-धुआं बन कर दिल्ली और उसके आस पास के इलाकों को लपेटे हुए है और सांसों को दूभर बना रहा है. हजारों लोग इस मौसम में भीषण प्रदूषण की वजह से मर रहे हैं. स्कूलों को बंद करना पड़ा है. सड़कों पर घने कोहरे की वजह से दुर्घटनाएं बढ़ गई हैं.
और इस संकट की वजह है हरियाणा-पंजाब के खेतों में बड़े पैमाने पर कटनी के बाद खेतों के बच गये खूंट का जलाया जाना. जले खूंट का धुआं आकाश की तरफ बढ़ता है और कोहरे के साथ मिल कर धनीभूत हो जाता है. हवा की गति से वह दिल्ली पहंचता है और वहां वाहनों से निकले धुएं और बेतरतीब होते निर्माण कार्य से उठते गर्द से मिल कर दिल्ली को एक ऐसे गैस चैंबर में बदल देता है जिसमें दिनों दिन जीना मुहाल हो जा रहा है.
उसके बाद शुरु होती है राजनीति और इस संकट से बचाने के आधे- अधूरे फौरी उपाय. हरियाणा-पंजाब में खूंट को जलाने का रोकने का फरमान, दिल्ली में औड-इवेन का प्रयोग, बड़े वाहनों को दिल्ली के बाहर रोकने की कवायत, मुंह नाक पर मास्क लगाना आदि आदि. लेकिन संकट कम नहीं होता, हां, दिन गुजरते जाते हैं, लेकिन संकट बरकरार रहता है. क्योंकि यह पूंजीवादी विकास का संकट है. कैसे? आईये समझते हैं.
पंजाब भी इस देश का एक राज्य है और वहां की भी बहुसंख्यक आबादी मेहनतकश लोग हैं, जिनका जीवन खेती किसानी पर निर्भर है. वहां के लोग किसी जमाने में मुख्य रूपसे ज्वार, बाजरा, मक्का और काले चने की खेती करते थे और यही उनका मुख्य आहार भी था. फिर आया हरित क्रांति का दौर जिसने पूरे देश में किसानी को थोड़ा बहुत प्रभावित किया, लेकिन जिसने पंजाब की किसानी को पूरी तरह बदल दिया. जिस पंजाब में धान और गेहूं की खेती नहीं होती थी, वह पंजाब इन नई फसलों की खेती करने लगा. एक बड़ा लाभ तो देश को अन्न की दिशा में आत्मनिर्भर बनाने का हुआ, साथ ही पंजाब में संपन्नता भी आई. लेकिन एक बड़ा विरोधाभास यह कि संपन्नता के साथ किसानों के आत्महत्या का दौर भी शुरु हुआ, जो जारी है. सिर्फ पंजाब नहीं, हरित क्रांति के बाद जिन विकसित राज्यों में खेती का व्यावसायीकरण हुआ, उन राज्यों में किसान कर्ज के जाल में फंसकर आत्महत्या भी करने लगे.
दरअसल नई फसलों के लिए हरित क्रांति के दौर में एक तो पंपिंग सेटों की मदद से भूमिगत जल का भीषण दोहन शुरु हुआ, साथ ही बहुफसल का प्रचलन और इसके लिए बड़े पैमान पर मशीन, रासायनिक खाद और बाहरी बीजों का प्रयोग. अब पंजाब में धान की रोपनी तो हाथ से होती है लेकिन कटनी मशीन से. गेहूं की रोपनी और कटनी दोनों मशीन से. इसके लिए सरकार ने पहले तो तरह तरह की सबसीडी, बैंकों ने आसान शर्तों पर कर्ज आदि दिये. लोगों को इनके प्रयोग के लिए वातावरण बनाया गया और अब किसान पूरी तरह कर्ज के जाल में फंस चुके हैं. परिणाम यह भी हुआ कि पंजाब में अब मवेशी पालने की जरूरत नहीं रही, मशीनों की वजह से कृषि क्षेत्र में मिलने वाला रोजगार भी कम हुआ. पहले लोग खुद से श्रम करते थे, अब बड़े किसानों की खेती पूरी तरह बहिरगत मजूरों, जो बिहार से जाते हैं, पर निर्भर हो गई. खेती से मुक्त लोगों ने विदेशों का रुख किया. उस रास्ते भी पंजाब में पैसा आया. लेकिन वह संपन्नता एक तबके को ही प्राप्त हुई. एक बड़ी आबादी कर्जखोरी और नशाखोरी के जाल में फंस गई.
बहुफसल का दबाय यह है कि धान की खेती के पंद्रह-बीस दिन बाद ही गेहूं की बोआई शुरु करनी पड़ती है. लेकिन धानकी फसल जिस कंबाईड हार्वेस्ट मशीन से होता है, वह लगभग एक फीट उपर से धान काटता है. आम तौर पर धान का पुआल मवेशियों के खाने के काम आ जाता है. लेकिन पंजाब में अब मवेशी उतने रहे ही नहीं. इसके अलावा रासायनिक खादों के प्रचुर प्रयोग की वजह से उनमें सिलका की मात्रा इतनी बढ़ जाती है कि उन्हें मवेशियों को खिलाया नहीं जा सकता. यह कितना बड़ा संकट है, उसे आप इस तरह समझ सकते हैं कि पंजाब में करीबन दो करोड़ टन खूंट या पराली निकलता है. किसानों को इससे बेहतर उपाय नहीं दिखता कि इन खूंटों को खेतों में ही जला कर आनन फानन गेंहू की बोआई के लिए खेत तैयार करें. और इसलिए सरकार व कोर्ट के दिशा निर्देशों का उल्लंघन कर भी वे पराली/खूटों को खेत में जलाते हैं जो भयानक संकट का सबब कन जाता है कुछ महीनों के लिए. नई मशीने आई हैं जो धान की फसल को और नीचे से काटे, लेकिन वे महंगी हैं और कर्ज में पहले से डूबा किसान उसे झेलने के लिए तैयार नहीं. हालांकि, खूंट जलाने से पंजाब की धरती सख्त हो रही है. खेती के लिए उपयोगी किटाणु मर जाते हैं. खेत बर्बाद हो रहे है, बावजूद इसके यह करते हैं.
इसकी तुलना में झारखंड के आदिवासी परंपरागत खेती करते हैं. वे भरसक रासायनिक खादों का प्रयोग नहीं करते. रोपनी, कटनी सब कुछ हाथों से होता है. और न उन्हंे इस बात की जल्दी रहती है कि तुरंत कोई दूसरी फसल लगा देनी है. वे खुद श्रम करते हैं. इसलिए श्रम के बाद के कुछ महीने विश्राम भी. खुद भी और धरती को भी विश्राम देते हैं. हर घर में मवेशी पालने का रिवाज है. गाय- गोड़ू भी. ताकि हल खींचने के लिए बैल और काड़ा मिले, साथ ही खेतों के लिए गोबर भी, जिसका प्रयोग वे खाद के लिए खेतों में करते हैं.
यह सही है कि एक वर्ष में एक फसल लगाने या रासायनिक खादों व मशीनों के कम प्रयोग से उनकी आर्थिक स्थिति पंजाब के किसानों जैसी अच्छी नहीं, लेकिन वे प्रकृति की तबाही का, गंभीर प्रदूषण-संकट का सबब भी नहीं बनते.
संपन्न पंजाब, हरित क्रांति वाला पंजाब किसान आत्महत्या वाला राज्य बन चुका है. सन् 2000 से 2010 तक वहां 6926 किसानों और लघु किसानों ने आत्महत्या की. 2010 से 16 के बीच 1309 किसानों ने. जबकि पंजाब सहित आत्महत्या वाले कई राज्यों में पिछले कुछ दशकों में कई बार किसानों के कर्ज माफ किये गये. 20 नवंबर यानी कल से दिल्ली में किसानों के विशाल जमावड़े की मुख्य मांग कृषि कर्ज की माफी और लागत मूल्य से दोगुनी खरीद मूल्य ही है.
लेकिन क्या इससे समस्या का निदान हो जायेगा? किसान और खेती से जुड़ी समस्याओं का हल तो आदिवासी जीवन दृष्टि में है- प्रकृति से उतना ही लो जितनी नितांत जरूरी है और लोभ की तो कोई सीमा नहीं. हमे इस बात को हमेशा जेहन में रखना होगा कि धरती मनुष्य के भूख-प्यास को तो मिटा सकती है, उसके हवस को नहीं.