जरा याद करें ‘12 के चर्चित ‘निर्भया कांड’ को, उस समय उभरे जनाक्रोश और उसमें तब के विपक्षी दलों की भूमिका को; साथ ही याद करें कि उसके बाद लड़कियों, छोटी बच्चियों के साथ हुई लगभग वैसी ही दरिंदगी को और ऐसे हादसों पर मीडिया, सत्ता पक्ष और ‘सिविल सोसायटी’ की भूमिका (या लगभग खामोशी) को. कहीं वैसा आक्रोश, वैसी उत्तेजना, आन्दोलन का माहौल दिखा?
तो क्या यह मान लिया जाये कि ‘निर्भया’ मामले में वह उबाल और बवाल सिर्फ इसलिए था कि तब केंद्र में यूपीए सरकार थी; और उस जनाक्रोश में शामिल लोग आज इसलिए चुप हैं कि आज भाजपा सत्ता में है! ध्यान रहे कि उस घिनौने कांड के सारे अपराधी बहुत जल्द गिरफ्तार कर लिये गये थे. फिर भी आक्रोश की जद में सरकार थी. पर बीते तीन वर्षों में दिल्ली सहित देश भर में गैंग रेप (मासूम बच्चियों के साथ भी) और हत्या की घटनाएं थमी नहीं, बढ गयी हैं. पर कहीं कोई शोर नहीं! तो क्या ऐसे मामलों में आंदोलित होनेवाला तबका बेईमान है; या कि हम सबकी संवेदनाएं भोथरी हो गयी हैं! मुज्झफरपुर (बिहार) में कुछ दिन पहले हुए शर्मनाक हादसे पर अपेक्षित आक्रोश का न दिखना आखिर क्या बताता है? यह घटना महज इसलिए शर्मनाक नहीं है कि एक किशोरी के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ और उसका वीडियो बना कर सोशल मीडिया पर डाल दिया गया; बल्कि इसलिए भी कि पीड़िता के परिजनों ने मामले को छिपाना चाहा; और पंचायत ने भी ऐसा ही किया, यहां तक कि दुष्कर्मियों को भाग जाने का मौका भी दिया! अब तो छोटी बच्चियों के साथ दुष्कर्म और उनकी हत्या की घटनाएं मानो आम होती जा रही हैं. मगर कहीं कोई आक्रोश या आंदोलन नहीं!
इसका एक बड़ा कारण यह है कि हम मूलतः एक संवेदनहीन, खास कर स्त्री के प्रति, समाज और माहौल में रह रहे हैं. कभी अनायास एक उद्वेलन हो जाता है. कभी, राजनीतिक कारणों से भी. तब हमें लगने लगता है कि समाज बदल रहा है. पर जल्द ही यह भ्रम साबित हो जाता है. शायद ऐसा कुछ ही ‘निर्भया’ मामले के बाद भी हुआ. उस समय महिलाओं की सुरक्षा को लेकर राष्ट्रब्यापी चर्चा चली. लेकिन उस समय बने माहौल के बावजूद ऐसी पीड़िताओं के लिए न तो कोई सामाजिक सुरक्षा का तंत्र बन सका, न पुलिस व प्रशासनिक स्तर पर ऐसा दबाव बनाया जा सका; और न ही ऐसे मामलों में अदालतों से त्वरित फैसले हो सके कि अपराधी के मन में डर बने.
लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद भी न्याय मिल ही जाए, जरूरी नहीं. निर्भया गैंग रेप के बाद जस्टिस जेएस वर्मा (अब दिवंगत) के नेतृत्व में गठित वर्मा कमीशन के सुझाव के आधार पर स्त्रियों के पक्ष में कानून बने हैं. और इसी के बाद 2013 में तत्कालीन केंद्र सरकार ने यूनियन बजट में 10 बिलियन के एक कारपस (फण्ड) की स्थापना.की. इस तरह महिलाओं की सुरक्षा के लिए समर्पित एक कोष बनाया गया. महिला की सुरक्षा की दृष्टि से इस तरह के अनेक सकारात्मक फैसले हुए. लेकिन बीते लगभग पांच वर्षों में उन फैसलों पर अमल की सच्चाई देख कर तो यही कहा जा सकता है कि हमने ‘निर्भया हादसे’ से कुछ नहीं सीखा! सरकारी प्रशासन तंत्र ने उन फैसलों को जरा भी गंभीरता से नहीं लिया.निर्भया फंड एक उम्मीदों भरी पहल थी. जिसमे 2013 के बाद अभी तीन हजार करोड़ रूपये का फंड है. इस वर्ष, 2017 में इसमें काफी राशि आ चुकी है. मगर केंद्र व राज्य सरकारों में इसके इस्तेमाल के लिए न इच्छाशक्ति है, न ही कोई योजना है.