यह जिद दोनों तरफ से है. संघ और उसके उन्मादी समर्थकों की जिद तो फिर भी समझ में आती है. लेकिन किसी भी तर्क से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) छात्र संघ के दफ्तर में लगी मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर को लगाये रहने की जिद समझ से परे है. यह जाने-अनजाने संघ के हाथों में खेलना है. संघ तो ऐसे बहाने ढूंढता ही है, ढूंढता ही रहेगा, जिससे यूपी और पूरे देश में हिंदू-मुस्लिम तनाव/टकराव का माहौल बना रहे. अगले आम चुनाव तक. इसलिए कि 2019 का आम चुनाव जीतने के लिए इससे आसान नुस्खा उसके पास अब नहीं बचा है. और इसलिए भी कि ‘हिंदू राष्ट्र’ का लक्ष्य हासिल करने हेतु देश के हिंदुओं का खून खौलाने के लिए भी उसे ऐसे उपायों की जरूरत रहती है.
यह कोई बहुत मजबूत तर्क नहीं है कि जिन्ना की तस्वीर वहां 1938 से लगी हुई है, इसलिए कि उन्हें एएमयू छात्र संघ की आजीवन सदस्यता दी गयी थी. जैसे गांधी, आम्बेडकर, नेहरू और सीवी रमन को भी दी गयी थी. कि वहां गांधी की तसवीर भी लगी है. जिन्ना और अन्य भारतीय नेताओं की कोई तुलना नहीं की जा सकती.
मुख्यमंत्री योगी द्वारा गठित, पालित और पोषित ‘हिंदू युवा वाहिनी’ के लोगों ने इसे जिस आक्रामक ढंग से मुद्दा बनाया और पूरे प्रकरण में प्रदेश सरकार की जो भूमिका है, उससे स्पष्ट है कि यह सब एक योजना के तहत हुआ है. निश्चय ही इसके पीछे संघ और उसके सहमाना संघठनों का हाथ है. जिन्ना की तस्वीर हटाने की मांग करनेवालों की मंशा पर आप सवाल कर सकते हैं, लेकिन तस्वीर को नहीं हटाने की जिद के पीछे भी कोई सटीक तर्क समझ से बाहर है. अभी यह बताने का भी कोई तुक नहीं है कि कभी जिन्ना भी प्रगतिशील, सेकुलर और राष्ट्रवादी थे. जिन भी कारणों से भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति उनका विश्वास खत्म हो गया और वे मुसलामानों के लिए अलग देश की मांग पर अड़ गये, वे हम भारतीयों के लिए उसी तरह आदर के पात्र नहीं रहे, जैसे पहले थे. तब वे साम्पदायिक हो गये और देश के विभाजन के एक बड़े कारक भी बने. हालांकि संघ की हरकतें लगातार जिन्ना की उस आशंका को सच साबित करती रही हैं कि एक हिंदू बहुल देश में और ‘बहुमत’ पर आधारित लोकतंत्र में अल्पसंख्यकों, खास कर मुसलमानों का हित/भविष्य सुरक्षित नहीं रह सकता. ‘हिंदू राष्ट्र’ की बात पर लगातार जोर देना भी प्रकारांतर से भारत विभाजन का औचित्य ही सिद्ध करता है. फिर भी यदि हम धर्म के आधार पर देश के निर्माण या गठन को नीतिगत रूप से गलत और भारत के लिए नुकसानदेह मानते हैं, तो ‘हिंदू राष्ट्र’ की बात जितनी गलत है, कल मुसलामानों के लिए पकिस्तान की मांग भी गलत थी. इसलिए जिन्ना ने जो कुछ किया, उससे वे भारतीय इतिहास में आदर्श नायक नहीं माने जा सकते. बलिक उनकी छवि खलनायक की ही रहेगी. ऐसे में किसी पुरानी चित्र गैलरी में अन्य तत्कालीन नेताओं के साथ जिन्ना की भी तस्वीर लगा होना एक बात है, लेकिन एक ‘मुस्लिम’ नामधारी शिक्षा संस्थान के परिसर में जिन्ना या भारत के विभाजन में मुख्य भूमिका निभानेवाले किसी भी व्यक्ति की तस्वीर का लगा होना एकदम भिन्न बात है. जब तक किसी ने विरोध नहीं किया था, इसका अर्थ यह नहीं निकाला जा सकता कि उस तस्वीर को पवित्र मान लिया जाये. आखिर उसे नहीं हटाने की जिद का क्या कारण हो सकता है? सिर्फ यह कि ऐसी मांग कुछ हिंदू उपद्रवी तत्व कर रहे हैं? पर इससे यह संदेह भी होता है कि उस विवि में जिन्ना के प्रति लगाव रखनेवाले भी कुछ या बहुत लोग हैं. इस संदेह को बल मिलना भी खतरनाक है.
कायदे से एएमयू छात्र संघ के पदाधिकारियों को खुद उस तस्वीर को हटाने की पहल करनी चाहिए. बेहतर हो कि प्रदेश या केंद्र सरकार उस तस्वीर को किसी उचित स्थान पर रखे. इसके साथ ही इस प्रकरण में गुंडागर्दी करनेवालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने की मांग भी होनी चाहिए. इसे ‘हिन्दुत्ववादियों’ की जीत के रूप में भी नहीं देखना चाहिए.
बेशक जिन्ना और गोलवलकर तथा सावरकर के सोच में कोई बुनियादी अंतर नहीं है. ये सभी धर्म को राष्ट्र का आधार मानते थे. जिन्ना इसलाम के नाम पर या मुसलमानों के लिए अलग देश पाकिस्तान का निर्माण करने में सफल हो गये, जबकि गोलवलकर और सावरकर के अनुयायी अब भी ‘हिंदू राष्ट्र’ की स्थापना के लिए अब भी प्रयासरत हैं. जाहिर है, नरेंद्र मोदी मोदी भी उसी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं और संघ के उसी लक्ष्य को प्राप्त करने के ध्येय से काम कर रहे हैं. कथित सेकुलर जमात में साहस होता, तो संसद भवन में सावरकर का चित्र लगाये जाने का विरोध करते. अब भी कर सकते हैं. लेकिन जिन्ना के पक्ष में ऊर्जा जाया करना कहीं से सही नहीं लगता. यह सही है कि अपने जीवन के लम्बे कालखंड में जिन्ना राष्ट्रवादी थे. कि जिन्ना ने कभी अदालत में तिलक महाराज के पक्ष में अपनी जोरदार दलीलों से जज को कायल कर दिया था, कि नेशनल एसेम्बली में भगत सिंह और उनके साथियों के पक्ष में प्रभावशाली भाषण दिया था, कि अपने निजी आचरण में वे आधुनिक और सेकुलर थे. लेकिन किसी व्यक्ति का आकलन उसके अतीत के आधार पर करना सही नहीं होता. कोई परम ईमानदार व्यक्ति यदि बाद में भ्रष्टाचार करते पकड़ा जाये, तो उसकी ईमानदारी की क्या कीमत रह जाती है. कभी समाजवादी और सेकुलर रहे लोग आज यदि सांप्रदायिक ताकतों के साथ खड़े हैं तो हम उनके समाजवादी अतीत को कितना और क्यों याद करें. इसी तरह जिन्ना ने भी अपने उज्ज्वल अतीत की सारी बातों पर, खुद ही पानी फेर दिया, जब वे भारत विभाजन के सूत्रधार बन गये.
एएमयू या तमाम मुस्लिम नामधारी संस्थान व ऐतिहासिक पात्र संघ के निशाने पर हमेशा से रहे हैं. अकबर, टीपू सुलतान आदि के खिलाफ जारी विषैले प्रचार; या मुगलकालीन इमारतों को विवाद का विषय बनाये जाने का हमें अवश्य जवाब देना चाहिए, लेकिन हमें गोरी-गजनी-अब्दाली और अकबर, शेरशाह, रहीम, जायसी में अंतर तो करना ही होगा. गोरी और गजनी जैसे हमलावरों-लुटेरों के प्रति लगाव का प्रदर्शन आत्मघाती और देश विरोधी कृत्य ही माना जायेगा. गोरी और गजनी से जिन्ना की तुलना बहुत वाजिब तो नहीं है, फिर भी उनकी तस्वीर को टाँगे रखने की जिद भी बहुत वाजिब नहीं है. कोई कह सकता है कि इनकी इस या ऐसी किसी गलत मांग के आगे झुकना घातक होगा, क्योंकि कल ये ‘राजघाट’ में गाँधी की जगह गोडसे की समाधि बनाने की मांग भी कर सकते हैं. बेशक कर सकते हैं. लेकिन उन्हें इतनी ताकत और समाज का समर्थन नहीं मिल सके, हमें उसकी चिंता करनी चाहिए. मेरे ख्याल से ऐसे उपायों (जिन्ना के सवाल पर जिद) से उनकी ताकत कम नहीं होगी, बढ़ेगी ही.