भारत में महिलाओं को संविधान प्रदत्त अधिकारों को उपभोग करने की आजादी कब मिलेगी यह स्पष्ट नहीं है. उसके दोयम दर्जे की नागरिकता ही उसे एक रीढ़ विहीन परावलंबी व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है. अपने अधिकारों को पाने के लिए महिलाएं जितना जद्दोजहद करती रही हैं, उनकी मुश्किलें भी कई रूपों में प्रकट होती रही हैं. हादिया का केस जो अब उच्चतम न्यायालय मैं पहुंच गया है, इसी का एक उदाहरण है. 30 अक्टूबर को इस केस की सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश ने कहा था कि 25 वर्ष कि किसी एक वयस्क महिला को अपना पति चुनने का अधिकार है, चाहे वह अपराधी ही क्यों ना हो.

सुनवाई को आगे बढ़ाते हुए न्यायालय ने 27 नवंबर को हादिया को व्यक्तिगत रूप से न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत होकर अपनी बात रखने को कहा. 27 नवंबर को जब हादिया न्यायालय में उपस्थित हुई तो न्यायालय ने पहले उसे बोलने का मौका ना देकर एन.आई.ए. को अपना रिपोर्ट रखने को कहा, जिसे उसने इस केस की जांच के दौरान तैयार किया था. इसके अनुसार हादिया को बहकाकर, ब्रेनवाश कर उसका धर्म परिवर्तन कराया गया. उसका विवाह एक मुस्लिम युवक से कराया गया जो वास्तव में एक आतंकवादी है. इस तरह के कई प्रसंग केरल में देखे गए. हादिया का केस एक लव जिहाद है. लव जिहाद एक तरह का षड़यंत्र है, हिंदू लड़कियों को धर्मांतरण कर आतंकवादी बनाकर सीरिया ले जाने का.

हादिया को चुपचाप कोर्ट में खड़े होकर अपने और अपने पति के विरुद्ध बोले गए इन सारे अपशब्दों को सुनना पड़ा. बिना किसी अपराध के इस तरह की बातों को सुनना उसके लिए एक यंत्रणा थी, अपमान था. उसके पति शफीक जहां के वकील ने बार-बार इसका विरोध किया और कहा कि यह सुनवाई हादिया या उसके पति को अपराधी सिद्ध करने के लिए नहीं, बल्कि एक वयस्क महिला के उस अधिकार को सुरक्षित करने की बात है जब वह अपनी इच्छा से पति चुन सकती है या किसी भी धर्म में अपना विश्वास जता सकती है. हादिया की बात सुने बिना ही जन न्यायालय के समय की समाप्ति की घोषणा होने वाली थी कि केरल महिला आयोग के वकील पी दिनेश ने जोरों से विरोध प्रकट करते हुए कहा कि न्यायालय को खाप पंचायत के जैसा रुख नहीं अपनाना चाहिए. खाप पंचायतों में जब किसी ऐसी महिला को पेश किया जाता है जिसने अंतर्जातीय या अंतर धर्मी विवाह कर अपने पिता की प्रतिष्ठा को आंच पहुंचाई है तो उसे खाप के सामने अपना पक्ष रखने का अधिकार नहीं होता है. उसे केवल एक अपराधी की तरह दंड को स्वीकार करना पड़ता है. इसलिए हादिया पर लगे आरोपों के संबंध में यदि हादिया की बात नहीं सुनी जाती है तो यह न्यायालय की न्यायिक प्रक्रिया की विफलता का एक उदाहरण बनेगा.

पी दिनेश के इस तर्क के बाद न्यायालय ने हादिया को अपनी बात रखने को कहा. हादिया ने बहुत ही दृढ़ता और स्पष्टता से यह कहा कि उसके साथ एक मानव जैसा व्यवहार हो, उसे आजादी मिले. उसने जिस धर्म को स्वीकारा है उसका सम्मान हो. वह पढ़ना चाहती है और अपने पति के साथ रहना चाहती है. कोर्ट ने उसकी बात सुनी. फैसला नहीं दिया. अगली सुनवाई का समय जनवरी में तय किया. एनआईए को अपनी जांच आगे बढ़ाने का आदेश दिया. हादिया को तत्काल मात पिता के संरक्षण से मुक्त किया, सरकारी खर्चे पर सेलम के होम्योपैथी कॉलेज में जाकर अपनी पढ़ाई पूरी करने का आदेश दिया. कॉलेज के हॉस्टल में रह कर उसे पति सहित किसी से भी मिलने और बात करने की आजादी भी दी.

इस पूरे प्रसंग में सबसे ज्यादा खलने वाली बात यह है कि अतिवादी हिंदू चिंतन ने जिस लव जिहाद शब्द का इजाफा किया, उसे उच्चतम न्यायालय तक की मान्यता मिल गई. हादिया के केस मैं यदि यह शब्द ही बहस का केंद्र बिंदु नहीं होता तो एक वयस्क लड़की के उस अधिकार की रक्षा होती जिससे वह अपनी इच्छा अनुसार जीवन साथी चुन सकती थी और किसी भी धर्म के प्रति अपना विश्वास, निष्ठा प्रकट कर सकती थी. शंका को आधार बनाकर एनआईए की जांच बिठाकर उसका अपमान नहीं किया जाता. यह सोच कि हर हिंदू लड़की जो किसी मुस्लिम युवक से विवाह करेगी उसके पीछे यह षड़यंत्र होगा कि उसे बहकाकर आतंकवादी बना दिया जाएगा. इस तरह के विवाह को ही इस षड़यंत्र का सबूत मान लिया जाता है.

दूसरी ओर यह सोच लेना कि एक वयस्क लड़की के पास अपनी बुद्धि नहीं होती है, कोई भी उसके विचारों को बदल सकता है, उसे बहका सकता है, इसलिए उसे हमेशा किसी के संरक्षण में रहना चाहिए, इस सोच के साथ केरल उच्च न्यायालय ने हादिया के विवाह को रद्द कर दिया और उससे उसके माता पिता के संरक्षण में भेज दिया. जहां पर किसी से नहीं मिल सकती थी, बोल सकती थी यह एक तरह का कैद था.

न्यायालयों से यह आशा की जाती है कि वे देश के प्रत्येक नागरिक को जाति धर्म तथा लिंग का भेद किए बिना अपने अधिकारों का उपयोग करने में सहायक होंगे. हादिया ने बार-बार कहा कि इस्लाम में विश्वास होने के कारण उसने इसे अपनाया है, किसी के दबाव में नहीं. उसने इसे अपनी शादी के एक वर्ष पूर्व ही उसे अपनाया. इसलिए लव जिहाद का प्रसंग ही यहां अनावश्यक है.

एनआईए के अनुसार हादिया ही नहीं केरल में इस तरह के 89 अन्य जोड़ों की जांच उसने की है और कर रही है. इसका अर्थ यह हुआ कि समाज में होने वाले अंतर्जातीय या अंतरधार्मिक विवाहों से जिस उदारवादी दृष्टिकोण का विस्तार हो रहा है उस पर अब कानून के शक की सुई अटक गई है. किसी भी धर्म की अतिवादिता इस तरह की घिनौनी परिस्थितियां पैदा करती है. न्यायालय तो धार्मिक विचारों,रूढ़ियों और अंधविश्वासों से चलते नहीं हैं. इसलिए कानून तथा सबूतों के आधार पर नागरिकों के अधिकारों की रक्षा ही उनसे अपेक्षित है.