भाई जी अर्थव्यवस्था की हालत बहुत खराब है.
ये इसलिये नहीं है की सचमुच हमारी अर्थव्यवस्था हीं खराब है, ये खराब इसलिये हो रही है की जो पॉलिटिकल एकॉनमी की शुध्द आत्मा होती है नीयत - इसकी मूसल्ल्म धुरी हीं बदल दी गई है 2014 से.
ये मैं इसलिये कह रहा हूँ की पहले आलोचक और आलोचना की एक गरिमा होती थी और उसका असर भी होता था, अब ऐसा है की आप बक बक करते रहिये कोई सुनने तक को तैयार नहीं है.
एकॉनमी चाहे कितनी भी मार्केट ऑरियेंटेड रही हो हमारी सामाजिक पूँजी का ह्रास नहीं होता था - हमने किस बिना के बल पर नोटबंदी के वज्रपात को सह लिया? इसी सामाजिक पूँजी के बल पर न ? अब यही समाज खंड खंड हो रहा है.
अगर आप चेतन समाज को अलग कर दीजिये तो आज खाते पीते पारिवारों को इस सरकार की नीतियों से कोई शिकायत नहीं है.. जबकि गैस के दाम दुगने हुए, आटा चावल दाल तेल सब 25 से 30% महँगे हुए, शिक्षा अस्पताल क्या नहीं महँगा हुआ, लेकिन इसपर कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं है. आंकड़े साफ बताते हैं की 2014 में जहाँ 1% लोगों के पास देश का 67% धन था अब वो 73% हो गया है - लेकिन इसको भी नहीं सुना जा रहा है..
इस देश के धन वाले फेनोमेना को भी खँघारना ज़रूरी है - ये धन और कुछ नहीं बल्कि इनकम टैक्स की फाइल की गई रिटर्न से लिया गया है- तो अब संदेह कहाँ रह गया ? अब संदेह इस बात में भी नहीं है की धन कहाँ जा रहा है, किस तेजी से जा रहा है और इसके लिये जिम्मेवार कौन है ?
सरकार जब कहती थी की 120 करोड़ के देश में सिर्फ 1% लोग इनकम टैक्स का रिटर्न भरते थे जो अब 10% हुआ है नोटबंदी और gst के बाद - तब तो तस्वीर और स्पष्ट है. कागजी रुपया अगर मीडियम आॅफ एक्सचेंज है और इसपर मालिकाना सरकार का है तो 73% धन का 1% लोगों के पास खिसक जाने का मार्ग कौन प्रशस्त कर रहा है ? निश्चित तौर पर नीतियां नीतियां हैं और इनको लागू करने वाला हथियार रुपया है. कागजी रुपया.
हीगल ने कहा था न state is the march of god.
अब आइये एक नये ट्रेंड को भी देखते है - ये नया ट्रेंड है economy of attention.
अगर आप इस बात से सहमत हैं की सूचनाओं की हिमालयी अधिकता अटेन्शन की दरिद्रता को जन्म देती है, अटेन्शन की निरर्थकता को मजबूत करती है तो आप इस ट्रेंड को समझ सकते हैं की आज समाज का fragmentation सिर्फ हिंदू मुसलमान तक हीं सीमित नहीं है.
और हाँ, इसे आप वामपंथी अवधारणा समझने की जल्दीबाजी भी मत कीजिये. इन मूल भूत बद्लाओं की ज़मीन किसी वाद से मुक्त है, हाँ, ये ज़रूर है की ये आदमी का अवचेतनिय बदलाव नहीं है.
अब आइये 2014 के बाद से उन परिवर्तनों पर जो इन तमाम बदलाओ का एक संगठित रुप है,एक पॉलिटिकल इनकैशमेंट भी. ये सब उसी तरह है जैसे मोतीचूर लड्डू के लिये पहले बुँदिया बना लिया गया.
एक और चीज़ है पोस्ट ट्रुथ- यानी सत्य कुछ नहीं होता तथ्य भी कुछ नहीं लेकिन आप चाहें तो प्रचार और टेक्नॉलॉजी के बल पर नायकत्व खड़ा कर देते हैं. इन माध्यमों से आप एक इल्लूज्न पैदा कर देते हैं और एक संगठित प्रयास से आप जनता को इल्लूज्न में ला देते हैं - आज के हालात बिल्कुल ऐसे हीं हैं.. और इसी मूसल्ल्म हालात नें उस पॉलिटिकल एकॉनमी की धुरी को सुनामी की तरह एक जगह से दूसरी जगह पर कर दिया है..
तो अब जब धुरी हीं बदल जाये तो निराशा के सिवा और क्या बचेगा ?
हाँ मैं निराश हूँ.