इन दिनों झारखंड में कुड़मियों ने आदिवासी या अनुसूचित जाति का दर्जा पाने का अभियान तीव्र कर दिया है. कुछ वर्षों पहले भी यह अभियान तेज हुई थी. बाद में धीमी भी पड़ी थी. मुहिम की तेजी का रिश्ता चुनाव के निकट आने से कुछ न कुछ अवश्य है. अधिकांश आदिवासी नेता जो इस पर मौन रखा करते हैं, इस मांग-इस मुहिम के खिलाफ हैं. उन्हें यह मांग पेसा के एकल पंचायती पदों, विधायक-सांसद के आरक्षित सीटों, सरकारी नौकरियों में आदिवासी आरक्षण को छीनने- हड़पने की साजिश लगती है. इन आशंकाओं को कुड़मी नेताओं ने दूर करने की कोई कोशिश भी नहीं की है. कुड़मी और आदिवासी से भिन्न पृष्ठभूमि वाले झारखंडी दिलो-दिमाग वाले समाजकर्मियों और बौद्धिकों को भी यह मुद्दा भाजपा द्वारा उछाला गया झारखंडी समाज में तीखा दरार पैदा कर चुनावी लाभ लेने वाला मुद्दा लगता है. अर्थात यह मुद्दा विवेक से ज्यादा भावना का, सहचिंतन से ज्यादा ध्रुवीकरण का, सामाजिक- सांस्कृतिक से ज्यादा राजनीतिक बन गया है.
ऐसी स्थिति में तार्किक विश्लषण और निष्कर्ष का मामला काफी कठिन हो जाता है. राजनीतिक विवाद के वक्त तटस्थ हो जाने की, मौन रह जाने की होशियारी बहुत सारे करते हैं. तथ्यस्थ रह कर स्पष्ट राय जाहिर करने का, जटिलताओं और अंतरविरोधों को साधने सुलझाने का नैतिक विवेक एवं साहस, रणनीतिक माथापच्ची एवं जोखिम कुछ लोग ही उठा पाते हैं. इस कारण स्पष्ट एकताशील जनमत उस मसले पर नहीं बन पाता. दरारें खोदने, ध्रुवीकरण बनाने वाले सत्तालोभी चुनावी खिलाड़ी घातक दीर्घकालिक अलगाव रचकर अपनी जीत और जनता की हार तय कर जाते हैं.
हमे एक-एक परत खोलते-परखते हुए इस मसले पर सही राय बनानी चाहिये. झारखंडी समाज और संस्कृति के प्रति समर्पित और भाजपा को उखाड़ फेंकने को संकल्पित लोगों के लिये तो यह खास जिम्मेदारी, खास चुनौती है. इस मसले के अनसुलझे रहने, सुलगते रहने का सांस्कृतिक एवं राजनैतिक लाभ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा को ही होने वाला जो है. झारखंड के राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक उपनिवेश बनते जाने से मुक्ति चाहने वाले आदिवासियों और कुड़मियों को चिढ़ और जिद छोड़ कर खुलेमन से विचार करना होगा. आत्मस्वीकृति और आत्मालोचना करनी होगी.
सूक्ष्मता में जाये ंतो कुड़मियों की यह मांग आदिवासी बनने की नहीं, अनुसूचित जनजाति की सरकारी सूची में दर्ज होने की है. आदिवासी और अनुसूचित जनजाति की पहचान में उपरी समानता के बावजूद आंतरिक फर्क है. आदिवासी सामाजिक, सांस्कृतिक पहचान की शब्दावली है, अनुसूचित जनजाति सरकारी राजनीतिक पहचान की शब्दावली है. यह नहीं कहा जा सकता कि अंग्रेजी शासन काल में आदिवासीपन या आदिवासियत की सामाजिक सांस्कृतिक विशिष्टता रखने वाले सारे जनजातियों को अनुसूचित बद्ध कर दिया गया. आज भी नहीं कहा जा सकता कि आदिवासीयत की सारी अर्हता रखने वाला कोई समूह अनुसूचित जनजाति की सूचि से बाहर बचा नहीं रह गया है. यह भी नहीं कहा जा सकता कि इस सूची में कुछ संदिग्ध प्रश्नेय या गलतदर्जगी नहीं हुई है. अनुसूचित जनजाति और आदिवासी पूरी तरह एक पहचान होती तो अपने को आदिवासी माननेवाले, औरों के द्वारा भी आदिवासी समझे बोले जाने वाले समूह पूरी दुनियां में कम से कम पूरे भारत में अनुसूचित जनजाति के रूप में दर्ज होते. झारखंड के आदिवासी बंगाल, असम या अंडमान निकोबार में अनुसूचित जनजाति की सूची से बाहर नहीं रहते. आदिवासी पहचान वाले समुदायों की उपस्थिति और अनुसूचित जनजाति की सूची में रिक्ति और अंतरविरोध के कारण ही अनुसचित जनजाति की सूची में नया समूह शामिल करने और पुराने समूह को हटाने जैसी मांगे और प्रक्रियायें चलती रहती हैं. अगर कुड़मियों को सिर्फ आदिवासी पहचान पाने की आकांक्षा होती, तो इसके लिए अपनी आदिवासी पहचान व्यक्त करने का आदिवासी संस्कृति की विशिष्टताओं को अपनाने फैलाने का सामाजिक सांस्कृतिक अभियान पर फोकस होता. सामाजिक सांस्कृतिक रूप से आदिवासी बताने, मानने या बनने पर ज्यादा जोर होता. दशकों से मराठों या पटेलों से समकक्षता या रिश्ता बताने का जो अभियान चला था, उसके उल्टे उसे नकारती प्रक्रिया चलती. यह प्रक्रिया चल रही है या नहीं, चल रही है तो कितनी चल रही है, ऐसे स्वाभाविक सवालों पर स्थिति स्पष्ट करनी होगी.
ऐसा ही एक और सवाल है जिसका जवाब पूरी ईमानदारी से सच सच दिया जाना चाहिये. क्या सारे कुड़मी आदिवासी बनना चाहते हैं? या क्या कुड़मियों की स्पष्ट और निर्णायक बहुसंख्या आदिवासी बनना चाहती है? लिखित या अलिखित कुड़मियों के प्रत्यक्ष और प्रामाणिक जनमत अभिव्यक्ति के आधार पर ही न इसे समझा जा सकता है. ऐसी कोई प्रक्रिया चलती तो दिख नहीं रही. अगर प्रामाणिक बहुमत इस आकांक्षा के साथ नहीं है, तो क्या करें? मांग करने वालों को इसका संतोषजनक जवाब तलाशना होगा.
कुड़मी आदिवासी आंदोलनकारी अपने मांग के पक्ष में दस्तावेजों का हवाला भी देते हैं. कहते हैं कि 1930 के आसपास के सरकारी दस्तावेजों में कुड़मी अनुसूचित जनजाति की सूची में दर्ज है. बाद के दौरमें उनका उल्लेख वहां से हटा. क्यों हटा, साजिशन या असावधानीवश, सकारण या अकारण, यह जवाब नहीं मिलता. मैंने भी 1930 के आसपास के एक गजटीय अधिसूचना में कुर्मी समुदाय का नाम अनुसूचित जनजातियों के नाम के साथ देखा है. सरकारी दस्तावेजों का हवाला भी सरकारी आदिवासी सूची में दर्ज होने या सरकारी लाभों में दावेदारी की मंशा ही जाहिर करता है. यह हवाला फिर से सूची में शामिल होने का पुख्ता आधार नहीं देता. इसके लिये और ज्यादा दस्तावेजी शोध कर यह साबित करना होगा कि गलत कारणों या आधारों पर सूची से कुर्मी जनजाति का उल्लेख हटाया गया. हो सकता है, तार्किक आधार पर हटाया गया हो. इतने लंबे गैप के कारण यह खोजबीन काफी दुरूह हो जाती है. तब भी करना तो होगा और आंदोलनकारी यह बौद्धिक दुरुहता स्वीकारते दिख नहीं रहे. इतने लंबे समयके बाद बल्कि उल्टी यात्रा राजनीतिक तौर पर आदिवासी-विमुखता और हिंदूकरण की ओर बढ़ने के बाद आदिवासी बनने की वापसी पर सवाल तो खड़ी करेगी. इस सवाल का संतोषजनक जवाब देना होगा. इतने लंबे टूटन या अलगाव का खामियाजा भुगतने, पश्चाताप करने की मानसिक तैयारी भी होनी चाहिये.
अगले अंक में : यह तो कुर्मी आदिवासी आंदोलनकारियों की भूमिका का मूल्यांकन हुआ. अगले अंक में प्रतिपक्षी अनुसूचिबद्ध आदिवासियों की मानसिकता की चर्चा