चर्चित चारा घोटाले के दो मामलों में पहले से सजा पा चुके राजद प्रमुख लालू प्रसाद को सीबीआई कोर्ट ने एक और मामले में सजा सुना दी है. साढ़े तीन साल कैद. उनकी सजा पर कुछ नहीं कहना. न ही यह पूछना है कि ऐसे ही या इससे भी गंभीर मामलों में लिप्त या आरोपित लोगों को अब तक सजा क्यों नहीं हुई. मगर कुछ बातें जरूर अबूझ हैं और खटकती हैं.

सबसे पहले तो ‘साजिश का एंगल’ ही. घोटाला तो अपने आप में एक अपराध है, जिसे अमूमन योजना बना कर अंजाम दिया जाता है. इस तरह हर घोटाला एक साजिश का नतीजा होता है. तो क्या अन्य ऐसे घोटालों में भी ‘साजिश का एंगल’ खोजा/जोड़ा जाता रहा है? नहीं, तो इसी घोटाले में ‘साजिश का एंगल’ कैसे जुड़ गया. इस ‘एंगल’ को लालू प्रसाद व अन्य अभियुक्तों ने चुनौती भी दी थी. यह अपील भी की थी कि सारे मामलों की सुनवाई एक साथ हो, क्योंकि सभी एक ही नेचर के हैं. झारखण्ड हाईकोर्ट ने उनकी दलील को स्वीकार भी कर लिया था. हाईकोर्ट ने तब तर्क दिया था कि जिस शख़्स को दोषी ठहरा दिया गया है या बरी कर दिया गया है, उसे फिर से उसी मामले में जांच के दायरे में नहीं लाया जा सकता है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लालू के ख़िलाफ़ बाक़ी के चारा घोटाले में अलग-अलग जांच जारी रहेगी. इस तरह सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई की दलील को मान लिया. पर जाहिर है कि न्यायपालिका के माननीय न्यायाधीशों में इसे लेकर पूर्ण मतैक्य नहीं है. यानी इस मामले में ‘साजिश का एंगल’ कोई स्वयंसिद्ध न्यायिक धारणा नहीं है.

माना कि साजिश हुई, तो साजिशकर्ता कहीं एक साथ बैठे होंगे. घोटाले की योजना और तरीके पर विचार और निर्णय किया होगा. वह बैठक कहां हुई? मुख्यमंत्री के आवास पर या और कहीं? फिर अलग अलग जिलों के कोषागारों से जो फर्जी निकासी हुई, वह एक बड़ी ‘साजिश’ के तहत हुई; या हर कोषागार से निकासी/घोटाले के लिए अलग अलग साजिश हुई? इस बारे में कोई जानकारी सार्वजनिक हुई है?

सर्वमान्य बात तो यही है कि लालू प्रसाद के मुख्यमंत्री बनने के पहले से पशुपालन विभाग में फर्जी निकासी का खेल चल रहा था; और शायद उनके बाद भी जारी रहा. आरोप है कि लालू प्रसाद ने जानते हुए उस खेल को चलने दिया, बल्कि उनके काल में उसमें और विस्तार हुआ. वही अधिकारी, वही डॉक्टर, वही ठेकेदार, वही सप्लायर. कुछ नये खिलाड़ी (नेता-मंत्री) इसमें शामिल हो गये. तो लालू प्रसाद के मुख्यमंत्री बनने के बाद ही ‘साजिश’ की गयी, यह बात कुछ अटपटी नहीं लगती?

अब जरा बहुचर्चित टू-जी स्पेक्ट्रम या कोल आवंटन घोटाले से इसकी तुलना करें. वैसे तो अब कथित स्पेक्ट्रम घोटाला ही मनगढ़ंत दिखने लगा है, फिर भी, अलग आवंटन के लिए अलग अलग मुक़दमे दायर हुए या सबको एक घोटाला माना गया?

मैं भी मानता हूं कि लालू प्रसाद इस घोटाले में लिप्त रहे हैं, इसके लाभुक भी. इस कारण इस मामले में उनसे कोई सहानुभूति भी नहीं है, बल्कि नाराजगी ही है कि इस इस आदमी ने सामाजिक न्याय की धारा को कमजोर किया. मगर अदालत तो अमूमन ठोस सबूतों पर ही भरोसा करती है. और मेरी जानकारी में शायद ऐसा कोई गवाह सामने नहीं आया, जिसने खुद लालू प्रसाद को घोटाले के हिस्से के रूप में कोई रकम देने की या किसी और को उन्हें ऐसी रकम देते हुए देखने की बात कोर्ट में कही है. यानी परिस्थितिजन्य सबूतों के अलावा कोई प्रत्यक्षदर्शी गवाह या प्रमाण उनके खिलाफ नहीं था. बेशक अदालत परिस्थितिजन्य सबूतों को भी पर्याप्त मान सकती है, मानती है. फिर भी उसे ठोस व अकाट्य प्रमाण नहीं माना जाता. कहीं ऐसा तो नहीं कि इसी कारण ‘साजिश’ का एंगल जोड़ा गया, ताकि साजिशकर्ता के रूप में उन्हें दोषी ठहराया जा सके! आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने के लिए सीबीआई ने लालू प्रसाद और उनके रिश्तेदारों के घर खंगाले, खेत भी खोद डाले, पर कोई कामयाबी नहीं मिली. हाल में उनके परिजनों की जिन जिन संपत्तियों का ब्यौरा सामने आया है, उनके लिए अन्य ‘घोटालों’ की चर्चा है.

जो भी हो, इसे एक साजिश मानने से हर घोटाले में लालू प्रसाद पर अलग प्राथमिकी दायर नहीं होती और इस कारण हर बार नये सिरे से जमानत लेने की आवश्यकता नहीं रहती. अंततः यदि सभी मामलों में उन्हें दोषी मान कर सजा हो जाती है, जिसकी सम्भावना प्रबल है, तब भी क्या उन्हें अलग अलग मामलों में मिली सजा को अलग अलग भुगतना होगा, यानी जेल में रहने की अवधि एक साथ गिनी जायेगी या सभी सजाएँ एक साथ चलेंगी? मेरी जानकारी में तो एक साथ चलनी चाहिए. यानी इनमें से जिस मामले में अधिकतम सजा होगी, उन्हें कुल मिला कर उतना ही समय जेल में रहना होगा. फिर व्यवहार में अलग अलग मुक़दमे में अलग अलग सजा का क्या अर्थ होगा, सिवाय इसके कि इन मुकदमों की सुदीर्घ सुनवाई और फैसला होने तक उन्हें अदालत का चक्कर लगाते रहना; और सुप्रीम कोर्ट से अंतिम फैसला (जो पता नहीं कब होगा) होने तक बार बार जेल जाकर पुनः जमानत लेने का प्रयास करता रहना पड़ेगा?

एक अन्य महत्वपूर्ण जानकारी यह है कि इस घोटाले के आरोपी एसबी सिन्हा (जिनका निधन हो चुका है) के बयान के अनुसार चारा घोटाले का पैसा बिहार के (मौजूदा) मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार को भी मिला था. एके झा ने सीबीआई के विशेष न्यायाधीश आरआर त्रिपाठी की अदालत में बताया था कि घोटाले के आरोपी एसबी सिन्हा से बयान लिया गया था, जिससे इसकी पुष्टि हुई है. एसबी सिन्हा ने बताया था कि 1995 के लोकसभा चुनाव में चारा घोटाले के आरोपी विजय कुमार मल्लिक द्वारा एक करोड़ रुपये नीतीश कुमार को भिजवाया गया. यह पैसा उन्हें दिल्ली के एक होटल में दिया गया. नीतीश कुमार ने पैसे लेकर धन्यवाद भी कहा. कुछ दिनों बाद फिर घोटाले के आरोपी एसबी सिन्हा ने नौकर महेन्द्र प्रसाद के हाथ 10 लाख रुपये पटना में विधायक सुधा श्रीवास्तव के घर पर नीतीश कुमार के लिये भेजे. घोटाले के आरोपी आरके दास ने भी कोर्ट में दिये बयान में बताया था कि उसने पाँच लाख रुपये नीतीश कुमार को दिये हैं. नीतीश कुमार 1995 में समता पार्टी के नेता थे. वह एसबी सिन्हा को कहते थे कि पैसा नहीं देने पर मामला उजागर कर दिया जायेगा. तत्कालीन विधायक शिवानन्द तिवारी, राधाकान्त झा, रामदास एवं गुलशन अजमानी को भी पैसा देने की बात सामने आयी है. ये सारे मामले दब कैसे गये?

घोटाला हुआ, अनेक जिम्मेवार लोग पकडे गये, उन्हें सजा दिए जाने का क्रम जारी है. तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद, जो वित्त मंत्री भी थे, को इस घोटाले का जवाबदेह माना गया. यह उचित भी था. पर जिन जिलों से फर्जी निकासी हुई, उनके जिलाधिकारियों को भी क्या इसी तर्क पर जिम्मेवार और घोटाले में शामिल नहीं माना जाना चाहिए था? लेकिन ऐसे अनेक अधिकारी पद पर बने रहे, प्रोन्नति पाते रहे. अब यह बात सामने आ रही है कि झारखण्ड की मुख्य सचिव को इस मामले में कम से कम 22 बार पूछताछ के लिए नोटिस भेजा गया, पर उन्होंने एक का भी जवाब देना जरूरी नहीं समझा, न ही सरकार या सीबीआई ने इस लापरवाही के लिए उनके खिलाफ कोई कार्रवाई करने की जरूरत समझी! अब भले ही मीडिया में यह बात उछल जाने के बाद सरकार पर इसके लिए दबाव बढ़ रहा है; मगर कार्रवाई क्या होगी, यह तो समय ही बताएगा.