आज हम आजाद हैं। तो क्या हम अपनी ‘गुलाम’ मानसिकता से मुक्त हैं? इस सवाल पर विमर्श करने के लिए मैं एक और बात रखना चाहता हूं। वह यह कि जैसे व्यक्ति पैदा होता है, थकता है, जीर्ण-शीर्ण होता है, वैसे ही समाज संचालन की अवधारणाएं भी पुरानी होती हैं, थकती हैं और कभी-कभी सड़ने भी लगती हैं। अब जैसे, आदमी और औरत के रिश्तों में खुलापन और मर्यादाओं की तेजी से बदलती मान्यताओं को ग्रहण करने का सवाल हो या उपभोगवाद के प्रति नित बदलते नजरिये का सवाल, यह तो दिखता ही है कि हमारी अवधारणाएं मूल रूप में बहुत खराब न होने के बावजूद थकी-थकी नजर आती हैं। ‘ग्लोबलाइजेशन’ के संदर्भ में तो आजकल राष्ट्र-राज्य की वह अवधारणा भी सवालों से घिर गयी है, जो अब तक किसी भी व्यक्ति को राष्ट्रीय पहचान देने का दावा करती रही है, किसी भी व्यक्ति के लिए देश के भूगोल व राजनीतिक धारा से बंधी ‘राष्ट्रीयता’ के घेरे में अपनी सांस्कृतिक जड़ों को पहचानने और पनपने का ठोस आधार बनती रही है और उसे पूर्णतः सुरक्षित होने का बोध कराती रही है।
समय और इतिहास की दृष्टि से राष्ट्र-राज्य की यह अवधारणा पुरानी नहीं है। भारतीय समाज के ‘अनेकता में एकता’ के सांस्कृतिक चिंतन के बीच राष्ट्र-राज्य की अवधारणा राजनीतिक व्यवस्था की शक्ल पाकर भी लगातार बहस के दायरे में रही है। इसकी वजह से यह तय दिखता रहा कि ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के हमारे पुरातन व सनातन चिंतन को यह गलत नहीं ठहरा सकती। राष्ट्र-राज्य की मान्य व्यवस्था के आईने में ‘अच्छा भारतीय’ होने के ‘व्यवहार’ और विश्वमानव बनने की ‘सोच’ में कोई जमीन-आसमान के बीच का फर्क या फासला नहीं, बल्कि दोनों के बीच का नैसर्गिक व स्वयंसिद्ध संबंध नजर आता था। राष्ट्र-राज्य की वह अवधारणा आज सवालों से घिर गयी है। ग्लोबलाइजेशन (वैश्वीकरण!) का आधुनिक चिंतन राष्ट्र-राज्य की उस अवधारणा को आज बेमानी ठहराने लगा है। इतना बेमानी की गलत लगने लगे!
‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का जो चिंतन स्वतंत्रता की भारतीय अवधारणा को मानव मुक्ति के सर्वोत्तम दर्शन के रूप में प्रस्तुत करता रहा है, वह भारत को गुलाम होने से नही बचा सका, इसलिए अब वह बेमानी होने का दंश झेल रहा है और ‘ग्लोबलाइजेशन’ का आधुनिक चिंतन राष्ट्रवाद की सीमाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाते हुए गुलामी के प्रति आकर्षण पैदा कर रहा है! क्या आपको ऐसा नहीं लगता?
बहरहाल, मुझे लगता है कि इस युग में जो भी संघर्ष चल रहा है, वह प्रतिष्ठा का संघर्ष है। ‘आत्मबोध’ की लड़ाई है। इस लड़ाई में अपनी वैयक्तिक और सामूहिक भूमिका के लिए बाहरी दबाव, खतरा या हमला को जानना-समझना जरूरी है। प्रतिद्वन्दी शक्तियां और उनके स्रोत की सीमाएं कुछ स्पष्ट हैं और ज्यादा अस्पष्ट हैं। इसकी वजह से वे विकराल नजर आती हैं। फिर भी ग्लोबलाइजेशन की अवधारणा, अमरीका एवं अन्य विकसित देशों का रवैया, विश्व बैंक की रणनीति आदि मुद्दों पर सामूहिक विमर्श, प्रतिद्वंद्वी के हमले की रफ्तार को पहचानने में मदद कर सकता है। लेकिन प्रतिष्ठा की लड़ाई में सफलता के लिए सामूहिक आत्म निरीक्षण भी जरूरी है। बाहरी खतरों के सही आकलन के लिए और उससे ज्यादा अपनी कमजोरियों व खामियों सहित अपने शक्ति-स्रोतों की वास्तविक पहचान के लिए। आत्मनिरीक्षण के बगैर हम न्यायिक (जजमेंटल) नहीं हो सकते और कोई निर्णय भी नहीं कर सकेंगे। कोई संकट कितना भी बड़ा हो, ज़िंदा समाज, आत्मनिरीक्षण का साहस नहीं खोता। यह साहस उसमें नया आत्मविश्वास पैदा करता है, जो आपत्धर्म के नाम पर अनैतिकता को उचित (जस्टीफाई) नहीं ठहराता। जो समाज हर बदलाव के साथ परम्परा में जीता है, जीना चाहता है, उसके लिए परम्परा सिर्फ विरासत नहीं होती। विरासत का पुनर्सृजन होती है। वही परम्परा जिंदा या प्रवहमान रहती है, जो प्रयोगधर्मी है - जो विज्ञान की निरंतर विकसित चेतना से जुड़ी होती है। किसी बदलाव की स्वीकृति या निषेध के लिए नयी कसौटियों के गढ़ने और संस्कृति के पुनर्नवीकरण का मूल आधार भी यही है।