नगरपालिका चुनाव में भाजपा की जीत से कुछ लोग बेहद निराश हैं. उनका आक्रोश फूट पड़ा है. कुछ को लगता है आदिवासी ‘बेवकूफ’ है. कुछ को वह ‘बकलोल’ लगता है. दरअसल, यह गहरी निराशा से उत्पन्न खुद के प्रति ही निकाला गया क्रोध है. हताशा है. आदिवासी न तो बेवकूफ है और न बकलोल. वह संसदीय राजनीति और चुनाव प्रणाली की विडंबनाओं का शिकार है. नगरपालिका चुनाव में हार से तो आपको तनिक भी आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए, क्योंकि शहर अब बहिरागतों के सघन केंद्र है. रांची, टाटा, बोकारो, हजारीबाग, धनबाद जैसे शहरों में आदिवासी आबादी रह कितनी गई है? और थोड़ी बहुत आदिवासी आबादी है भी तो उनमें से एक बड़ा हिस्सा भाजपा समर्थक. फिर वह भाजपा के विरोध में खड़ी पार्टियों के प्रत्याशी कैसे जीतते?
इसके अलावा होता यह भी है कि भाजपा यदि किसी आदिवासी को प्रत्याशी बनाती है तो वह अन्य पार्टी के आदिवासी प्रत्याशी पर भारी पड़ता है. क्योंकि भाजपा के आदिवासी प्रत्याशी को तो भाजपा का परंपरागत वोट, यानी, बहिरागतों का वोट भी प्राप्त हो जाता है, जबकि उसके खिलाफ खड़े आदिवासी प्रत्याशी को सिर्फ अपने समुदाय का वोट मिलता है. और वह चुनाव हार जाता है. आदिवासीबहुल इलाकों, मसलन, दुमका में भी भाजपा की जीत को आप इस तरीके से विश्लेषित कर सकते हैं.
मूल संकट यह कि आदिवासी आबादी अपने ही घर में अल्पसंख्यक बनती जा रही है. यह मामला सिर्फ झारखंड का नहीं, पूर्वोत्तर के तमाम राज्यों का है. बृहद झारखंड आदिवासियों का अपना इलाका था. लेकिन अंग्रेजों के जमाने में ही वे सिमट 55 से 60 फीसदी हो गये. और अब वे झारखंड में महज 27 फीसदी हैं. उत्तरी छोटानागपुर से वे उजड़ चुके हैं. संथाल परगना के अधिकतर जिलों- गोड्डा, पाकुड़ आदि जिलों में बहिरागत आबादी का अनुपात तेजी से बढ़ता जा रहा है. दक्षिणी छोटानागपुर में भी शहरी क्षेत्र से उनका सफाया हो चुका है. अब लोकतांत्रिक व्यवस्था जो बहुमत के आधार पर चलती है, में निरंतर उसकी आबादी का अनुपात कम होता जा रहा है.
जो है, उसमें भी विभाजन होता जा रहा है. हम सब आदिवासी एकता की बात करते रहते हैं. और यह स्वीकार नहीं करना चाहते कि आदिवासी समाज का एक तबका तेजी से भाजपा समर्थक होता जा रहा है. उसे भाजपा की नीतियां भांती हैं. उन्हें ‘हिंदू’ होने में गर्व का अनुभव होता है. आदिवासी समाज वैसे भी हमेशा से बंटा रहा है. उड़ाव समुदाय के अपने नेता हैं, मुंडा समुदाय के अपने नेता. शिबू सबसे लोकप्रिय नेता, लेकिन उनका प्रभाव संथाल समुदाय में ही. और वहां भी भाजपा के संथाल नेता उभर रहे हैं, बाबूलाल की एक अलग दुनियां है. जबकि बहिरगत वोट, झारखंड का गैरआदिवासी वोट भाजपा के पीछे मजबूती से गोलबंद हो चुका है.
वैसे, में चुनावी जंग में जीत आदिवासियों के लिए बहुत कठिन. रास्ता यह कि हम जाति केंद्रीत राजनीति की जगह मुद्दा केंद्रीत राजनीति करें. जल, जंगल, जमीन पर आम जन के अधिकार की लड़ाई को तीव्र करें. ‘आदिवासी एकता’ के साथ ‘वंचित जमातों की एकता’ का नारा बुलंद करें. तो थोड़ी उम्मीद है, वरना हर चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ेगा.