शोषण-उत्पीड़न की कोई घटना या कहानी सुनने-सुनाने के बाद तत्काल जो एक जुमला हवा में लहराता है, वह यह कि इसीलिए कोई ‘बागी’,‘विद्रोही’ या ‘नक्सली’ बन जाता है. लेकिन इस बात से रोमांच और एक किस्म के जोश का अनुभव करनेवाले अधिकतर युवा यह नहीं जानते या जानना चाहते कि बंदूक थामने के बाद दरअसल होता क्या है? यह जानना बहुत जरूरी है, क्योंकि हममे से अधिकतर साथी परिवर्तनकामी जमात के सदस्य हैं. शोषण और विषमता पर आधारित इस समाज व्यवस्था को बदलना चाहते हैं. और यकीन मानिये कि यह जानने के लिए किसी खास किस्म के दूरबीन या सूक्ष्मदर्शी यंत्र की जरूरत नहीं. बस रोमानियत से मुक्त हो कर, बुद्धि और विवेक से वस्तुगत परिस्थितियों को देखने की जरूरत है, जिससे बंदूक थामने वाला कोई शख्स गुजरता है.

सबसे पहले तो वह कानून की नजर में बागी हो जाता है. गुनहगार हो जाता है. आप कहेंगे, हम उसे गुनहगार नहीं मानते. हम भी नहीं मानते, लेकिन कानून की नजर में वह अपराधी है और कानून से बचने के लिए वह जंगल की तरफ पलायन करता है. कुछ समय इधर-उधर भटकने के बाद वह नक्सली या माओवादी बन जाता है. जाहिर है एक सामान्य किसान, मजूर या समाज का सताया व्यक्ति किसी राजनीतिक दर्शन से प्रभावित हो कर या कम्युनिस्ट मैनुफैस्टो या दास कैपिटल पढ कर नक्सली या माओवादी नहीं बनता. हां, वह कुछ प्रबुद्ध साथियों की मदद से या उनके द्वारा संचालित ‘क्लासों’ में धीरे-धीरे अपने ज्ञान में इजाफा करता है और ‘बंदूक से सत्ता’ की सीढ़ियां तय करता है.

समस्या यह आती है कि माओवादी या नक्सली बन जाने के बाद भी उसे भूख-प्यास लगती है. लेकिन जीवन यापन की सामान्य प्रक्रिया से कट जाने के कारण वह उसका जुगाड़ उसी जनता से करता है जिसके लिए वह क्रांति करने निकला है. अपने प्रभाव के इलाके में उसे यह सहज भी प्राप्त हो जाता है या फिर वह बल प्रयोग कर रशद पानी जुटाता है, अपने लिए और अपने साथियों के लिए भी. बात सिर्फ भोजन की नहीं रह जाती, कपड़ा भी चाहिये और सतत संघर्ष चलाने के लिए हथियार भी. और इन जरूरतों को पूरा करने के लिए विशाल धनराशि चाहिये. एक संगठित सत्ता के खिलाफ संघर्ष चलाने के लिए अधुनिकतम हथियार चाहिये. और इन जरूरतों की पूर्ति के लिए धन वहां से मिलना मुश्किल होता है जिनके लिए दरअसल वे संघर्ष के मैदान में उतरते हैं.

फिर शुरु होती है धन उगाही के वही परिचित तरीके. भयादोहन, लेवी वसूली, अपने प्रभाव क्षेत्र के प्रशासन तंत्र से, ठेकेदार, उद्योगपति, बिचैलियों से नियमित वसूली. और चूंकि यह सब संभावित क्रांति के नाम पर होता है, इसलिए किसी तरह का अपराध बोध भी नहीं. लेकिन जब पैसा आने लगता है तो तरह-तरह की जरूरतें भी पैदा होती हैं. मसलन, घर की याद आती है. बाल-बच्चे याद आते हैं. यह दायित्व बोध भी कि उनके परवरिश की जिम्मेदारी का एहसास भी. इसलिए कैडर में भी अधिकार संपन्न लोग लेवी से लूटी राशि का उपयोग अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा-परवरिश पर करने लगते हैं. और इसमें उन्हें अनैतिक कुछ नहीं लगता.

उनके चरित्र में कुछ बुनियादी परिवर्तन भी होते हैं. सामान्यतः किसी व्यक्ति के लिए किसी दूसरे व्यक्ति की हत्या करना आसान नहीं. लेकिन चूंकि वे क्रांति के लिए यह सब कर रहे होते हैं या फिर सत्ता पर सर्वहारा के कब्जे के लिए कर रहे होते हैं, इसलिये उन्हें हिंसा की क्रूरतम घटनाओं को अंजाम देने में गुरेज नहीं होता. वे चाहे तो अपने दुश्मन को पिस्तौल की एक गोली से मार सकते हैं, लेकिन वे हत्या की घटना को क्रूरतम रूप में अंजाम देते हैं, ताकि दहशत पैदा हो. विडंबना यह कि पिछले चालीस पचास वर्षों में उन्होंने राजा या वजीर नहीं मारे, प्यादों को ही मारा है. अधिकतर सामान्य लोगों को पुलिस के मुखबिर होने के आरोप में या फिर सुरक्षा बल, पुलिस के जवानों को. हां, अपने इलाके में वे किसी लोकप्रिय जन नेता को वर्दाश्त नहीं कर सकते, इसलिए कामरेड महेंद्र सिंह, रमेश सिंह मुंडा जैसे लोग भी मारे जाते हैं.

होता यह भी है कि हिंसक वारदात के बाद पहले पुलिस, फिर अर्द्ध सैनिक बल, फिर सेना की आमद-रफ्त उनके प्रभाव वाले इलाकों में बढ़ जाती है. उनकी कार्रवाईयों से प्रशिक्षित और खनाबदोश होने की वजह से वे तो बच निकलते हैं, लेकिन सुरक्षा बलों का प्रकोप निरीह जनता को, उस इलाके में सक्रिय खुले रूप में काम करने वाले जनवादी संगठनों को भुगतना पड़ता है. उनकी एनकाउंटर में हत्या, बलात्कार, गिरफ्तारी होती है. लेकिन इससे बागी बने जमात का कोई खास नुकसान नहीं होता, बल्कि सत्ता की हिंसा के शिकार लोगों में से कुछ नये ‘बागी’ पैदा हो जाते हैं जो उनकी कतार को मजबूत ही करते हैं.

लेकिन इस भागमभाग में ‘क्रांति’ एक दिवास्वप्न बन कर रह जाती है.

आपको यदि कोई शक हो तो बस जरा गौर से पीछे मुड़ कर देखिये. हिंसा-प्रतिहिंसा के दौर के पचास वर्ष बीत चुके हैं. व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में एक कदम भी आगे हम नहीं बढ़ सके हैं. सत्ता आज पहले से ज्यादा मजबूत, शोषण-उत्पीड़न वाली सामाजिक आर्थिक व्यवस्था पहले से ज्यादा निरंकुश और पुख्ता.

आप कहेंगे उपाय क्या है? व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई कैसे हो?

तो जवाब हैं बिरसा. जवाब हैं गांधी. जिन्होंने अंग्रेजी दासता के खिलाफ संघर्ष किया. ‘अपने देश में अपना राज’, व्यापक जनभागिदारी वाले लोकतंत्र के लिए संघर्ष किया. आजादी के खिलाफ संघर्ष आम जनता ने ही किया था. एमरजंसी से लोहा खुले जनसंघर्ष वालों ने ही लिया. व्यापक जनभागिदारी वाला खुला संघर्ष, जिसमें न तो गुरिल्ला दस्ते की जरूरत होती है और न बाहर से आयातित हथियारों की. जिसके लिए बागी बन कर जंगल में भागने की जरूरत नहीं. जहां हम है, वही बस थोड़ी सी दृढ़ता से हम चला सकते हैं ऐसा संघर्ष. ऐसा संघर्ष चल रहा है, चलता रहा है हिंसक राजनीति के समानांतर. नर्मदा में, नियमगिरि में, कोयलकारो में, तपकारा में, नेतरहाट में. बस आंख खोल कर देखने की जरूरत है. क्रांति को नये सिरे से समझने की जरूरत है. वह अब भीषण रूप में प्रकट होने वाली किसी समय विशेष की परिघटना नहीं रही, वह एक सतत प्रक्रिया बन चुकी है..