साम्राज्यवाद के युग में बैकिंग व्यवस्था की भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो जाती है और खासकर वित्तीय पूंजी के नागफांस में फंसी भारतीय अर्थव्यवस्था की गति को नियन्त्रित करने में यह एक निर्णायक भूमिका अदा करती है. एक तो हमारे देश के सार्वजनिक बैंकों की हालत पहले से ही खराब थी, दूसरे 8 नवम्बर, 2016 को की गई नोटबंदी ने इसकी हालत और भी खराब कर दी है. मोदी सरकार ने नोटबंदी के कई फायदे गिनाये थे, जैसे कालाधन एवं भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना, जाली नोटों का धंधा बंद करना, आतंकी फंडिंग रोकना, नगद रहित और पारदर्शी लेन-देन को बढ़ावा देना, आदि.अभी 30 अगस्त, 2017 को आरबीआई ने जो खुलासे किए हैं उससे ये सारे दावे तो खोखले साबित हो गए हैं, उपर से नोटबंदी से प्रभावित 500 और 1000 रुपये के नोटों को बैंकों में जमा करवाने के क्रम में कुल 120 लोगों को जान से हाथ भी धोना पड़ा है.
आरबीआई के खुलासे के मुताबिक विमुद्रीकृत नोटों — कुल 15.44 लाख करोड़ रुपये— का करीब 99 प्रतिशत हिस्सा आरबीआई में वापस आ गया है. आरबीआई के अधिकारियों ने प्रेस को बताया है कि अगर ‘पाईपलाईन कलेक्शनों’ को जोड़ा जाये तो करीब-करीब सौ प्रतिशत विमुद्रीकृत राशि वापस आ जाएगी. इन ‘पाईपलाईन कलेक्शनों’ में नेपाल राष्ट्रीय बैंक में पड़ी नोटबंदी की मुद्रायें, जिला केन्द्रीय सहकारी बैंकों में 10 नवम्बर से 14 नवम्बर, 2016 के बीच जमा मुद्रायें, आयकर विभाग द्वारा जब्त मुद्रायें और विभिन्न अदालतों में पेनाल्टी या फाईन के रूप में जमा मुद्रायें शामिल हैं. इसका सीधा मतलब है कि सारे के सारे काले धन नोटबंदी के प्रभाव में सफेद हो गए. उपर से आरबीआई को नये नोट छापने में जुलाई 2016 से जून 2017 तक 7,965 करोड़ रूपये खर्च करने पड़े. इसके अलावा उसे अतिरिक्त प्रबंधन पर 13,140 करोड़ रुपये एवं बैंकों द्वारा जमा रकमों पर रिवर्स रेपो दर के मुताबिक भारी ब्याज अदा करना पड़ा.
नोटबंदी से फर्जी नोटों का धंधा भी बंद नहीं हुआ. आरबीआई द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार 2016-17 में पिछले साल की तुलना में 20.4 प्रतिशत अधिक जाली नोट पकड़े गए. यहां तक कि 2,000 रुपये के नये नोटों के भी जाली संस्करण बाजार में आ गए. नोटबंदी के दौरान एवं उसके बाद भ्रष्टाचार को भी बढ़ावा मिला. इसमें न केवल बैंक की कई शाखायें, बल्कि लाखों मुखौटा कम्पनियां भी शामिल हुई. सरकार ने हाल में 2,09,032 मुखौटा कम्पनियों के नाम कम्पनी पंजीयक से हटा दिया, क्योंकि वे बड़े पैमाने पर अवैध लेन-देन और कर चोरी में संलग्न थे. एक रिपोर्ट के अनुसार नोटबंदी के बाद भ्रष्टाचार में 67 प्रतिशत की वृद्धि हुई.
सरकार ने दावा किया था कि नोटबंदी से करीब 3.5 लाख करोड़ रुपये बैंकों में वापस नहीं आयेंगे, जिससे आरबीआई की देनदारियां घटेंगी और वह इतनी राशि की अतिरिक्त मुद्रा छापकर प्रचलन में लाएगी. लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा और इससे आरबीआई की अपनी बचत घट गई. 2015-16 में आरबीआई ने केन्द्र सरकार को अपनी बचत का 65,876 करोड़ रुपये जमा किया था, जो 2016-17 में घटकर 30,659 करोड़ रुपये हो गया. इसका असर आरबीआई को विदेशी स्रोतों से होने वाली आय पर भी पड़ा. आरबीआई ने अपने विदेशी मुद्रा भंडार का एक बड़ा हिस्सा विभिन्न विदेशी बैंकों एवं प्रतिभूतियों में निवेश किया था, जिस पर उसे मात्र 0.20 प्रतिशत का रिटर्न प्राप्त हुआ. यह रिटर्न पिछले 15 सालों में सबसे कम था. आरबीआई के आंकड़ों के मुताबिक 2016-17 में उसे केवल 18,586 करोड़ रुपये का रिटर्न प्राप्त हुआ, जो पिछले साल की तुलना में 35.27 प्रतिशत कम था.
केन्द्र सरकार की कारपोरेट पक्षीय बैंकिंग नीतियों के चलते हाल के वर्षों में बैंकों की गैर निष्पादित अस्तियों में भी काफी वृद्धि हुई है. 30 जून, 2017 तक कुल 41 सूचीबद्ध बैंकों का एनपीए बढ़कर 8,28,000 करोड़ रुपये —10.40 प्रतिशत— हो गया, जो मार्च 2017 में 7,65,000 करोड़ रुपये था. 31 मार्च, 2018 तक इसके 9,00,000 करोड़ रुपये तक बढ़ जाने का अनुमान है. 2017-18 के प्रथम तिमाही में इन बैंकों के एनपीए में 1,15,000 करोड़ रुपये की वृद्धि हुई है,जो पिछले 5 तिमाहियों में सर्वाधिक है. 31 जनवरी, 2017 को पेश किए गए आर्थिक सर्वे के मुताबिक सितम्बर, 2016 के अंत तक एनपीए सार्वजनिक बैंकों के कुल अग्रिमों का करीब 12 प्रतिशत हो गया था, जो विश्व के किसी भी उभरते बाजार में सर्वाधिक था. रेटिंग ऐजेन्सि क्रिसिल के अनुसार मार्च 2018 तक बैंकों का कुल ‘स्टेंस्ड लोन’ बढ़कर 11,50,000 करोड़ रुपये— पूरी प्रणाली का 14 प्रतिशत— हो जायेगा. दूसरी रेटिंग ऐजेन्सि फिट्स के अनुसार 2016-17 में एनपीए का अनुपात 9.7 प्रतिशत था, वह 2017-18 में बढ़कर 12 प्रतिशत हो जायेगा.
10 अगस्त, 2017 को फिक्की और भारतीय बैंक संघ का एक संयुक्त सर्वेक्षण प्रकाशित हुआ है, जिसके मुताबिक 2016-17 के पहले 6 महीनों में बैंकों के डूबे कर्जों में भारी वृद्धि हुई है. स्टेट बैंक आॅफ इंडिया ने घोषित किया है कि इसके डूबे कर्जों में विगत 3 माह में डेढ़ गुना के करीब वृद्धि हुई है और वह 6.9 प्रतिशत से बढ़कर 10 प्रतिशत हो गई है. पिछले 5 वर्षों में सरकारी बैंकों ने कुल 2,46,000 करोड़ रुपये के कर्जों का बट्ट़े खातों में डाल दिया है और 2017 में अब तक उन्होंने 81,683 करोड़ रुपये के कर्जों को इन्हीं खातों में डाला है.
ऐसी हालत में सार्वजनिक बैंकों के पास ‘तरलता का संकट’ पैदा हो गया है. सरकार इन बैंकों को पिछले साल 25,000 करोड़ रुपये और इस साल 20,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त पूंजी मुहैया की है, लेकिन यह रकम पर्याप्त नहीं है. इन बैंकों को वित्तीय वर्ष 2018 एवं 2019 में कम से कम 1 लाख करोड़ रुपये की अतिरिक्त पूंजी की जरूरत होगी, ताकि वे सुगमतापूर्वक काम कर सकें. अभी अधिकांश बैंकों की आन्तरिक पूंजी निर्माण क्षमता काफी कमजोर है और उनका घाटा लगातार बढ़ रहा है. हाल में उनके द्वारा जारी वैलेंश शीटों से पता चलता है कि मार्च 2016 तक उनके वार्षिक घाटों में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और इस साल इसमें और वृद्धि होने की आशंका है.