कांके डैम (रांची) के आसपास धीरे धीरे कितना कुछ बदल गया है. डैम के दक्षिणी भाग में रहनेवालों के लिए डैम होकर सीएमपीडीआई जाने का रास्ता दुरूह था. ऊंची नीची पहाड़ी पगडण्डी. कुछ लोग आराम से पहाड़ पर चढ़ कर कांके रोड पर पहुंच जाते. रास्ता जरूर असुविधाजनक था. पर खूब ताजगी थी. बाद में एक ठीक ठाक सड़क बनी. सीएमपीडीआई जाने के रास्ते सुविधाजनक बनाया गया. मगर बात रुकी नहीं. सौन्दर्यीकरण के नाम पर उसे ‘पर्यटन स्थल’ का रूप दे दिया गया. हालांकि उद्देश्य आर्थिक उपार्जन ही था.

आज वहां बना एक होटल का ढांचा यूं ही खड़ा है. म्यूजिकल फव्वारा बना, पर चलता नहीं है. कभी बिरसा मुंडा पर लाइट और साउंड का प्रोग्राम चलाने की योजना बनी. उसके लिए सारे संरंजाम किये गये, कुर्सियाँ सजा दी गयीं. मगर उद्घाटन होने के बाद से बंद है. नल, शौचालय, शेड, और भी कुछ कुछ बना. बच्चों का पार्क भी. वह भी बिना ढंग का. और भी कुछ भारी-भरकम स्ट्रक्चर तैयार किया गया जो बस कबाड़ रह गया है. हां, दो बड़े गेट जरूर बन गये हैं, जिनका उपयोग भी हो रहा है. वह आसपास के लोगों के लिए रास्ता था, उधर से गुजरने के लिए भी पैसे मांगे जाने लगे. कई बार हंगामा हुआ. इस झगड़े को टालने के लिए लाखों खर्च कर एक जंगला लगा रास्ता बना दिया गया है, जिससे होकर लोग सीधे उस पार निकल सकते हैं. इस तरह जो जनता की संपत्ति थी, वह छीनी जा चुकी है. एक खूबसूरत प्राकृतिक संरचना, जो सदियों से स्थानीय आबादी के लिए उपयोगी और नगर का विस्तार होने पर रांची वासियों के लिए भी थोड़ा समय खुली हवा में बिताने की जगह थी, को पार्क बना कर पैसे कमाने का उपाय किया गया. अब वहां बाकायदा टिकट कटता है. वैसे खूब ठोस व्यवस्था लागू नहीं होने तक सैर करने वालों और रास्ते के रूप में इस्तेमाल करने वालों को अभी रोका टोका नहीं जा रहा है.

एक और काम हुआ है. डैम के दक्षिणी हिस्से के बांध, जो एक रास्ता भी है, को दोनों तरफ़ से मजबूत जाली से घेर दिया गया है. यह समझ से परे है कि पर्यटकों को लुभाने के लिए जो इतने प्रपंच किये गये, उसका नतीजा क्या निकला? कुछ लोगों का तो मानना है महज कमीशन और मोटी कमाई के लिए ही ऐसे प्रोजेक्ट बनते हैं. वैसे नाम ‘जनहित’ का ही दिया जाता है.

अब ‘अर्बन हाट’ बन रहा है. लेकिन हाट के नाम पर आम जनता के पास जो भी सांस लेने की जगह थी, वह लूटी जा रही है. पास की बस्तियों के लिए वह खुली जगह पर अनेक तरह से उपयोगी रही है. वहां बच्चे खेलते हैं. उनकी बकरियां भी. वे उस विस्तृत चट्टान पर अनाज तैयार करते हैं. अनाज और उपले सुखाते हैं. सुबह शाम टहलने घूमने, गप-गोष्ठी की जगह तो रही है. हम उसके गवाह हैं. हम डैम के दक्षिण में रहते हैं.

डैम से सटी पहाडी पर वर्ष 1955 में ही बनी पानी की टंकियां हैं. नीचे वाटर ट्रीटमेंट प्लांट है. ऊपर खुली जगह और हरियाली के कारण आसपास के लोगों के लिए घूमने-फिरने की जगह थी- रॉक गार्डन. फिर उसे और सजाया-संवारा गया. रॉक गार्डन को ऊंची चाहरदीवारी से घेर दिया गया. उसमें जाने के लिए टिकट लगने लगा. नीचे भी डैम के किनारे के खुले स्थान को घेर कर किसी निजी व्यक्ति/कंपनी को ठेके पर दे दिया गया. और अब निर्माणाधीन ‘अर्बन हाट’ ने तो स्थानीय आबादी से मानो उनका घर-आँगन छीन लिया है.

ऐसे स्थान पर, बिना स्थानीय आबादी की सहमति के, हो रहे इस निर्माण से एक सवाल मन में उठता है- यह कि देश में जो भी प्राकृतिक संपदा- जमीन, जंगल-पहाड़ और नदी व अन्य जल स्रोत- किसी की निजी संपत्ति नहीं है, वह किसकी है? सरकार की? और सरकार उसका जैसे चाहे उपयोग (व्यावसायिक भी) कर सकती है?

कहा जा सकता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनी हुई सरकार देश की संपदा की मालिक है. हालांकि एक तय समय के लिए ही. मगर सरकार अगर जनता के सरोकार से बिल्कुल ही कट जाये तो? वह आंख बंद कर जनता की संपत्ति का धंधेबाज की तरह इस्तेमाल करने लगे तो? कोई भी सरकार हो, आम तौर पर यही दिखता है कि उनके पास कोई सौंदर्य बोध नहीं है, न पर्यावरण को बचाने की चिंता. समाज के अधिकारों के प्रति तो उल्टा ही रवैया है- दुश्मनी भरा. और अगर वह समाज कमजोर वर्ग का है, तब तो नजरिया और भी कठोर हो जाता है. मगर क्या व्यक्ति और सरकार के बीच और कोई ताकत नहीं. तब तो सभी नदियाँ, पहाड़, जंगल सारा कुछ बेच दिया जाये. मालिकाना हक़ भले ही सरकार के पास न हो बेचने का, गिरवी रखने का और बड़े बड़े प्रोजेक्ट के नाम पर इन्हें तहस-नहस करने का तो पूरा अधिकार है. और इसे विकास का नाम भी दिया जा सकता है. भले कुछ हासिल न हो, कमीशन तो मिलना ही है. विकास की अधूरी समझ से इसके लिए तर्क भी मिलता है. बस, समाज के अधिकारों को नेस्तनाबूद करिये,पूरे इलाके को प्रदूषित कीजिये. यही तो ‘विकास’ है; और विकास का रथ रुकना नहीं चाहिए.