पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने संघ की रैली में ऐसा कुछ नहीं कहा, जो संघ की नीतियों, उसकी संकीर्णता का समर्थन करता हो. बल्कि बहुत कुछ ऐसा कह गये, जो संघ की मान्यताओं और कार्यप्रणाली को प्रश्नांकित करता है. इस लिहाज से कहा जा सकता है कि श्री मुखर्जी ने दोनों को निराश किया- जो उनके वहां जाने से परेशान/आशंकित थे; और उन्हें आमंत्रित करनेवाले संघ को भी. या कहें कि दोनों पक्ष संतुष्ट भी हैं. कांग्रेस सहित अन्य सेकुलर जमात इसलिए कि उन्होंने संघ को कोई प्रमाणपत्र नहीं दिया; और संघ इसलिए कि सब कुछ कह कर भी श्री मुखर्जी ने सीधे संघ की, उसकी नीतियों की, उसकी कार्यप्रणाली की आलोचना नहीं की. यह नहीं कहा कि आपके खिलाफ ये ये शिकायतें हैं और संघ को उनका संतोषप्रद जवाब देना चाहिए, जैसा कि ’47 में गांधी ने किया था.

फिर भी यह अधूरा आकलन है. हालांकि आज संघ को अपनी वैधता साबित करने के लिए किसी जेपी या किसी प्रणव की दरकार नहीं है, फिर भी ऐसा लगता है कि उसके संचालकों पर से आजादी के बाद से अपने ‘अछूतपन’ के दाग का दर्द पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ है. इस लिहाज से प्रणव मुखर्जी क बुला कर अंततः संघ अपने मकसद में कामयाब हुआ. एक और विशिष्ट व्यक्ति उनके कार्यक्रम में शामिल हुआ. जैसा कि श्री मुखर्जी की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी ने उनके ‘नागपुर’ जाने से पहले और उनके फैसले से असहमति जताते हुए कहा था- आप वहां क्या बोलेंगे, यह किसी को याद नहीं रहेगा, याद रहेंगी आपके कथन को गलत तरीके से उद्धृत कर छपी संघ की रैली में आपकी तसवीरें. और हुआ भी यही. सात जून (जिस दिन मुखर्जी वहां गये थे) को ही सोशल मीडिया पर काली टोपी पहने और संघी अंदाज में ‘ध्वज वन्दना’ करते मुखर्जी की फर्जी तसवीरें लग गयीं! संघ कह सकता है कि यह उसने नहीं किया, लेकिन क्या यह काम संघ के ही समर्थकों ने नहीं किया होगा? क्या संघ ने इस घटिया हरकत की आलोचना की? सरकार से इसकी जाँच करने की मांग की? इसी सन्दर्भ में अख़बारों में चाप श्री आडवाणी का बयान भी गौरतलब है- ‘प्रणब और मोहन भगवत के विचारों में अहम समन्वय और साम्य था!’ यह भी कि दोनों ने भारत की उस बुनियादी एकता को उजागर किया, जो विभिन्न पंथों के बहुलतावाद सहित सभी विविधताओं को स्वीकार करती है और उसका सम्मान करती है.’ क्या सचमुच? क्या सचमुच संघ भारत के विभिन्न पंथों के बहुलतावाद सहित सभी विविधताओं को स्वीकार करनेवाली की उस बुनियादी एकता का सम्मान करता है?

श्री मुखर्जी ने संघ के संस्थापक हेडगवार के जन्मस्थान पर जाकर वहां के विजिटर बुक में लिखा- ‘मैं यहां भारत माता के बेटे को श्रद्धांजलि देने आया हूं.’ उस हेडगवार को, जिन्होंने भारतीय मुसलामानों को ‘यवन सांप’ कहा था. संघ मुखालय जाकर उसके संस्थापक के प्रति ऐसे उद्गार को शालीनता का तकाजा कहा जा सकता है. परस्पर विरोधी विचार से जुड़े लोगों के बीच संवाद हो, यह स्वस्थ लोकतंत्र का लक्षण है. मगर क्या संघ ने उन्हें संवाद के लिए बुलाया था; या खुद श्री मुखर्जी यह सोच कर गये थे कि उनके वक्तव्य पर संघ के लोग प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे, प्रश्न करेंगे और विचार मंथन करेंगे? नहीं. संघ`-प्रमुख श्री भगवत ने तो श्री मुखर्जी के कुछ बोलने से पहले ही कह दिया था- कुछ बदलने नहीं जा रहा है, संघ संघ ही रहेगा, प्रवाव प्रणव ही रहेंगे.

निश्चय ही श्री मुखर्जी ने कुछ खरी खरी बातें कहीं. जिन विचारों-मूल्यों के साथ जुड़े रहे, उसके अनुरूप बोलते हुए बहुलता-विविधता, धर्मनिरपेक्षता को भारत की मूल पहचान बताया. राष्ट्र की परिकल्पना को लेकर देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के विचारों का और स्वतंत्र भारत के एकीकरण के लिए सरदार वल्लभ भाई पटेल के प्रयासों का भी उल्लेख किया.

कहा - ‘‘भारत में हम सहिष्णुता से अपनी शक्ति अर्जित करते हैं और अपने बहुलतावाद का सम्मान करते हैं. हम अपनी विविधता पर गर्व करते हैं…. गांधी जी ने कहा था कि हमारा राष्ट्रवाद आक्रामक, ध्वंसात्मक और एकीकृत नहीं है. डिस्कवरी ऑफ इंडिया में पं. नेहरू ने राष्ट्रवाद के बारे में लिखा था- ‘मैं पूरी तरह मानता हूं कि भारत का राष्ट्रवाद हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई और दूसरे धर्मों के आदर्श मिश्रण में है.”

  • “गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था- कोई नहीं जानता कि दुनिया भर से भारत में कहां-कहां से लोग आये और यहां आकर भारत नाम की व्यक्तिगत आत्मा में तब्दील हो गये.”

  • ‘हमारी राष्ट्रीयता को रूढ़वादिता, धर्म, क्षेत्र, घृणा और असहिष्णुता के तौर पर परिभाषित करने का किसी भी तरह का प्रयास हमारी पहचान को धुंधला कर देगा. हम सहनशीलता, सम्मान और अनेकता से अपनी शक्ति प्राप्त करते हैं और अपनी विविधता का उत्सव मनाते हैं. हमारे लिए लोकतंत्र उपहार नहीं, बल्कि एक पवित्र काम है. राष्ट्रवाद किसी धर्म, जाति से नहीं बंधा है.’

  • ‘देश के मूल विचार में बहुसंख्यकवाद और सहिष्णुता है. ये हमारी समग्र संस्कृति है जो कहती है कि एक भाषा, एक संस्कृति नहीं, बल्कि भारत विविधता में है. 1.3 अरब लोग 122 भाषाएं और 1600 बोलियां बोलते हैं. 7 मुख्य धर्म हैं. लेकिन तथ्य, संविधान और पहचान एक ही है- भारतीय.’

  • ‘लोकतंत्र में देश के सभी मुद्दों पर सार्वजनिक संवाद होना चाहिए. विभाजनकारी विचारों की हमें पहचान करनी होगी. हम सहमत हो सकते हैं, नहीं भी हो सकते. लेकिन हम विचारों की विविधता और बहुलता को नहीं नकार सकते.

अब देखें कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने इस मौके पर क्या कहा, साथ ही संघ क्या कहता/करता रहा है -

  • ‘भारत में जन्मा हर व्यक्ति भारत पुत्र…’ (हालांकि समय समय पर ये भारत में जन्मे और रह रहे हर व्यक्ति को ‘हिंदू’ भी बता देते हैं; और वही ‘हिंदू’ प्रताड़ित भी हैं!)

  • ‘हिंदू समाज में एक अलग प्रभावी संगठन खड़ा करने के लिए संघ नहीं है. संघ सम्पूर्ण समाज को खड़ा करने के लिए है. (क्या सचमुच ‘सम्पूर्ण भारतीय समाज’ को खड़ा करने का काम कर रहा है, करना चाहता है? इससे बड़ा झूठ कोई हो सकता है?)

  • ‘..विविधता में एकता हजारों सालों से परंपरा रही है’ (विविधता में एकता की परंपरा बेशक रही है, लेकिन क्या संघ उस विविधता का सम्मान करता है?)

  • ‘.सब मिलकर काम करें तभी देश बदलेगा.’ (यानी संघ ‘सबों को’ साथ लेकर चल रहा है!)

  • ‘हेडगेवार कांग्रेस के कार्यकर्ता भी रहे.’ (पर उन्होंने यह नहीं बताया कि यह तथ्य संघ के लिए गर्व की बात है या शर्म की? श्री मोदी और यह पूरी जमात तो आजादी के संघर्ष में भी कांग्रेस का योगदान स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है!)

  • ‘संघ लोकतांत्रिक संगठन है!’ (लेकिन संघ-प्रमुख का चुनाव नहीं, मनोनयन होता है, संघ के सदस्यों की कोई सूची नहीं होती. संघ अपना एक प्रतिनिधि भाजपा के उच्च पद पर ‘नियुक्त’ करता है.)

अब देखें कि संघ की राजनीतिक बांह भाजपा के ‘मूल’ और उसकी पहचान के प्रमुख मुद्दे क्या हैं -

(1) मंदिर ‘वहीं’ बनायेंगे (यानी मुसलमान उस मसजिद का त्याग कर दें);

(2) धरा 370 हटाओ (कश्मीरी मुसलमान आत्म-निर्णय- जिसका वायदा भारत की सरकार ने किया था- का दावा छोड़ दें);

(3) सामान आचार संहिता (यहां भी टारगेट मुसलमानों का निजी कानून ही है- हालांकि हम वाहिनी धारा के लोग इस मांग का समर्थन करते हैं);

(4) बीफ पर प्रतिबन्ध (मुसलमान अपनी पसंद और मर्जी का भोजन नहीं कर सकते). इनके अलावा धर्मान्तरण, लव जिहाद, कब्रिस्तान-श्मशान आदि उसके सभी या अधिकतर मुद्दे ऐसे ही हैं, जिसके दूसरे छोर पर मुस्लिम समाज होता है.

फिर भी श्री आडवाणी के मुताबिक मुखर्जी और भागवत के कथन में कितना साम्य है! आशंका यही है कि संघ/भाजपा का प्रचार तंत्र इसी ‘साम्य’ को स्थापित करने में सफल होगा.