सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि अयोध्या विवाद मूलतः एक भूमि विवाद है. यह भी कि यह सुनवाई भावनाओं की नहीं, 2010 के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के विरुद्ध की गयी अपील की हो रही है. निश्चय ही बहुतों को सुप्रीम का ऐसा कहना अच्छा नहीं लगा होगा. लेकिन यह सच है कि यह विवाद और मामला भावना और आस्था से भी जुड़ा है या जोड़ दिया गया है, बल्कि यह अब यह राजनीति से भी जुड़ गया है. इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि अगला संसदीय चुनाव भी इस दीर्घ लंबित मंदिर-मसजिद विवाद से जुडी भावनाओं और माहौल के बीच ही हो. इसकी कोई ‘योजना’ भी हो सकती है और ऐसा अनायास भी हो सकता है. सुप्रीम कोर्ट में जारी सुनवाई के मद्देनजर इसकी प्रबल सम्भावना दिखने लगी है. इसी कारण सुप्रीम कोर्ट के लिए भी कोई फैसला करना बहुत आसान नहीं होगा. एक ओर कानून; दूसरी ओर उमड़ती भावना.
इसी सन्दर्भ में इस सवाल पर गौर करें- ‘बाबरी मसजिद केस का ’19 के चुनाव से क्या रिश्ता है?’ गुजरात चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री ने यह सवाल किया था कांग्रेस से. उन्हें तब ऐसे मुद्दों की जरूरत भी थी; और उनको यह सवाल करने का मौका दिया था इस मामले में मुस्लिम पक्षकारों के वकील (जो कांग्रेस के नेता भी हैं) कपिल सिब्बल के सुप्रीम कोर्ट में यह कहने पर कि इस मामले की सुनवाई फिलहाल रोक दी जाये, क्योंकि ’19 के आम चुनाव पर इसका असर पड़ सकता है. निश्चय ही यह एक अधिवक्ता के बजाय एक राजनीतिक दल के नेता का कथन लगता है. तब लगा था कि श्री सिब्बल उस चुवाव में अपनी पार्टी की संभावनाओं पर इस मामले के संभावित असर से आशंकित या आतंकित हैं. लेकिन क्या उसके बाद सुनवाई और फैसला होने का देशहित में या कांग्रेस के लिहाज से भी कोई बेहतर प्रभाव पड़ेगा? मुझे तो नहीं लगता. बाबरी मसजिद से जुड़े इस प्रकरण को किसी बहाने जिन्दा रखना हर हाल में भाजपा के लिए ही लाभदायी होना है. उसके लिए तो ‘चित भी मेरी, पट भी मेरा’ का मामला है, जब तक देश की जनता (खास कर बहुसंख्यक समुदाय) आस्था के नाम पर होते आ रहे इस खेल को समझ न जाये. और ये भरसक चाहेंगे कि ऐसा न हो. बावजूद इसके, इस मामले का यथाशीघ्र निबटारा तो होना ही चाहिए. यही सबों के और देश के हित में ही होगा. लेकिन इसमें कोई ‘राजनीति’ नहीं है और चुनावों से इसका कोई रिश्ता नहीं है, ऐसा तो कोई ‘मासूम’ ही कह सकता है.
बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट के चार जजों के कथित विद्रोह मामले के बाद सत्ता पक्ष के समर्थकों ने भी कह दिया कि चूंकि चीफ जस्टिस श्री मिश्र बाबरी मसजिद केस की सुनवाई कर रहे हैं; और ‘सम्भावना’ यही है कि फैसला हिंदुओं के पक्ष में होनेवाला है, इसलिए उस सुनवाई को टालने के लिए; या ऐसा माहौल बनाने के लिए, जिसमें यह कहने का मौका मिल जाये कि अदालत का फैसला पक्षपातपूर्ण है, यह गेम खेला गया है. यानी इनको ‘पहले से’ पता है कि जस्टिस श्री मिश्र की पीठ उस मामले में क्या फैसला सुनानेवाली है! यह और बात है कि गत आठ फरवरी को सुप्रीम कोर्ट की उक्त टिपण्णी से उनको थोड़ी मायूसी हुई होगी.
पर सच यही है कि यह मामला अब महज धार्मिक या आस्था का नहीं रह गया है, पूरी तरह एक राजनीतिक मसला भी बन चुका है. भाजपा विरोधी दलों को भी शायद यह एहसास हो गया है कि फैसला कुछ भी हो, उनको कोई लाभ नहीं मिलनेवाला. इसलिए कि मुसलिम मतों के ध्रुवीकरण का एक अपरिहार्य नतीजा हिंदू ध्रुवीकरण भी होगा, बल्कि होने भी लगा है. इसे संघ और भाजपा के रणनीतिकारों ने भली-भांति समझ लिया है; वैसे भी उन्हें मुस्लिम मत की जरूरत नहीं है, जो वैसे भी लगभग नहीं ही मिलते हैं. ऐसे में मंदिर-मसजिद विवाद और हिंदू-मुस्लिम टकराव का राजनीतिक फलाफल उनके पक्ष में ही होना है. तभी तो वे इसे इसे गर्माने का कोई मौका नहीं छोड़ते.
जरा कल्पना करें कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट यदि हिंदू दावेदारों के, यानी ‘वहीं’ पर मंदिर निर्माण पक्ष में फैसला देता है, तो देश का वातावरण कैसा होगा: और उसका राजनीतिक लाभ किसे मिलेगा? किसी अनुमान की भी जरूरत है क्या? लेकिन यदि सर्वोच्च अदालत मुस्लिम दावेदारों के पक्ष में फैसला सुना दे तो? शायद आप में से अधिकतर यह सोचना और कल्पना भी नहीं करना चाहते. फिर भी मान लीजिये कि ऐसा हो. तो क्या होगा? क्या “मंदिर ‘वहीं’ बनायेंगे” का संकल्प किये बैठे लोग उस फैसले को सहजता से मान लेंगे? वैसे भी अधिकतर लोग अन्दर से यही मानते हैं कि किसी विवाद का निदान तो अदालत के निर्णय से ही होना चाहिए; और सर्वोच्च न्यायलय का फैसला अंतिम होता है. लेकिन तभी, जब वह हमारे पक्ष में हो!
अपने दावे के पक्ष में ‘सारे प्रमाण’ होने के बावजूद बहुत दिनों से कहा जा रहा है कि यह ‘आस्था’ का मामला है, इसमें कोई अदालत फैसला कैसे कर सकती है. यानी, फैसला पक्ष में हुआ तो ठीक, अन्यथा ‘आस्था’ का एंगल तो है ही. फिर ‘शाहबानो’ प्रकरण का उदाहरण भी है ही, जब राजीब गाँधी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बेअसर करने के लिए कानून में ही संशोधन कर दिया था. हालांकि दोनों मामलों में थोडा फर्क है, फिर भी संसद को इस बारे में कानून बनाने का अधिकार तो है ही.
इस संदर्भ में गौरतलब है कि 25 वर्ष बीत जाने पर भी छह दिसंबर ’92 को हुए बाबरी ध्वंस का मामला लंबित है. जबकि यह आपराधिक (क्रिमिनल) मामला है, जिस पर त्वरित सुनवाई और फैसले की अपेक्षा रहती है, जो परंपरा भी है. इस मामले को लटकाये रखने या लटके रहने के लिए किसे जवाबदेह माना जाये? कोर्ट को या अभियोजन पक्ष, यानी सीबीआई को? अदालत और जज साहबान पर संदेह करना उचित नहीं होगा; और ऐसा करने में ‘खतरा’ भी है. तो मानना पड़ेगा कि यह विलम्ब सीबीआई के कारण हुआ. इस दौरान केंद्र में अलग अलग सरकारें रहीं. यदि मान लिया जाये कि सीबीआई केंद्र के इशारे पर या दबाव में काम करती है, तो यह भी मान लेना चाहिए कि कोई सरकार नहीं चाहती थी कि इस मामले में जल्दी फैसला हो. क्या इसमें कोई राजनीति नहीं है?
बाबरी ध्वंस मामले की जांच के लिए गठित लिब्रहान आयोग को तीन महीने में अपनी रिपोर्ट देनी थी, सत्रह साल लग गये. क्यों? इसके लिए महज आयोग के अध्यक्ष जिम्मेवार थे, इसमें कोई ‘राजनीति’ नहीं है?
ऐसे में 22 दिसंबर, 1949 की रात, अचानक मसजिद के अंदर मूर्तियाँ रख कर, व्यवहार में मसजिद पर कब्ज़ा कर लेने और उसे ‘मंदिर’ में बदल देने का जो कृत्य हुआ था, उसके इतने वर्षों से लंबित रहने पर तो स्वाभाविक ही कोई चर्चा नहीं होती! इलाहबाद हाईकोर्ट ने एक फैसला सुनाया भी, जो न्याययिक कम, पंचायती फैसला अधिक था. विवाद मूलतः उस भूखंड (जहाँ बाबरी मसजिद थी) की मिल्कियत का था; और अदालत ने उसके तीन हिस्से कर तीन दावेदारों में बांट दिया! विवाद के सभी पक्षों ने उसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया. अब उसी फैसले को दी गयी चुनौती पर सुप्रीम कोर्ट विचार कर रहा है. लेकिन क्या करीब 68 साल तक उस मामले का निबटारा न होने में कोई राजनीति नहीं है? क्या ऐसा नहीं लगता कि हमारी अदालतें और न्यायाधीश भी इस विवाद के शीघ्र निबटारे को लेकर बहुत उत्साहित नहीं थे/नहीं हैं? क्यों?
और यह विवाद है क्या? सोलहवीं सदी में बाबर या उसके किसी नुमाइंदे ने किसी मंदिर को तोड़ कर मसजिद बनवाई थी या नहीं, क्या अदालत को इस पर विचार करना है? या कि 23 दिसंबर, ’49 को बाबरी मसजिद में मूर्तियाँ रखने का काम सही था या नहीं? कि उस भूखंड पर मालिकाना हक़ किसका था और किसका होना चाहिए?
क्या आज भारत की कोई अदालत इस पर कोई फैसला सुना सकती है कि श्रीराम का जन्म ‘वहीं’ पर हुआ था यह नहीं? कि हनुमानजी हिमालय से पहाड़ का एक टुकड़ा लेकर हवा में उड़ते हुए श्रीलंका गए थे या नहीं? कि उन्होंने कभी सूर्य को लगभग निगल लिया था या नहीं? कि श्री राम ने अपनी पत्नी की ‘अग्नि परीक्षा’ ली थी या नहीं और बिना बाकायदा तलाक दिये उनका त्याग किया था या नहीं? कि लक्ष्मण ने सूपर्णखा के नाक-कान काटे थे या नहीं? कि समुद्र पर श्रीराम ने किसी पुल का निर्माण किया था या नहीं? कि पृथ्वीराज चौहान ने संयोगिता का अपहरण किया था; या संयोगिता अपनी मर्जी से उनके साथ चली गयी थी?
ये सब इतिहासकारों या पुरातत्ववेत्ताओं के विचार का विषय है.
लेकिन जब आप अपने कथन को ‘स्वयंसिद्ध’ मान लेते हैं, तब किसी बहस या प्रमाण की जरूरत कहाँ रह जाती है? और इस मामले में भी एक पक्ष यही मान रहा है. इसलिए मानता है कि फैसला तो हमारे पक्ष में ही होना है! अब इसमें ‘राजनीति’ कैसे हो सकती है. यह तो आस्था का मामला है.
उम्मीद की जानी चाहिए कि, विलम्ब से ही सही, सुप्रीम कोर्ट इस पर अपना फैसला यथाशीघ्र सुना देगा. यह और बात है कि उसे सभी पक्ष स्वीकार करेंगे या नहीं. ल्घ्ग तय है कि उसके बाद भी ‘राजनीति’ होगी. लेकिन लम से कम अदालत में मामला लंबित रहने का बहाना तो नहीं रहेगा.