भारत प्रगति के उस शिखर पर है जहाँ से नीचे देखने पर वस्तु विशेष ही नही अपितु इंसान भी तुच्छ दिखने लगा है. व्यक्तिगत सोच का स्तर उन सम्प्रदायिक ताकतों पर आधारित है जिनको रोटियाँ पकाने के लिये धार्मिक चुल्हे और जातिवादी इंधन की आवश्यकता होती है, मगर उन चुल्हो के भीतर भड़कने वाली आग ना सिर्फ रोटियाँ सेंकती है बल्कि देश की बड़ी आबादी को जला कर राख कर देने का कार्य भी बड़ी ही कुशलता पूर्वक करती हैं. आज देश की बड़ी आबादी उन राजनीतिक दलालो के चंगुल में फंसी हुई है जिनको अपने स्वार्थ की धुंध में जनता की बली चढ़ाते कोई संकोच नही होता.
यह कोई सन्देह योग्य बात नही कि उंचाई से देखने पर आधार सिमट जाता है, नीचे की वस्तु छोटी दिखाई देती है. उसी तर्क पर माननीय नेतागण भी उच्च पदो पर आसीन होकर आम व्यक्तिव को तुच्छ समझने लगे हैं, जबकि वो इस सच्चाई से दोचार हैं कि बुनियाद का इमारत में महत्वपूर्ण स्थान होता है. वो जानते हैं कि ऊंचाई हमेशा आधार पर टिकी होती है, लेकिन वो ये भी जानते हैं कि आधार को किस प्रकार उसकी औकत का अहसास दिलाकर नीचे ही घुटने दिया जाये.
जो लोग नेता की पोशाक पहनकर हमे बुनियाद बनाकर हमारे बीच से उच्च पदों पर आसीन हो जाते हैं, वो हमारे अपनो और सपनो को कुचल कर लाशों के ढेर पर खड़े होकर महज़ अपनी कामयाबी का नगाड़ा बजा रहे हैं और मासूम जनता सहमी-सहमी निगाहों से ये मंजर देख रही है और खौफ़ के हाथों कुछ ना बोलने पर मजबूर हो जाती है. जिन लोगो को हम हमदर्द मानकर कुर्सी मुहैया कराते हैं, वही लोग नेता रूपी कांचली में हमारा दर्द बनकर खड़े हो जाते हैं. कभी जातिवादी ज़हर घोलकर महाराष्ट्री फिज़ा खराब की जाती है और दलित समाज को प्रताड़ित किया जाता है, तो कभी धर्म के नाम पर गुजरात में कत्लेआम किया जाता है और मासूम बच्चो सहित माँओं को आग के हवाले कर दिया जाता है. बच्चों को अनाथ कर दिया जाता है. महिलाओं को विधवा कर जिंदगी भर के लिये अकेला कर दिया जाता है.
गत दिनों उत्तर प्रदेश के कासगंज में हिंसा भड़की जिसकी बुनियादी वजह थी “धर्म”.
धर्म की अाड़ में हिंसा को तूल दिया गया लेकिन तर्क की आवश्यकता नही समझी गई. माननीय सांसद राजवीर सिंह के बयान उस तड़के से कम नही थे जो आग को भड़काने पर मजबूर कर देते हैं. गणतंत्र दिवस की तैयारियों में खुशियों के भीतर उस दुःख का सामना करना पड़ा जो सोच से बहुत परे था. यदि तार्किक नज़रिये से देखा जाये तो राष्ट्रीय त्यौहार पर राष्ट्रीय ध्वजारोहण किया जाना चाहिए था, लेकिन इन सब के बीच धार्मिक ध्वज को फहराने की कोशिश की गई.
चन्दन गुप्ता को मौत का सामना करना पड़ा और अकरम को अपनी आँख गवानी पड़ी.
पिछले महीने राजस्थान के उदयपुर में भी एक घटना को अंजाम दिया गया जिसका मूल मंत्र था “धर्म”. लव ज़िहाद के नाम पर चरित्रहीन व्यक्ति शंभूलाल रेंगर द्वार अधेड़ व्यक्ति अफराजुल को मार दिया गया जो अपने परिवार का एक मात्र सहारा था. इस सब के बावजूद धर्म के नाम पर हत्यारे को बचाने का पूर्ण प्रयास किया गया. जगह-जगह रैलियां निकालकर उपद्रव मचाया गया. यहाँ तक कि न्यायालय की छत पर धार्मिक ध्वज फहराकर न्यायालय की गरीमा को तार-तार कर दिया गया.
जनता को समझना होगा कि हिन्दू, मुस्लिम, सिख हों य़ा ईसाई, इन सब से पहले हम इंसान हैं, भारतीय हैं, पड़ोसी हैं. यदि कोई पड़ोसी पीड़ा में है तो ये कौन देखता है कि ये हिन्दू है य़ा मुस्लिम! हर कोई उसकी पीड़ा पर दुख व्यक्त करता है. उसकी पीड़ा का समाधान खोजता है. कौन पसंद करता है कि पड़ोसी की तकलीफ़ का सबब हम बने?