पीएम नरेन्द्र मोदी देश के विकास लिए नयी संस्कृति के सृजन का आह्वान कर रहे हैं, नए संकल्प और नयी नीति-रणनीति की घोषणा कर रहे हैं. पिछले तीन सालों में देश के आम जन को और खासकर युवा पीढ़ी को उनके आह्वान और घोषणाओं में अपने परिवर्तन की बेचैनी के साथ अपने समाज के सपने और उम्मीदों की स्वीकृति की झलक दिखी. लेकिन इस दौरान उनको यह भी दिखा कि मोदी जी की घोषणाओं में उनके अपने ही संगठन-परिवार को वह दृष्टि-दिशा नजर नहीं आ रही, जिसने उनको एक प्रदेश के मुख्यमंत्री के पद से उठाकर प्रधानमन्त्री पद पर बिठाने का फैसला किया था.
तो क्या इसका अर्थ यह है कि मोदी जी देश के विकास के लिए नए नीति-नियम और रणनीति के तहत आमजन से जो सहयोग चाहते हैं, उसके लिए वे अपने परिवार-संगठन से ही सहमति नहीं ले पा रहे?
अक्सर पार्टी या संगठन बनाने वाले, जो किसी व्यापक संघर्ष या जन आंदोलन के गर्भ से जनमते हैं या गर्म हवा से फूलकर ऊपर उठने वाले बैलून की तरह नेतृत्व की अग्रिम पंक्ति में दिखने लगते हैं, एक मायने में अपने लक्ष्य के उद्देश्य के प्रति स्पष्ट समझ नहीं रखते. वे इस समझ को संजोना जरूरी मानते ही नहीं कि वे अपनी जिम्मेदारी निभाने में असफल होंगे, तो जिसका लाभ करने निकले, उसका अनिवार्यतः नुकसान करेंगे. पिछले तीन-साढ़े तीन साल के कर्तृत्व में उनकी समझ का यह अधूरापन साफ झलकता है कि वे अपनी सफलता से जनता को हो सकने वाले ‘लाभ’ का ‘लार्जर दैन लाइफ’ जैसा आधी हकीकत का हिसाब और आधा फसाना का किताब करने में मशगूल हैं, लेकिन सच के इस पहलू को न देख रहे हैं और न समझना चाह रहे हैं कि उनकी असफलता से सिर्फ इतना नहीं होगा कि जनता को लाभ नहीं होगा, बल्कि जनता को नुकसान होगा ही होगा.
आज भारत की स्थिति कुछ रूपों में तेजी से बदल रही है. इन परिवर्तनों को सावधानी से देखना, उनका अध्ययन करना जरूरी है, यह जनता की समझ है. जनता की इस समझ में खुद उसके अंदर में हो रहे ‘बदलाव’ को समझने की छटपटाहट है. जनता आज देश के प्रभुओं के प्रति अपने विश्वास की ‘सीमा-रेखा’ पर पहुंचकर दुविधा में खड़ी है. वह इस सीमा-रेखा को ‘लक्ष्मण—रेखा’ मानकर इसी तरफ रहे या लांघे, यही दुविधा है. वह सत्ता-राजनीति के प्रभुओं के बारे में यह विश्वास रखती आयी है कि वे जो करते हैं, वह जनता की भलाई का काम है. लेकिन अब विश्वास की सीमा रेखा पर पहुंचकर उसे यह समझ में आने लगा है कि प्रभुओं द्वारा किए जाने वाले भलाई के हर काम से उसका भला नहीं होता. भलाई के उनके काम से जनता को अब अक्सर बुराई और नुकसान झेलना पड़ रहा है. विश्वास की इसी सीमारेखा पर अन्ना हजारे और उनके अनुयायी अरविंद केजरीवाल की टीम के आगमन से जनता में इस दुविधा को काटने का हौसला पैदा हुआ था. पिछले सालों में उन्होंने जो कुछ किया और जनता ने उनको जिस तरह माथे पर बिठाया, उसका कम से कम इतना आशय समय की दीवार पर दर्ज इबारत पढ़कर समझा जा सकता है.
पुराने जमाने में आम जनता के लिए यह जानना जरूरी नहीं था कि ‘राजा’ क्या करता है, या उसका तंत्र क्या करता है. राजा के नाम का उल्लेख करने तक की आवश्यकता नहीं थी. उस समय इतना ही काफी था कि समय पर कर चुका दिया, मौका पड़ने पर कुछ प्रतिरोध, कुछ विरोध, कुछ संघर्ष के तेवर अपना कर राज्यतंत्र को हिम्मत भरा जवाब दे दिया अथवा रिश्वत दे-लेकर कुछ समय के लिए अपनी जान बचा ली. आज इस तरह से कोई नहीं बच सकता. आम जनता यानी हम-आप, चाहें या न चाहें, शासन और ‘प्रशासन’ के साथ इतने निकट से जुड़ गए हैं कि यदि बारीकी से उनके मामलों को नहीं देखेंगे-समझेंगे और अपने सामूहिक हितों नहीं समझेंगे तो निश्चय ही कुचले जाएंगे. इसका मायने यह है कि अब ऐसा समय आ गया है कि कोई एक व्यक्ति प्रभु बनकर हमारा भला नहीं कर सकता. लोकतंत्र में वह अपनी ‘प्रभुता’ के लिए जनता की ताकत को चूसकर जनता को इस कदर शक्तिहीन कर सकता है कि एक तरफ उसकी सत्ता अपार शक्ति से संपन्न हो जाए और दूसरी तरफ जनता शक्तिविहीन होकर अपने आप अपनी हानि को स्वीकार कर ले. लोकतंत्र में सत्ता-राजनीति की ऐसी प्रक्रिया में यह हो के रहता है कि सरकार या संसद या विधानमंडल में हमारे प्रतिनिधि हमारे नाम पर हमारा ही गला काटें. इसलिए आम जनता को इन विषयों को समझना होगा. वह सिर्फ व्यक्तिगत स्तर पर यह न सीखे-समझे कि अपने परिवार या बच्चों के पालन-पोषण कैसे करे, वरन् उसे यह जानना होगा कि उसके समाज, राज्य या देश में आजीविका, पढ़ाई आदि की सीमाएं और संभावनाएं क्या हैं, साधन-सुविधाएं आदि कम हो जाया हों, उन पर जनता की पकड़ और पहुंच में इतनी विषमता क्यों हैं? उसे जानना होगा कि अनाज के भाव क्यों बढ़ते हैं और जो अनाज जनता पैदा करती है, वही उसकी पहुंच से बाहर कैसे हो रहा है.
आज के परिदृश्य का एक स्पष्ट आशय यह है कि देश में जनता की ताकत पर चलने का दावा करनेवाली व्यवस्था जनता को कमजोर कर या उसे असहाय याचक बनाकर खुद शक्तिशाली हो रही है. इसे ध्वस्त करने का वैकल्पिक उपाय ऐसी व्यवस्था का निर्माण है, जो अपनी मजबूती के लिए जनता को निरंतर शक्ति-सम्पन्न करे. ऐसी व्यवस्था से ही जनता का भला होगा, जिसके निर्माण से लेकर निगरानी तक में जनता अपनी सहभागी भूमिका को स्वीकार करे. आज देश की ‘लोकतांत्रिक’ राजनीति पर काबिज सत्ता-पक्ष और विपक्ष के बयानों से तो लगता है कि वे जनता में इस ‘समझ’ को मुखर और स्थिर करने के लिए परस्पर होड़ में अस्त-व्यस्त हैं. लेकिन इस प्रक्रिया में एक-दूसरे के खिलाफ वे जो कुछ कर-कह रहे हैं – दूसरे के बेईमानी और भ्रष्टाचार को अपनी ईमानदारी (ईमानदार बेईमानी!) के सर्टिफिकेट के रूप में उछाल रहे हैं - उससे तो समय की दीवार पर बरसों से दर्ज यह पुराना धुंधला-सा सवाल संदेह की कालिख से और ज्यादा चमकने लगा है कि वे जनता को मूर्ख समझते हैं या कि मूर्ख बना रहे हैं?