कुछ आदिवासी युवाओं की समझ है कि वे आदिवासी को ही वोट देंगे, भले ही वह किसी भी दल से खड़ा हो. लेकिन संसदीय राजनीति में हमे यह समझ बनाने की जरूरत है कि आदिवासी प्रत्याशी किस पार्टी के टिकट पर खड़ा है. क्योंकि भाजपा के भगवा रंग में रंगा प्रत्याशी आदिवासियों के काम का नहीं. वह यदि जीता तो भाजपा की कारपोरेट समर्थक नीतियों का ही समर्थन करेगा. उदाहरण के लिए बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा ने मुख्यमंत्री के रूप में उन्हीं आर्थिक नीतियों का समर्थन किया जो भाजपा की आर्थिक नीति है. एमओयू और ‘हाथी’ उड़ाने का काम तो रघुवर दास भी कर रहे हैं, लेकिन बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा के जमाने में भी बिना ग्राम सभा की अनुमति लिए सैकड़ों एमओयू हुए. सीएनटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ कोई आदिवासी भाजपा विधायक सामने नहीं आया. इसलिए जरूरत यह है कि हमारे मुद्दे साफ हों और उन पर हम दृढ़ता से खड़े रहें.
अब एक दूसरा उदाहरण लेते हैं. अभी दो विधानसभा सीटों- सिल्ली और गोमिया - के लिए उपचुनाव होने हैं. दोनों सीटों पर झामुमो ने कुड़मी प्रत्याशी खड़े किये हैं. अब कम ही संख्या में इन दोनों इलाकों में बसे आदिवासी यह तय कर लें कि हम कुड़मी प्रत्याशी को वोट नहीं देंगे तो झामुमो के जीत का दावा कमजोर होगा. और भाजपा की जीत का रास्ता खुलेगा. यानी, प्रत्याशी हमारी जात या समुदाय का है या नहीं, उससे अधिक अहमियत संसदीय राजनीति में पार्टी रखती है. इसलिए हमारे सामने यह स्पष्ट होना चाहिए कि हम किस पार्टी की सरकार चाहते हैं. कौन सी पार्टी जनता के मुद्दों के साथ है.
हर समस्या का निराकरण सिर्फ आदिवासी एकता का नारा लगाने से नहीं होगा. इसे हम एक अन्य उदाहरण से समझ सकते हैं. आदिवासी और दलितों के लिए आरक्षित रिजर्व सीटों से आदिवासी या दलित ही प्रत्याशी बनेगा. लेकिन एक सीट से अलग-अलग पार्टी आदिवासी प्रत्याशी उतारेगी और यह दुविधा खड़ी हो जायेगी कि वोटर भाजपा के आदिवासी प्रत्याशी को वोट दे या झामुमो के आदिवासी प्रत्याशी को. उस समय यह विचार करना ही होगा कि झामुमो या भाजपा में आदिवासी जनता के लिए हितकारी कौन है. कुछ लोगों का जवाब यह हो सकता है कि सब पार्टी एक जैसी. तो दो विकल्प है- आप वोट मत दीजिये या फिर तुलनात्म दृष्टि से यह विचार कीजिये कि झारखंडी जनता के करीब कौन है.
जरूरी बात यह है भी कि हम जिस पार्टी को वोट दें, उससे यह जरूर पूछें कि पत्थरगड़ी पर आपका रूख क्या है. नई औद्योगिक नीति और उदारीकरण के बारे में आप क्या राय रखते हैं? जल, जंगल, जमीन पर जनता के अधिकार को आप मानते हैं या नहीं? पेसा कानून का आप सम्मान करेंगे या नहीं? यदि झामुमो का भी प्रत्याशी इन मुद्दों पर अपना रूख स्पष्ट न करे तो वह हमारे काम का नहीं. इस बात को जनता को गोलबंद होकर कहना होगा. प्रत्याशी पर दबाव बनाना होगा कि आप हमारे मुद्दों के साथ रहें, वरना आपको हम वोट नहीं देंगे.
जाति और समुदाय के नेता यह मान कर चलते हैं कि उनकी जात या समुदाय का वोट उन्हें ही मिलेगा. वे वोटरों को अपना बंधुआ समझते हैं. इस वजह से वे मद्दों की राजनीति से दूर रह कर भी चुनाव में अपने समुदाय का वोट बटोर ले जाते हैं. और जनता के मुद्दों को भूल जाते हैं. जनता इसी बात से मगन रहती है कि उनके समुदाय का नेता राज भोग रहा है. यह बात सिर्फ आदिवासी समाज के लिए नहीं. इस भ्रम का शिकार हर जाति और समुदाय के वोटर हैं.
संसदीय राजनीति का इस्तेमाल यदि हम सावधानी से करें, तो यह आज भी शासन प्रणाली का सबसे बेहतर विकल्प है, लेकिन सतत सावधान न रहें तो इसी रास्ते तानाशाही भी आ सकती है.