यह मुद्दा समय समय पर उठता रहा है. इस बार इसे प्रधानमंत्री श्री मोदी ने उठा दिया है, तो इस बात की प्रबल सम्भावना या आशंका है कि अब इसके समर्थन में अनेक ‘बुद्धिजीवी’ आ जायेंगे. हालांकि भारत जैसे बड़े देश और 32 राज्योंवाले देश में लगातार चुनाव से परेशान अनेक लोग बिना बहुत विचार किये इस प्रस्ताव का समर्थन कर देते हैं. अतः इस पर गंभीरता और खुले दिमाग से विचार-विमर्श होना चाहिए.
सुनने और सोचने में तो बहुत अच्छा लगता है, लेकिन लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करने का विचार/सुझाव पूरी तरह अव्यावहारिक और अलोकतांत्रिक है. यदि ऐसा किया गया, तो इसका मतलब यह होगा कि किसी राज्य की गठबंधन सरकार के किसी घटक के अलग हो जाने या एक दल का बहुमत होने पर भी सत्तारूढ़ दल में टूट हो जाने पर यदि सरकार अल्पमत में आ गयी, तब ‘एक साथ’ चुनाव के नाम पर या तो वहां अगले चुनाव तक अल्पमत सरकार शासन करती रहेगी; या फिर वहां केन्द्रीय शासन लगा दिया जायेगा. क्या यह लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुकूल होगा? और यदि केंद्र सरकार ही अल्पमत में आ जाये तो? केंद्र में राष्ट्रपति शासन का कोई प्रावधान तो है नहीं. तो क्या वही अल्पमत सरकार अगले चुनाव तक कायम रहेगी? किसी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश करते समय विपक्ष को ‘वैकल्पिक सरकार कैसे बनेगी’, यह बताना होगा, जैसा तर्क भी बेतुका ही है. मान लीजिये, विपक्षी दलों में ऐसी एकता नहीं है कि वे मिल कर सरकार बना सकें, तब भी क्या एक अल्पमत सरकार का शासन चलता रहेगा? संसद में बिना बहुमत के वह सरकार काम कौसे करेगी? कोई विधेयक कैसे पारित करायेगी? क्या यह प्रावधान कर दिया जायेगा कि सरकार को कोई नया कानून बनाने, बजट पारित कराने के लिए बहुमत की जरूरत ही नहीं है? फिर लोकतंत्र की अहम शर्त ‘बहुमत का शासन’ का क्या होगा?
जब तक सारे देश (केंद्र और सभी राज्यों) में कांग्रेस का शासन हुआ करता था, बिना परेशाने के ऐसा होता रहा. बाद में मध्यावधि चुनावों का दौर प्रारंभ हो जाने, जो आगे भी हो सकता है, मेरी राय में ऐसा करना न तो संभव रह गया, न ऐसा करना आवश्यक ही है.
संविधान में इसके प्रावधान नहीं हैं, यह कोई कठिन समस्या नहीं है. संसद चाहे, तो इसके लिए संविधान संशोधन किये जा सकते हैं. मगर ऐसा करना जरूरी क्यों है; और क्या इससे भारतीय लोकतंत्र और मजबूत होगा? मेरा मानना है कि न तो यह जरूरी है, न ही इसका कोई लाभ होगा. जिन राज्यों के चुनाव में कुछ महीनों का अंतर है, उनकी विधानसभाओं को थोड़ा पहले भंग कर या कुछ का कार्यकाल कुछ आगे बढ़ा कर उनके चुनाव लोकसभा के साथ तो कराये जा सकते हैं. लेकिन ‘हर हाल में’ केंद्र व राज्यों के चुनाव एक साथ ही हों, यह नाहक और नासमझ जिद के अलावा और कुछ नहीं है.
एक पक्ष व्यवहारिकता का भी है. मुझे याद है, ’77 का लोकसभा चुनाव तीन चरणों में, महज पांच दिनों के अंतर- 16, 18 और 20 मार्च को- करा लिये गये थे. आज एक बड़े राज्य का चुनाव करने में तीन से चार माह तक लग जाता है. कहा जा रहा है कि सुरक्षा कारणों और चुनाव आयोग के पास संसाधनों की कमी का कारण. ऐसे में पूरे देश में- लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करना कितना व्यवहारिक और संव्हाव होगा, यह भी विचारणीय है. हालांकि ‘एक साथ’ चुनाव के खिलाफ मेरे हिसाब से यह बहुत मजबूत तर्क नहीं है. अपनी असहमति के कारण मैं ऊपर बता चुका हूं.
इसके पक्ष में दिया जा रहा यह तर्क कि इससे अलग अलग चुनाव कराने से होनेवाला खर्च बचेगा, तो एकदम बेतुका है. लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण और जरूरी कवायद-चुनाव पर होनेवाले खर्च को ही आप फिजूलखर्ची कह रहे हैं, हद है!
वैसे इस समस्या का एक बहुत आसान उपाय है. यह कि संसद और विधानसभाओं का कार्यकाल बीस या तीस वर्ष कर दिया जाये. चुनाव का झंझट ही ख़त्म. कैसा रहेगा? आप सहमत हैं?
इस मुद्दे पर मैं पहले भी लिखता रहा हूं; और मेरा विचार आज भी वही है. कौन दल इस पर क्या कहता है, इससे मुझे कोई लेना-देना नहीं है, यह महज संयोग है कि फिलहाल विपक्षी दल इस सुझाव का विरोध कर रहे हैं. और यह भी शायद ‘संयोग’ ही है कि वर्तमान सठारूढ़ गठबंधन से जुड़े या भाजपा के सहयोगी दल इसका समर्थन कर रहे हैं, हालांकि विरोधियों में से एक कांग्रेस की तत्कालीन सरकार ने ’71 में पाँच वर्ष के लिए गठित लोकसभा का कार्यकाल एक साल बढ़ा दिया था. जाहिर है, यह एक ‘राजनीतिक’ और किसी ख़ास मंशा से उछाला गया मुद्दा है. इसीलिये समर्थन और विरोध भी राजनीतिक आग्रहों के तहत हो रहा है.
मेरा निवेदन है कि जानकार और जागरूक मित्र दलीय नजदीकियों और पसंद-नापसंद से ऊपर उठ कर इस पर राय व्यक्त करें.