आदिवासी समाज सदियों से सर्वानुमति पर टिके स्वशासन पर चलता रहा है, जबकि देश चल रहा है संसदीय चुनाव व बहुमत के आधार पर टिके लोकतंत्र पर.. मोटामोटी इस फर्क का मतलब यह हुआ कि आदिवासी समाज सर्वानुमति से चलता है. किसी भी मुद्दे पर आमराय बना कर, भले इस आम राय को बनाने में समय लगे. इसलिए वह समाज पक्ष और विपक्ष में विभाजित भी नहीं.
दूसरी तरफ, आजादी के बाद हमने ब्रिटेन के तर्ज पर जिस संसदीय लोकतंत्र को अपनाया, उसमें आम राय बनाने की कोशिश नहीं होती, मतदान के द्वारा बहुमत का चुनाव होता है और सत्ता उसे सौंप दी जाती है. तुर्रा यह कि बहुमत को हासिल करने के लिए भी 51 फीसदी मत की जरूरत नहीं. यह बहुमत विपक्ष के विभाजित होने की स्थिति में महज एक तिहाई मतों या उससे भी कम से हासिल हो सकता है. मसलन, प्रचंड बहुमत से सत्ता में आने का दावा करने वाली मोदी सरकार महज 31 फीसदी मत प्राप्त कर सत्ता पर काबिज हो गई है.
एक बात और समझने की है. आदिवासी समाज में वर्ग भेद, वर्ण भेद, संस्कृतियों का भेद बहुत कम रहा है. जबकि गैर आदिवासी समाज वर्ण भेद, जाति भेद, वर्ग भेद, लिंग भेद और संस्कृति के भेदों से आक्रांत है. वैसे, यहां यह भी एक सामान्य तथ्य है कि अपने देश में जाति और वर्ग मिल कर एक हो गये हैं. उच्च जाति ही उच्चवर्ग है, मध्य जातियां ही मध्यम वर्ग और निम्नजाति निम्न वर्ग भी है. परिणाम यह कि यहां जाति और वर्ग आधारित राजनीतिक दलों का अस्तित्व है जो अपने वर्गीय हितों के अनुरुप काम करती हैं. कुछ उच्चवर्ग और जाति के हितों के लिए काम करती हैं, कुछ मध्यवर्गीय हितों के लिए और कुछ निम्नवर्ग के लिए. मसलन, कांग्रेस और भाजपा यदि उच्च वर्ग और जाति की पार्टी है तो, जनता दल, सपा और उसके विभिन्न रूप- दल मध्यमवर्ग और जाति की पार्टी है, जबकि बसपा, भाकपा, माकपा आदि निम्न वर्ग के हितों के लिए सिद्धांत रूप में काम करती है.
इस परिप्रेक्ष्य में आदिवासी समाज के हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी हम किसे कहें? औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ संघर्ष के क्रम में कुछ क्षेत्रिये आदिवासी पार्टियों का जन्म हुआ. मसलन, झारखंड पार्टी, झारखंड मुक्ति मोर्चा आदि. झारखंड अलग राज्य जैसे लोकप्रिय और प्रबल आंदोलनों की सवारी कर कुछ चुनावों में इन दलों ने थोड़ी बहुत सफलता पायी, लेकिन कुल मिला कर राष्ट्रीय दल ही आदिवासी मतों की बंदरबांट करती रही. कभी कांग्रेस उन पर दावा करती है, कभी भाजपा.
हुआ यह भी कि अधिकतर प्रखर और लोकप्रिय आदिवासी नेता अपने राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए इन्हीं राष्ट्रीय दलों की शरण में जाते रहे. और एक बार किसी राष्ट्रीय पार्टी में जाते ही वे उन जैसे ही बन जाते हैं. वे अपनी राजनीति के लिए आदिवासी वोटरों पर निर्भर तो करते हैं, लेकिन वे टूल बनते हैं उस पार्टी का जिसमें वे शामिल होते हैं. चाहे वे बागुन सुंबरई हों या कड़िया मुंडा. बाबूलाल भी जब तक भाजपा में रहे, भाजपा की नीतियों पर ही चलते रहे. स्व.जयपाल सिंह और शिबू सोरेन दो प्रमुख ऐसे राजनेता रहे हैं जिन्होंने राष्ट्रीय दलों को चुनौती दी. हालांकि जयपाल सिंह अपने राजनीतिक जीवन के अंतिम दौर में कांग्रेस में शामिल हो गये. और शिबू सोरेन को अपनी राजनीति के लिए राष्ट्रीय दलों से तालमेल करना पड़ता है. और इस तालमेल के लिए उन्हें कई बार आदिवासी हितों से समझौता करना पड़ता है.
लेकिन धीरे-धीरे आदिवासी मुद्दे इस कदर प्रखर और राष्ट्रीय मुद्दों से अलग हो चुके हैं कि उसे एक सुस्पष्ट दिशा और दृष्टि वाले राजनीतिक दल की दरकार है. जल, जंगल, जमीन का मुद्दा, जो आदिवासियों के वजूद का सवाल बन गया है, किसी भी राजनीतिक पार्टी का एजंडा नहीं. वे बस आदिवासियों को तथाकथित मुख्य धारा में आने का आह्वान करती रहती हैं.
तो, आदिवासी समाज क्या करे ?
हम इस सवाल का जवाब ढ़ूढने की कोशिश करते हैं, आप भी करें.