भारतीय इतिहास एक लंबा दौर उन शासकों का रहा है जो सवर्ण नहीं थे, लेकिन धीर-धीरे वर्ण व्यवस्था कायम हुई और यह रूढ हो गया कि शासन तो क्षत्रिय ही कर सकता है, क्योंकि ‘पृथ्वी को वीर ही भोगेगा’ और वीर तो क्षत्रिय ही है. गीता सहित तमाम धर्म ग्रंथों में यह बात ऐलानिया कहा गया है कि अध्यापन, पठन-पाठन का कार्य ब्राह्मण करेगा, युद्ध और अस्त्र-शस्त्र का परिचालन क्षत्रिय, वाणिज्य व्यापार वैश्य और सेवा कार्य शूद्र. अब अपने इस साजिशपूर्ण दिमागी खुराफात के लिए यह भी नियमन किया गया कि शूद्र यदि वेद-पुराण पढ़े तो उसके कंठ में जहर-तेजाब भर दो, वह अस्त्र-शस्त्र धारण करे तो उसका अंगूठा काट लो. उनके इन मूढता पूर्ण अवधारणाओं से अभिजात वर्ग के क्षुद्र स्वार्थ तो अनंतकाल से पूरे होते आ रहे हैं, लेकिन इस देश की अपूरणीय क्षति हुई. दो हजार वर्षों तक यह मुल्क बहुसंख्यक आबादी की मेधा और शक्ति से वंचित होने की वजह से गुलाम रहा. दुनियां में शायद ही कोई अन्य मुल्क इतने लंबे अरसे तक गुलाम रहा हो. विडंबना यह कि अपने द्वारा गढ़े इस मानसिक रूढ़ी का हम आज भी शिकार हैं. सहज मन से हम यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं कि बहुसंख्यक आबादी जो सवर्ण नहीं, भी शौर्य और मेधा रखता है.
तो, महारों की सेना द्वारा पेशवाओं की पराजय इस रूढ़ मानसिकता पर झन्नाटेदार तमाचा है और इसलिए आज जब दलित समुदाय अपने उन वीरों को याद करता है, उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित करता है तो सवर्ण मानसिकता तिलमिला जाती है. फनफना कर यह सवाल उछाला जाता है कि शूद्र तो विदेशी आक्रांता अंग्रेजों की तरफ से पेशवाओं से लड़े थे. आईये, हम आपको याद दिलायें हिंदू राजे, रजवाड़ों, जमींदारों ने अंग्रेजों के साथ मिल कर इस मुल्क की विशाल आबादी पर क्या-क्या जुल्म ढाये. आदिवासियों को किस तरह कुचला.
आपको याद दिलाउं कि राजमहल की पहाड़ियों में बसे पहाड़िया वीरों ने अंग्रेजों के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी. उसके बाद सिधो कान्हूं का ‘हूल’ हुआ. फिर बिरसा का ‘उलगुलान’. दशकों तक चले युद्ध में हिंदू राजे-रजवाड़े, जमींदार, ठेकेदार, सब के सब अंग्रेजों के चारण बन कर आदिवासियों के खिलाफ लड़े. इतिहास में यह बात दर्ज है कि किस तरह अंग्रेज कप्तान अपनी सैन्य टुकड़ी के साथ विद्रोहियों की दिशा में जहां से भी गुजरा वहां हिंदू समुदाय के लोग सड़कों के दोनों तरफ कतार में खड़े उनके स्वागत को आतुर मिले. उनमें महाजन, व्यापारी, बंगाली जमींदार, उनके अमले, ठेकेदार आदि शामिल थे. सैनिकों को शरबत पिलाया गया. उन पर अक्षत और पुष्प पंखुड़ियों की बरसात हुई. सुदूर ब्रिटेन से आया कप्तान एक पराये मुल्क में हिंदू जनता के स्वागत से हथप्रभ था- ‘यह कैसा मुल्क है?’ यह भी याद दिला दूं कि सिधो-कान्हू के उलगुलान में दस हजार से अधिक आदिवासी संथालपरगना में मारे गये थे.
आपको यह भी याद दिला दूं की रामगढ़ में स्थाई सेना की छावनी आदिवासी विद्रोहों को कुचलने के लिये के लिये ही हुई थी.
कुछ और बातें भी गौर करने की है.
प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय सेना अंग्रेजों साम्राज्यवादी हितों के रक्षार्थ ही लड़ी थी, उन अंग्रेजों के लिए जिन्होंने भारत को गुलाम बना रखा था.
जो राष्ट्रीय गान हम सब गाते हैं, वह जार्ज पंचम के भारत आगमन पर उनके स्वागत के लिए लिखा गया था.
हमारे राष्ट्रीय हीरो सुभाषचंद्र बोस ने दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह हिटलर और मसोलिनी से हाथ मिलाया था.
इसलिए महारो का पेशवाओं के साथ युद्ध और उसमें पेशवाओं की पराजय का अपना ऐतिहासिक महत्व है और उसे नजरअंदाज न करें. कम से कम उस युद्ध ने यह तो साबित कर ही दिया कि दलित भी युद्ध कर सकता है और दुश्मनों को धूल चटा सकता है.