मेरे पुरखों एवं बुजूर्ग जनो से प्राप्त जानकारी के अनुसार वागड़ शब्द की उत्त्पत्ति वाग, वाघ शब्द से हुई है, जिसका हिन्दी अर्थ बाघ होता है. हमारा यह इलाका पुराने समय में दो तरह के बाघों से भरपूर होकर भारत कि सीमाओं से बाहर तक प्रसिद्ध था. ये दो तरह के बाघ थे भील ओर शेर (बाघ). ये दोनों ही इस क्षैत्र के मालिक थे. मानव का मालिक राजा भील तो वन्य प्राणियों का शेर (बाघ). इस ताकत के कारण यह इलाका वागड़ - बाघड़ नाम से विख्यात हुआ. क्योंकि भीली भाषा में बाघ को वाग ही कहा जाता है. अर्थात अर्थ हुआ बाघ के रहने का इलाका बाघड़ (बाघ का घर) वागड़. यहाँ का पुरूष पहनावा किसी समय वागा - बाघा नाम से प्रसिद्ध होकर भीलों में प्रचलित था, जो शनै - शनै बंद हो गया. यह वस्त्र गले से लेकर पाँव कि पिण्डलियों तक लम्बा कुर्ता जैसा सूती वस्त्र कढ़ाईदार होता था. आज से 35 बरस पहले तक इसे विवाह में दुल्हे (लाड़ा) को भील समाज में पहनाया जाता था. यह पहनावा देखा जाय तो बब्बर शेर के लुक को प्रतिपादित करता था. यह पहनावा आ​दिकाल में शेरों कि खाल से बना कर भी पहना गया होगा. तभी इसका नाम वागा या बाघा पड़ा.

वागड़ का यह इलाका वृहद है. मालवा के पश्चिम छोर (बदनावर) पर वागेड़ी - बाघेड़ी नदी— से प्रारंम्भ होकर पश्चिम में माउंट आबू तक फैला है. जो पीवर भील प्रदेश -भीलीस्थानी क्षेत्र है. यहाँ की हमारी भीली भाषा को वागड़ी भी कहा जाता है. बाघेड़ी अर्थात भील शेरों कि बोली - भाषा.

यहाँ की भील बहनों की चुनरी को भी वाघेड़ी चुनरी नाम प्राप्त है, जो लाल गेरुए रंग कि होकर बाघ (टिमरिया नाहर) कि खाल जैसी बिंन्दुदार दिखाई देती है. दूर से देखने पर ऐसा प्रतीत होता है जैसे सिंहनी आ रही हो. बहुत कुछ हमारी संस्कृति में शौर्यता के प्रतीक छिपे हुऐ हैं जिन्हें असल भील लोई (खून) से भरपूर मानव ही जान सकता है, पहचान सकता है. वागड़ कि भीली भाषा में मेरे मतानुसार घर के लिये घोर कि बजाय घेर शब्द प्रयुक्त होता है. घोर शब्द गुजराती - भीली मिश्रित शब्द है. टापरू शब्द भी हमारी वागड़ी भीली भाषा का ही शब्द है. टापरू शब्द हमारी अस्थाई बसाहट के लिये प्रयुक्त होता था, जैसे केवल एक बरसात का मौसम किसी स्थान पर निकालना है तो ऊंची पहाड़ी - ढलान पर प्रकृति कि लकड़ी पत्तों घाँस से हम तत्काल तैयार कर लेते थे. यह शब्द कालांतर में सभी तरह के मकान, घर, स्थाई अस्थाई बसाहट, में होने लग गया. आर्यों के आक्रमण के पूर्व हमारी बसाहट घरों के रूप में थी, हम शासक थे ओर मुगलों के आक्रमण तक हमारी सत्ता ने आर्यों को चुनौती दी. मुगलों को हमने हमारे घर वाघड़ - वागड़ में घुसने नहीं दिया. मुगलकाल के उपरांत भी हमने ब्रिटिश व सामंती सत्ता को चुनौती दी, क्योंकि हम आदिवासी भारत के मालिक स्वतंत्र भील हैं.

हम घर से टापरे में जरूर आ गये, लेकिन वागड़-बाघड़ का धणी (मालिक) भील आदिवासी रूतबा वही भील शासक वाला रखता है. भील शासकों - महापुरूषों के नाम आज भी वडील/बुजूर्गो की जुबान पर है जो अमिट इतिहास है वर्णित है.