इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर के मुताबिक कोरेगांव भीमा की घटना से जुड़े पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं को माओवादी बतला कर महाराष्ट्र पुलिस ने हिरासत में लिया है और उनके विरुद्ध कार्रवाई की जा रही है . मैं समझता हूँ भीमा कोरेगांव को आप भूले नहीं होंगे . इस वर्ष जनवरी में वहां दलितों ने एक जश्न मनाया . उपलक्ष्य था पेशवाओं की हार और ईस्ट इंडिया कंपनी की जीत की दो सौवीं वर्षगांठ . दलितों का का कहना था ईस्ट इंडिया कंपनी के तरफ से महारों की सेना लड़ी थी और कुछ सौ महार सैनिकों ने अपनी बहादुरी से पचीस हज़ार पेशवा सैनिकों को खदेड़ दिया था . सैंकड़ो हताहत हुए थे . इस मुद्दे पर मैंने उसी वक़्त एक पोस्ट लिखा था .
अब महाराष्ट्र पुलिस उसमे माओवाद ढूँढ रही है . खबरों के अनुसार हिरासत में लिए गए लोगों में एल्गार परिषद् के सुधीर धवले ,CRPP (committee for release of political prisoners )के रोना विल्सन , नागपुर के सक्रिय वकील सुरेंद्र गाडलिंग , प्रधानमंत्री के ग्रामीण विकास कार्यक्रम से जुड़े सामाजिक कार्यकर्त्ता महेश राउत और नागपुर विश्वविद्यालय में अंग्रेजी की प्रोफ़ेसर सोमा सेन शामिल हैं . इनपर आरोप है कि भीमा कोरेगांव की घटना के पीछे इनका हाथ है और साथ ही इनका सम्बन्ध माओवादियों से भी है . इस सम्बन्ध में जिग्नेश मेवानी और उमर खालिद को भी पिछले जनवरी में पूछताछ केलिए बुलाया गया था .आज भी जिग्नेश को धमकियाँ मिल रही हैं .
मैं इस पूरे मामले को जनता के बीच इसलिए लाना चाहता हूँ कि लोग इसकी गंभरता को समझें . भीमा कोरेगांव दलितों के शौर्य का निश्चित तौर से प्रतीक है और उसे उत्सव रूप देने का उन्हें अधिकार है और होना चाहिए . आज विचारणीय है तो यह कि आखिर किन स्थितियों में दलितों ने ईस्ट इंडिया कंपनी की तरफ से लड़ाई की . ईस्ट इंडिया कम्पनी की कोई राष्ट्रीयता नहीं थी .वह एक कम्पनी थी . पेशवा ब्राह्मण थे . उन्होंने अपने सामाजिक ढाँचे में महारों को अछूत शूद्र और काहिल -कामचोर चिन्हित कर रखा था . लड़ाकू जातियां तो मराठा ,पेशवा ,राजपूत थे . कम्पनी के लोगों ने इन दीन हीन काहिल -कामचोर करार दिए लोगों को अवसर दिया और एक झटके में इनलोगों ने कमाल कर दिखाया . बहादुर लोग भाग खड़े हुए . बड़ी संख्या में हताहत भी हुए . निश्चित ही यह प्रेरणा दिवस है . इसने बतलाया कि योग्यता या बहादुरी किसी खास जाति कुनबे की चीज नहीं है .अवसर देने पर इसका पता चलता है . इस घटना को अत्यंत आदर पूर्वक आंबेडकर ने याद किया है .,जो स्वाभाविक है .
अब महाराष्ट्र की भाजपा सरकार माओवाद के नाम पर उनके नेताओं और सहयोगियों को तंग -तबाह करना चाहती है . दलित -बहुजनों के बीच उठ रही चेतना और जागरूकता को वे ध्वस्त करना चाहती है . महाराष्ट्र सरकार में हिम्मत है तो वह बाबासाहेब आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर को क्यों नहीं गिरफ्तार करती . क्योंकि जिस एल्गार परिषद् के सुधीर धवले को हिरासत में लिया गया है ,उनके साथ प्रकाश आंबेडकर भी सक्रिय रहे हैं . चूकि प्रधानमंत्री मोदी को आंबेडकर की मूर्ति पर माला भी चढ़ाना होना है ,इसलिए प्रकाश को गिरफ्तार करने की हिम्मत नहीं करेंगे .
लेकिन दलित -बहुजनों के सभी अभियानों को माओवादी बतला कर उनपर नक्सली मुकदमे चलाना ,जेलों में नाना प्रकार के कष्ट देना , धीरे -धीरे उन्हें अधमरा कर देना यह सब पूंजीवादी सरकारों की नीतियां रह गईं हैं . तमाम माओवादी मामलों में दलितों ,आदिवासियों ,कामगारों ,किसानों की आवाज उठाने वाले लोग ही तबाह किये जा रहे हैं . आखिर यह माओवाद क्या है ? जिसे लेकर सरकारें इतनी सक्रिय हैं . माओ च तुंग के गुजरे अभी चार दशक ही तो हुए हैं . हमारे पडोसी चीन में उन्होंने मार्क्सवादी सरकार बनाई थी और मार्क्सवाद में एक महत्वपूर्ण संशोधन किया कि क्रांति या सुधार एक निरंतर प्रक्रिया है . नेहरू और माओ एक दूसरे के प्रशंसक थे . माओ की अधिकांश बातों को उनके मुल्क के लोगों ने भी आज नकार दिया है ,जैसे हमारे देश में गाँधी को नकार दिया गया है . लेकिन मौजूदा चीन आज जो है वह माओ की देन है . अपने देश के हरामखोरों को किनारे कर उस महान नेता ने किसानों को मुख्यधारा में लाया और आद्योगिक क्रांति की छलांग लगाई . हमारे बुद्ध से कभी चीन ने सीख ली थी . गाँधी से रंगभेद विरोधी आंदोलन के नेताओं ने सीख ली . दूसरों से सीखना खराब बात नहीं है . प्रश्न यह होना चाहिए की हम सीख क्या रहे हैं . माओ से यदि हम किसान मज़दूरों के हक की लड़ाई लड़ना सीखते हैं तो क्या गुनाह है . हाँ ,हिंसा का समर्थन मैं कतई नहीं कर सकता . क्योंकि हिंसा से विमर्श बाधित होता है . हिंसा से मामले उलझते हैं ,सुलझते नहीं . लेकिन आज हिंसा कर कौन रहा है . आरएसएस की पूरी विचारधारा हिंसा पर आधारित है . सरकारें आदिवासियों की भावनाओं को दबाने केलिए अपने ही देशवासियों के खिलाफ फ़ौज का इस्तेमाल करती है . जनता में जो गुस्सा और हिंसा की भावना है उसे लोकतान्त्रिक दायरे में हमें हल करना होगा . मुख्य जिम्मेदारी सरकारों की है .लेकिन जनता के सभी हिस्सों को यह समझना होगा कि हिंसा से निजात कैसे मिले . मेरी अपनी राय है कि हिंसा के सबसे बड़े कारक सामंतवादी -पूंजीवादी सामाजिक -आर्थिक व्यवस्था है . इसके होते आप हिंसा पर पूर्णविराम नहीं लगा सकते . विकास योजनाएं जितना जनता के पक्ष में नहीं है ,उससे कई गुना पूंजीवादी व्यवस्था के पक्ष में है . कारोबारी हरामखोर हज़ारों करोड़ लूट कर भाग रहे हैं और आप कुछ नहीं कर पा रहे.
पुलिस तो बस सोमा सेन को पकड़ सकती है.