जब कभी ‘संस्कृति’ के सवाल पर बात होती है, अक्सर हम एक सांस में बोलने लगते हैं। सबकी मान्यताएं अलग और स्तर अलग। अक्सर यह भी होता है कि हम संवाद के लिए एकजुट होते हैं लेकिन सिर्फ बोलते हैं, सुनते नहीं। हमारी सोच और दृष्टि पर मान्यता और स्तर की ऐसी धूल जमी रहती है कि हम मिल-बैठ कर भी उसको साफ नहीं कर पाते। संवाद हो, तो सफाई हो। संवाद ही नहीं हो पाता। होता भी है तो वह बहरों का संवाद जैसा दिखता है। इसकी कोई एक वजह नहीं होगी। फिर भी मेरे मन में यह सवाल उठता है, आप के मन में भी उठता होगा कि क्या इसकी कोई खास वजह है?
मैं खुद को भारत के करोड़ों अनपढ़, बेजुबान और मौन लोगों की कतार में खड़ा कर इस सवाल के बारे में सोचता हूं, तो एक खास जवाब मिलता है। वह है - हीनताबोध! कि हम गुलाम थे। कि चंद सैकड़ा लोग हम पर ढाई सौ साल राज कर गये। कि हम कमजोर थे, इसलिए उन्होंने हमें - भारत को - अपने अधीन किया। कि वे हमें लूट गये। इसके खिलाफ हम लड़े और आजाद भी हुए, लेकिन इस क्रम में हम स्वाधीन से ‘आत्महीन’ हुए। क्या हमारा अपनी संस्कृति के बारे में बहरों की तरह संवाद करना उसी आत्महीनता की सहज मानवीय प्रतिक्रिया है?
मुझे लगता है कि हां, यह एक खास वजह हो सकती है। हालांकि जब कभी मैं भारत के पढ़े-लिखे, बौद्धिकों और मुखर लोगों की जमातों में बैठकर सोचता हूं, तो मुझे हीनताबोध का दूसरा सिरा भी नजर आता है। उन जमातों में होने वाली मुखर बहस इस ‘गर्वबोध’ को रेखांकित करती है कि यहां जो था, वह सब अच्छा था! कि कोई हमें लूटने आया, इसका मायने ही है कि हम सम्पन्न थे। यह मुझे पेंडुलम की तरह डोलते ‘हीनताबोध’ के दूसरे सिरे की अभिव्यक्ति लगती है। मैं नहीं जानता कि इसमें कौन कितना सही है।
मैं फिलहाल सही-गलत का सवाल उठा भी नहीं रहा। मैं यह रेखांकित करने की कोशिश कर रहा हूं कि संस्कृति से जुड़ा हर सवाल ‘स्व’ को परिभाषित करने, व्याख्यायित करने से शुरू होता है और आजकल ‘स्व’ की नयी परिभाषाएं गढ़ने की कोशिशें चल रही हैं। वैश्वीकरण और विश्व बैंक के संदर्भ में आज देश में संस्कृति को परखने के क्रम में स्व की नयी तलाश की यह कोशिश कुछ ज्यादा स्पष्ट, तेज और आक्रामक नजर आती है। इस सिलिसिले में ‘भारतीयता’ यानी ‘भारतीय संस्कृति’ की पहचान करने के बहाने हिंदुत्व के स्व को परिभाषित करने का प्रयास नयी बुलंदियों पर है ही। 6 दिसम्बर, 1992 के बाद मुस्लिम ‘स्व’ की भी नयी परिभाषाएं हो रही हैं। अगर विषयांतर न माना जाये तो यहीं इतना कहना उचित होगा कि जिनको हम परम्परा से ‘इहलोकवादी’ कहते हैं, उनके चिंतन में कुछ निराशा दिखती है। वे पहले कहते थे कि सार्वजनिक जीवन में धर्म संबंधी मामलों को नहीं लाना चाहिए। कि धर्मनिरपेक्षता का सही अर्थ यही है। वे ही अब कहते हैं कि इसमें ‘धर्मनिरपेक्षता’ हार गयी है। दूसरी ओर जो धार्मिक मुसलमान हैं, उनको यह बोध हुआ कि धर्मनिरपेक्ष सार्वजनिक जीवन में वे अच्छे मुसलमान नहीं साबित हुए। उनमें यह सोच मजबूत हुई है कि वे अपनी धार्मिक पहचान को ज्यादा सही व सच्चा बनाने की कोशिशि करें। इसके लिए राजनीति से खुद को अलग करें क्योंकि यह राजनीति अंध सत्तावाद का खेल है।
बदलाव और उत्थान-पतन के दौर में ‘स्व’ को परिभाषित करने - अपनी जड़ों की पहचान करने - की अलग-अलग या विभिन्न कोशिशों को समझने-परखने के लिए भारतीय परिदृश्य के इस पहलू की याद दिलाना भी प्रासंगिक होगा कि हिंदुस्तान से बाहर जाने वाला ‘बुद्धिज्म’ हो या ‘जैनिज्म’ या फिर बाहर से आने वाला ‘इस्लाम’ या ‘क्रिश्चियानिटी’ (इस्लाम और क्रिश्चिायनिटी जहां पैदा हुईं वहां से ज्यादा हिंदुस्तान में व्यवहार - प्रैक्टिस - में हैं), वे सब हिंदुस्तान में आध्यात्मिक स्तर पर ज्यादा समृद्ध हैं और उनमें ज्यादा बहुवाद (प्लूरैलिटी) है। इसके रू-ब-रू हिन्दूवादी पहचान के कुछ लोग अभी भी भयानक आत्महीनता के शिकंजे में हैं और हिंदुओं, खासकर ऊंची जाति के हिंदुओं में आत्महीनता का बोध जगाये रखने के लिए एक संगठित जमात बरसों से लगातार कवायद कर रही है। वह थकती है और थक रही है, लेकिन उसे वह अपनी एकांगी सोच की लकीर पीटने का परिणाम नहीं मानती। वह अपनी कवायद को बहुवादी भारतीय संस्कृति में बाहरी खतरे से हिंदुत्व की ‘एकात्मवादी’ पहचान को बचाने का एकमात्र और अनिवार्य साधन माने बैठी है।
खैर, फिलहाल मैं अपनी दृष्टि संस्कृति की पहचान और ‘स्व’ की परिभाषा से जुड़े सवालों पर केंद्रित रखना चाहता हूं। भारतीय संस्कृति क्या है, इस सवाल का निजी स्तर पर जवाब तलाशने के लिए किसी भी व्यक्ति को इस सवाल से रू-ब-रू होना होगा कि मैं क्या हूं? सामाजिक एवं मानवीय संदर्भों में यह सवाल कई अलग-अलग रूपों में प्रगट होता है। समाजिक स्तर पर अपने होने को परिभाषित करने के लिए हमें अपने हिंदू या मुसलमान होने, अगड़ा या पिछड़ा या दलित होने, गरीब या सम्पन्न या मध्यम वर्ग की सीमाओं में बंधे होने, यहां तक कि अंग्रेजी समझने या न समझने से लेकर अंग्रेजी में सोचने की अंतर्राष्ट्रीय अनिवार्यता और हिंदी या अपनी मातृभाषा में ही सोचने की देशज मजबूरी से जुड़े कई सवालों से टकराना पड़ता है। अगर हम पूरी मानवता या समष्टि के संदर्भ में अपने होने की सार्थकता पर विचार करें तो सवाल उठेगा जीवन क्या है? सुख-शांति (पीसफुलनेस) क्या है? आनंद क्या है? जीवन की अर्थमयता क्या है? जन्म और मृत्यु क्या है? मोक्ष क्या है?
ये तमाम जटिल सवाल हैं। शाश्वत सवाल हैं। इन सवालों से हम-आप कभी न कभी रू-ब-रू होते ही हैं। इन सवालों का मूल आशय यह है कि जीवन की सच्चाई को पाना-समझना है तो जीवन को समग्रता में लो। समग्रता में कैसे लें, इस पर जब कभी विचार करता हूं, तो लगता है कि भारत का अपढ़ से अपढ़ भी ऐसी कई सवालों से परिचित है। वह धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ईश्वर जैसी बातों से परिचित है। यह आम भारतीय की छवि है, भले ही कोई अनीश्वरवादी है या बौद्ध है। ‘स्व’ को परिभाषित करने की निजी या सामूहिक कोशिश में इस तथ्य को भूलना नहीं चाहिए।
मोटे तौर पर संस्कृति के तीन आयाम मुझे दिखते हैं - परिवार, समाज और राज्य। उनके आपसी शक्ति-सम्बंध - पावर रिलेशन्स - क्या हैं, उनको कैसे संपादित किया जाता है, यह समाज द्वारा रचे गये और मान्य नियम-कायदों से मालूम होता है। यह संस्कृति का महत्वपूर्ण पहलू है। इसे संगठन संस्कृति कहिए या फिर पावर डायमेंशन आफ कल्चर। संस्कृति का यह पक्ष मजबूत हो तो फिर वैयक्तिक या सामाजिक स्तर पर होने वाले परिवर्त्तन या की जाने वाली परिभाषाओं से संस्कृति के मूल प्रवाह में कोई फर्क नहीं आता। अब जैसे, हमारे यहां जो लोक-धर्म का चिंतन विद्यमान है, इसमें मौत को बहुत प्रतिष्ठित - डिग्नीफाइड - स्थान हासिल है। शायद बाहर के देशों में भी ऐसा ही हो। भारत में मौत को जीवन का ही सहज-सामान्य हिस्सा माना जाता है। इसके लिए बहुत तरह के चिंतन हैं। कई तरह के कर्मकांड हैं। ये चिंतन और कर्मकांड बताते हैं कि व्यक्ति अपने जीवन से पहले और मौत के बाद के समय से अपना जुड़ाव किस मुहावरे में व्यक्त करता है? यह भी संस्कृति का बहुत बड़ा हिस्सा है। यह संस्कृति के सत्तामूलक आयाम को निरंतर प्रभावित करता रहता है। कल्चर के पावर डायमेंशन को मौत का व्यक्ति-चिंतन सबल, लेकिन लचीला बने रहने को प्रेरित करता रहता है। साथ ही उस पावर डायमेंशन से संस्कृति के मूल प्रवाह को बाधित होने, सीमित होने या सूखने से बचाता भी है।
यहीं मैं जोर देकर कहना चाहता हूं कि अर्थपूर्ण ढंग से ज़िंदा रहने के लिए आदमी सिर्फ अपने समय में नहीं जीता। वह रोजमर्रा जिंदगी में क्या करता है? कैसा व्यवहार करता है? वह किस तौर-तरीके को वांछनीय मानता है? किसको अच्छा मानता है और किसको करणीय मानता है? - ये सारी बातें आज के समय के आकलन, अतीत के अनुभव और भविष्य के सपनों - तीनों के द्वंद्वात्मक जुड़ाव से तय होती हैं। भारत के संदर्भ यह कहा जा सकता है कि भविष्य और अतीत के बारे में - मौत के बाद के भविष्य और जन्म से पहले के अतीत तथा उनको जोड़ने वाली वृहद शक्तियों (लार्जर फोर्सेस) के बारे में - कई तरह के दर्शन-चिंतन मौजूद हैं। वे फकीरों एवं अन्य माध्यमों से लोक तक पहुंचे और परम्पराओं के रूप में ज़िंदा हैं। शायद इसीलिए हमारी - भारत की - अस्मिता में एक धारावाहिकता है। यूरोप में हुआ यह कि एक लहर आयी तो सब मुसलमान हो गये, दूसरी लहर चली तो सब ईसाई (क्रिश्चियन) हो गये और तीसरी आयी तो सब ‘उपभोगवादी’ हो गये। भारत में संस्कृति गंगा की तरह अविरल बहती नदी रही है, जिसके किनारे पंथ और वादों की लहरें आती रही हैं, लेकिन उससे नदी की मूल प्रकृति में फर्क नही आता।
संस्कृति में निहित सत्ता-शक्ति को परखें तो भारतीय संदर्भ में उसके तीन रूप दिखते हैं। तीनों की अलग-अलग पहचान, लेकिन परम्परा में तीनों एक दूसरे से जुड़े हुए - एक दूसरे को नियंत्रित-संतुलित करने के लिए। एक भौतिक शक्ति या सत्ता, दूसरी लौकिक सत्ता और तीसरी नैतिक सत्ता।
भौतिक सत्ता तो सामान्य जन के जीवनचक्र में निहित स्थैतिक और गत्यात्मक स्थिति की अभिव्यक्ति है। आप क्या कमाते हैं? कैसे कमाते हैं? क्या खाते हैं? भोजन कैसे बनाते हैं? मकान या घर कैसे बनाते हैं? कलाएं क्या हैं? लोकरंजन की चीजें क्या हैं? - ऐसे सवाल भौतिक सत्ता के स्वरूप का निर्धारण करते हैं। यह सत्ता परिवार और समाज की अवधारणा और विकास पर निर्भर है।
दूसरी यानी लौकिक सत्ता राज्य और शासन के अधिकार और दायित्व के दर्शन-चिंतन से निकलती है। राज करनेवाला राजा होता है, लेकिन उसे राज करने की शक्ति कहां से प्राप्त होती है? उस शक्ति की मर्यादा या सीमा क्या और कहां है?
और, तीसरी सत्ता है नैतिक सत्ता। यह त्याग से पैदा होती है और भौतिक एवं लौकिक सत्ता पर अंकुश ड़ालती है। गरीबी भौतिक सत्ता की कमजोरी हो सकती है, लेकिन स्वैच्छिक गरीबी नैतिक सत्ता का असली बल साबित हो सकती है। कुर्सी यानी प्रजा की सम्पत्ति व तलवार की ताकत राजा की सत्ता का प्रतिपादन करती है, लेकिन राजा उपभोग एवं उपयोग में उससे ऊपर या परे स्थितप्रज्ञ की भूमिका में हो तो यह उसकी नैतिक सत्ता के ‘विदेह बल’ का प्रमाण बनती है।
इन सब दार्शनिक अवधारणाओं और परम्परा की धारावाहिकता में दिखते प्रतिमानों (मॉडल) के बावजूद इतिहास का कड़ुवा सच यह है कि हम गुलाम हुए - देश गुलाम रहा। इस सच को पचाने या इससे टकराने की कोशिश में अक्सर बहस यहां आकर अटक जाती है कि हमारी संस्कृति पर बाहर का हमला कितना बड़ा और जबर्दस्त था। कि हम किस तरह उसके शिकार बन गये! आजकल इस तरह के बहस-विमर्श में अक्सर एक कारुणिक दृश्य उपस्थित हो जाता है। विमर्श में शामिल लोग उस लोक-कथा के पंछियों जैसे लगने लगते हैं, जिसमें पंछी यह गाते हुए शिकारी के जाल में फंसते जाते हैं - ‘शिकारी आयेगा, जाल बिछायेगा, दाना डालेगा, लोभ में फंसना नहीं।’ यानी पहले हम बाहरी हमलावर संस्कृति के निरीह शिकार हुए और अब उसके मूक उपभोक्ता बन गये!
इस कारुणिक दृश्य पर भी ‘विभाजित चेतना’ (डाइकोटमाइजेशन ऑफ कांशसनेस) और ‘औपनिवेशक मानस’ से छुटकारा पाने के संदर्भ में आजकल तीखी बहस होती है, लेकिन उसमें हमारे - हमारी संस्कृति - के अंदर की थकन और कमजोरी के बारे में चर्चा कम होती है। इसकी चर्चा नहीं होती कि जो सांस्कृतिक एवं दार्शनिक अवधारणाएं किसी समय में हमारी ताकत के स्रोत रहीं, वही हमारी कमजोरी और गुलामी का कारण क्यों और कैसे बन गयीं? “वसुधैव कुटुम्बकम” की हमारी अवधारणा ‘कोऊ नृप होवे हमें का हानि’ के चिंतन में ढल गयी - उधर रियासत पर कब्जा के लिए शासकों के बीच युद्ध होते थे और बगल में प्रजा खेती के लिए जमीन जोतती रही! हमारे नैतिक बल ने भौतिक-लौकिक सत्ता पर नियंत्रण करने की बजाय उसका निषेध किया! आंतरिक मुक्ति के चिंतन ने बाहरी गुलामी को स्वीकार कर लिया!
हमारे सांस्कृतिक चिंतन ने समाज में श्रम विभाजन, परिवार, कुल, गोत्र आदि व्यवस्थाओं का प्रतिपादन किया, व्यक्ति और समाज के बीच के संबंधों को निरूपित करने के लिए प्रत्येक व्यवस्था के घेरे को इतना मजबूत और सम्पूर्ण बनाया - व्यक्ति को ऐसा सहारा दिया और उसके अकेलेपन को खत्म करने का ऐसा इंतजाम किया - कि उसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वयत्तता ही खत्म हो गयी! क्या यह हमारी बरसों की गुलामी या गुलाम मानसिकता की ‘जमीन’ नहीं है? हमने अंग्रेजों की गुलामी आसानी से स्वीकार कर ली, उसकी एक वजह यह भी नहीं है? कहने का आशय यह कि बाहर की गुलामी की खास वजह भीतर की थकन और सड़न भी हो सकती है, इस पर भी सोचना चाहिए।