‘वंदेमातरम’ गाने से इनकार या परहेज के जो कारण कुछ या बहुतेरे मुसलमान बताते हैं, वह बहुत तर्कपूर्ण नहीं लगते. वैसे यदि कोई भारत को माता भी मानता है, तो उसकी बंदगी में या उसे सलाम करने में ही क्या हर्ज है. रहमान ने ‘मां तुझे सलाम…’ गाया भी है और क्या खूब गाया है. मगर ‘भारत’ देश को ‘माता’ ही मानने की जिद भी समझ से परे है. विचारणीय यह भी है कि ‘जन गण मन..’ से वे नहीं चिढ़ते हैं. तिरंगे को सलामी देने से भी उनका विरोध नहीं है. पर मेरी आपत्ति का कारण भिन्न है. एक तो ‘भारत में यदि रहना है, तो वंदेमातरम गाना होगा’ जैसे नारा आपत्तिजनक लगता है. यह सरासर मुस्लिम समाज को चिढ़ाना और धमकाना है. अब तो साफ़ लगने लगा है कि ‘वंदेमातरम’ भी उनके लिए एक हथियार बन गया है. ऐसे में मुझे भी कहने की इच्छा होती है कि - नहीं गाऊंगा वंदेमातरम.

‘वंदेमातरम’ को किस तरह देशभक्ति की अनिवार्य शर्त से जोड़ दिया गया है और यह किस तरह पूरे (हिंदू) समाज को, संवैधानिक संस्थाओं से जुड़े लोगों तक भी पैठ गया है, इसका एक उदहारण बीते वर्ष तब समझ में आया. मद्रास हाईकोर्ट इस विवाद पर विचार कर रहा था कि ‘वंदेमातरम’ गीत किस भाषा में लिखा गया है? किसी विद्यार्थी ने एक परीक्षा में पूछे गये इस प्रश्न के जवाब में उसे बांगला/या संस्कृत का गीत बताया. शिक्षक ने उस जवाब को गलत माना और मामला अदालत तक पहुँच गया. लेकिन जज साहब ने फैसला देते हुए सभी शिक्षण संस्थाओं में इस गीत को गाना अनिवार्य घोषित कर दिया!

यह तो सर्वज्ञात है कि ‘वंदेमातरम’ गीत बंकिमचंद्र के चर्चित उपन्यास ‘आनंदमठ’ से लिया गया है. ‘आनंदमठ’ 18 वीं सदी के बंगाल में वहां के एक क्रूर/अत्याचारी मुसलिम शासक के विरुद्ध ‘संतान’ नामक हिंदुओं के एक सगठन के संघर्ष की कथा है. यह उपन्यास 1982 में छपा; और माना जाता है कि यह 1773 में उत्तरी बंगाल में हुए ‘संन्यासी विद्रोह’ पर आधारित है.. इस उपन्यास और उसके इस गीत ने तब बंगाल सहित देश के बड़े हिस्से में आजादी के लिए लड़ रहे युवाओं को काफी प्रेरित किया. ‘वंदेमातरम’ क्रांतिकारियों का नारा और गीत बन गया. लेकिन उपन्यास में जिस ‘भारत माता’ की पूजा होती है, और जिसकी अभ्यर्थना में यह गीत गया जाता है, वह प्रत्यक्षतः हिंदुओं की देवी दुर्गा ही हैं. जाहिर है, बहुतेरे हिंदुओं के लिए दोनों एक हो सकती हैं. मगर किसी गैरहिंदू, खासकर मुसलमान को दुर्गा-रूपी ‘भारत माता’ की आराधना करने को बाध्य करने का प्रयास; और ऐसा न करने पर उसकी देशभक्ति पर संदेह करना सरासर ज्यादती है.

‘वंदेमातरम’ का एक सच यह भी है कि ‘आनंदमठ’ का मूल या प्रमुख स्वर मुस्लिम विरोधी होने के साथ ही ‘गौरांग महाप्रभुओं’ की अभ्यर्थना का भी है. इस पुस्तक में ‘मातृभूमि’ या देशभक्ति तो है, लेकिन पूरे उपन्यास में महज एक अत्याचारी मुस्लिम शासक नहीं, मुस्लिम विरोधी भावना व बातें भरी पड़ी हैं. अंग्रेजों को भारत (हिंदू भारत) के ‘उद्धारक’ के रूप में भी देखा गया है.

यकीन नहीं हो रहा, तो उपन्यास के इस हिस्से को देखें. मुस्लिम दुश्मनों पर हमला करने जा रहे संताल दल को अंग्रेजों की एक टुकड़ी चुनौती देती है. दोनों पक्षों में युद्ध होता है : ‘…भवानंद (संतान दल के एक योद्धा) ने स्वयं जाकर कप्तान टॉमस को पकड़ लिया. कप्तान अंत तक युद्ध करता रहा. भवानंद ने कहा - ‘कप्तान साहब, मैं तुम्हें मारूंगा नहीं; अंगरेज हमारे शत्रु नहीं हैं. क्यों तुम मुसलमानों की रक्षा के लिए आये? तुम्हें प्राणदान तो देता हूं. लेकिन अभी तुम हमारे बंदी अवश्य रहोगे. अंगरेजों की जय हो. तुम हमारे मित्र हो..’

आगे की कथा में ‘संतान दल’ (हिंदू विद्रोहियों का संगठन) को मुसलिम शासक के खिलाफ जीत मिल चुकी है, लेकिन तब तक अंगरेज एक मजबूत ताकत के रूप में उभर चुके हैं. ‘संतान दल’ के दो प्रमुख योद्धा भवानंद और सत्यानन्द अपने गुरु ‘महात्मा’ के पास गये हैं. दोनों निराश हैं. तब महात्मा उनसे कहते हैं- “..सत्यानंद, कातर न हो. तुमने बुद्धि विभ्रम से दस्युवृत्ति द्वारा धन संचय कर रण में विजय ली है. पाप का कभी पवित्र फल नहीं होता. अतएव तुम लोग देश-उद्धार नहीं कर सकोगे. और अब जो होगा, अच्छा होगा. अंगरेजों के बिना राजा हुए सनातन धर्म का उद्धार नहीं हो सकेगा. महापुरुषों ने जिस प्रकार समझाया है, मैं उसी प्रकार समझाता हूं-ध्यान देकर सुनो! तैंतिस कोटि देवताओं का पूजन सनातन-धर्म नहीं है… इसलिए वास्तविक सनातन-धर्म के उद्धार के लिए पहले बहिर्विषयक ज्ञान-प्रचार की आवश्यकता है… अंगरेज उस ज्ञान के प्रकांड पंडित हैं– लोक-शिक्षा में बड़े पटु हैं. अत: अंगरेजों के राजा होने से, अंगरेजी की शिक्षा से स्वत: वह ज्ञान उत्पन्न होगा. जब तक उस ज्ञान से हिंदू ज्ञानवान, गुणवान और बलवान न होंगे, अंगरेज राज्य रहेगा. उस राज्य में प्रजा सुखी होगी, निष्कंटक धर्माचरण होंगे. अंगरेजों से बिना युद्ध किये ही, निरस्त्र होकर मेरे साथ चलो..’ सत्यानंद ने कहा- ‘महात्मन, यदि ऐसा ही था- अंगरेजों को ही राजा बनाना था, तो हम लोगों को इस कार्य में प्रवृत्त करने की क्या आवश्यकता थी?’ ‘महापुरुष’ ने कहा- ‘अंगरेज उस समय बनिया थे, अर्थ-संग्रह में ही उनका ध्यान था. अब ‘संतानों’ के कारण ही वे राज्य-शासन हाथ में लेंगे; क्योंकि बिना राजत्व लिये अर्थ-संग्रह नहीं हो सकता. अंगरेज राजदंड लें, इसलिए संतानों का विद्रोह हुआ है… …शत्रु कौन है? शत्रु अब कोई नहीं. अंगरेज हमारे मित्र हैं. फिर अंगरेजों से युद्ध कर अंत में विजयी हो–ऐसी अभी किसी की शक्ति नहीं…“

उपन्यास का एक और अंश देख लें- “..उस रात में गांव-गांव में, नगर-नगर में महाकोलाहल मच गया. सभी चिल्ला रहे थे- मुसलमान हार गये; देश हम लोगों का हो गया. भाइयों! हरि-हरि कहो! -गांव में मुसलमान दिखाई पड़ते ही लोग खदेड़कर मारते थे। बहुतेरे लोग दलबद्ध होकर मुसलमानों की बस्ती में पहुंचकर घरों में आग लगाने और माल लूटने लगे। अनेक मुसलमान ढाढ़ी मुंढ़वा कर देह में भस्मी रमाकर राम-राम जपने लगे. पूछने पर कहते- हम हिंदू हैं..”

यह महज किसी शासक के खिलाफ क्रोध-घृणा का प्रदर्शन है या एक समुदाय के प्रति? ‘वंदेमातरम’ को देशभक्ति का प्रमाण माननेवलों के अंदाज में क्या वही भाव आज भी नहीं दिखता?

‘आनंदमठ’ का यह अंश पढ़ें, तो मालूम होगा कि संतान या सन्यासी विद्रोही केवल मुसलमानों को दुश्मन नहीं मानते थे, गैर सवर्ण हिंदुओं से भी उनको लगाव नहीं था. “…संतानों के दल-के-दल उस रात यत्र-तत्र वंदेमातरम और जय जगदीश हरे के गीत गाते हुए घूमते रहे. कोई शत्रु-सेना का शस्त्र तो कोई वस्त्र लूटने लगा। कोई मृत देह के मुंह पर पदाघात करने लगा, तो कोई दूसरी तरह का उपद्रव करने लगा, कोई गांव की तरफ तो कोई नगर की तरफ पहुंचकर राहगीरों और गृहस्थों को पकड़कर कहने लगा- वंदेमातरम कहो, नहीं तो मार डालूंगा. कोई मैदा-चीनी की दुकान लूट रहा था, तो कोई ग्वालों के घर पहुंचकर हांडी भर दूध ही छीनकर पीता था. कोई कहता- हम लोग ब्रज के गोप आ पहुंचे, गोपियां कहां हैं?”

गौरतलब है कि तब भी कहा जा रहा था- ‘वंदेमातरम कहो, नहीं तो मार डालूंगा.’ और वे ‘ग्वालों’ को भी प्रताड़ित कर रहे थे. अब भी किसी को लगता है कि ‘वन्देमातरम’ विशुद्ध देशभक्ति का नारा है, तो क्या कहा जाये!