मोदी ईमानदार हैं, अच्छे व सक्षम प्रशासक हैं और वे सचमुच देश के विकास का इरादा रखते हैं; या कि वे हिंदू-हितैषी हैं, वे ही यहां के बिगड़ैल मुसलमानों को सबक सिखा सकते हैं (जैसे गुजरात में सिखा चुके हैं), वे ही भारत को ‘हिंदू राष्ट्र’ बना सकते हैं. कुल मिला कर मोदी इसलिए पसंद हैं, क्योंकि वे ‘हिंदू हृदय सम्राट’ हैं. मेरा खयाल है कि उनके मुरीदों में दोनों तरह के लोग हैं. उत्तर भारत यानी हिंदी पट्टी (इसमें अब गुजरात और महाराष्ट्र को भी रखा जाना चाहिए), जो लंबे अरसे से संघ/ भाजपा का आधार इलाका है, में ऐसे मुरीदों में अधिकतर उनकी ‘हिंदू हृदय सम्राट’ की छवि के कारण ही उन्हें पसंद करते हैं. उनमें भी सवर्ण हिंदुओं की संख्या अधिक होगी. बेशक इनमें से अनेक अन्य कारणों से भी उनके मुरीद होंगे, और मेरा अनुमान है कि ऐसे लोग यदि उनकी कट्टर/असहिष्णु हिंदू नेता की छवि से जरा भी परेशान नहीं हैं, तो इसका मतलब है, उन पर संघ के प्रचार तंत्र का कुछ असर जरूर है.

मेरे लिए तो मोदी, भाजपा और संघ को नापसंद करने का यह एक ही कारण-प्रक्षन्न सांप्रदायिकता- पर्याप्त है. उनकी अन्य तमाम कथित खूबियों को मान कर भी, मैं उनका मुरीद नहीं हो सकता. बल्कि इन्हें और इनकी जमात को देश की एकता और देश की बहुलतावादी संस्कृति के लिए खतरनाक मानता हूं. धर्मनिरपेक्षता के प्रति अन्य दलों की निष्ठा संदिग्ध हो सकती है, एक हद तक हैं भी. मगर भाजपा की तो बुनियाद में ही सांप्रदायिकता है. अन्य दल समय समय पर इस या उस समुदाय की संकीर्णता का चुनावी लाभ उठा सकते हैं, उठाते रहे हैं, पर भाजपा की सांप्रदायिकता असंदिग्ध है.

’84 और 2002 (गुजरात) में भी यही फर्क है. ’84 कांग्रेस का एब्रेशन (अपवाद) है, ‘2002’ भाजपा के चरित्र के अनुकूल है. शर्मनाक और देश के दमन पर लगे धब्बे के समान ये दोनों प्रकरण दरअसल हिंदू उन्माद के उदहारण है. दोनों का राजनीतिक लाभ इन दलों को मिला. लेकिन जहाँ कांग्रेस के लोग ’84 को जस्टिफाई करने का प्रयास नहीं करते, भाजपा के लिए ‘2002’ एक शो पीस है. उसके बड़े नेता भले कुछ कहें, पर किसी आम भाजपा कार्यकर्त्ता या उसके कट्टर समर्थक से पूछ कर देखे, उसमें ‘2002’ के लिए कोई पछतावा नहीं दिखेगा.

आप इन्हें सांप्रदायिक कहें, दंगाई कहें, धर्मांध कहें, इनको फर्क नहीं पड़ता, उल्टे लाभ ही मिलता है. ‘हिंदू हितैषी’ या मुसलिम विरोधी की छवि से इनका ‘वोट बैंक’ मजबूत ही होता है, ये आसानी से अपने आलोचकों पर हिंदू विरोधी का लेवल चिपका देते हैं. और जो ‘भक्त’ हो चुके हैं, वे अपने ‘आराध्य’ के खिलाफ कुछ सुनना पसंद/बर्दास्त नहीं करते. और दिक्कत यह है कि इनके जो विरोधी हैं, वे जुबानी आलोचना, बहुधा एकांगी और अतिवादी, करने के अलावा कुछ नहीं करते. जबकि इनका सुनियोजित और बारीक अभियान लगातार और अनेक स्तरों पर चलता रहता है. इनके पास मुद्दों की कोई कमी नहीं है- गाय, बीफ, लव जिहाद, धारा 370, अखंड भारत, कब्रिस्तान- श्मशान, जिन्ना, समान आचार संहिता आदि आदि. और “मंदिर ‘वहीं’ बनेयेंगे’ तो है ही. अब तो हर हिंदू त्योहार इनके इस अभियान का हिस्सा बनता जा रहा है. पर्व कोई भी हो, ‘जय श्रीराम’ का आक्रामक नारा लगेगा ही, भड़काऊ ‘भजन’ बजते ही हैं. ‘मोदी लहर’ के पीछे इनका भी हाथ होता ही है.

गनीमत है कि इतने प्रयासों के बाद भी अब तक पूरा भारत इस उन्माद का शिकार नहीं हुआ है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि हिंदू समाज को धर्मांध बनाने के इस जमात के सतत अभियान का खतरा नहीं है. या ये ‘हिंदुओं का खून खौलाने की अपनी कोशिश से बाज आ जायेंगे. यही तो इनका ‘यूएसपी’ है.

विकास, प्रशासनिक कौशल, ईमानदारी, मेक इन इंडिया, न्यू इंडिया आदि जुमले तो चलते ही रहेंगे. मूल लक्ष्य तो ‘हिंदू राष्ट्र’ का निर्माण ही है. ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का मतलब भी बहुतावादी संस्क्रति से मुक्त भारत, मुस्लिम उपस्थिति/दखलंदाजी से मुक्त भारत, सेकुलरिज्म के सिद्धांत से मुक्त भारत, ‘समानता’ के महान आदर्श के तहत विशेष अवसर, यानी आरक्षण से मुक्त (यह और बात है कि जातीय आधार पर ‘निम्न’ और ‘सम्मानित’ कार्यों में परंपरागत अघोषित आरक्षण जारी रहेगा) भारत. कांग्रेस तो हमारी नजर में वंशवाद, भ्रष्टाचार और निरंकुशता की प्रवृत्ति आदि की प्रतीक रही है. अतः इनको सचमुच कांग्रेस मुक्त भारत बनाना होता, तो ये अपने हर धतकरम को जायज ठहराने के लिए कांग्रेस के वैसे ही आचरण के उदहारण क्यों देते. जाहिर है, कांग्रेस की सारी बुराइयाँ तो ये अपना चुके हैं, अपनाते जा रहे हैं. इस जमात के आम कार्यकर्त्ता या समर्थक से बात कर लीजिये, सच का पता चल जायेगा. वह सब जो इन्हें असल में बताया-सिखाया जाता है, जो इनके ‘संस्कार’ में है. हम जानते हैं- इनके नेता कभी ‘मन की बात’ नहीं बोलते. वैसे अन्य दलों के नेता भी कम ही बोलते हैं.