मीडिया में आज की तारीख में कुल मिलाकर प्रतिगामी शक्तियों का कब्जा है. उनमें अगड़ी मानसिकता के लोग भरे पड़े हैं, यह तो लगातार विमर्श का विषय बनता ही रहा है, लेकिन उसका चरित्र नस्ली भी है, इसका खुलासा पत्थरगड़ी और खूंटी से जुड़ी हाल की घटनाओं के एक तरफा प्रस्तुतीकरण से हो जाता है.

खूंटी में पांच महिलाओं के साथ पत्थरगड़ी आंदोलन से जुड़े लोगों ने बलात्कार किया, इस खबर को स्थानीय अखबारों ने तो गैर जिम्मेदाराना तरीके से लिखा ही, एनडीटीवी सहित तमाम राष्ट्रीय चैनलों और अखबारों ने दो दिन तक अपने चैनलों पर चलाया. लेकिन अब किसी चैनल या अखबार की दिलचस्पी इस बात में नहीं कि वे पांचों पीड़ित महिलाएं कहां हैं? किस हाल में हैं? अब तक वे सामने क्यों नहीं आई? वे पुलिस सुरक्षा में हैं या पुलिस हिरासत में? उनसे उनके परिजनों सहित किसी को भी मिलने क्यों नहीं दिया जा रहा है? कई फैक्ट फाइंडिंग कमेटियों की सदस्यों ने उन महिलाओं से मिलने की कोशिश की, लेकिन प्रशासन ने किसी से उन्हें मिलने नहीं दिया.

यह सही है कि कड़िया मुंडा के यहां से कुछ सुरक्षा गार्डों को पुलिस की प्रताड़ना से बौखलाई खूंटी की महिला आंदोलनकारी अगवा कर ले गयी, लेकिन उन्हें दूसरे दिन हथियार सहित मुक्त भी कर दिया गया. लेकिन इन घटनाओं को बहाना बना कर पुलिस-प्रशासन ने खूंटी के ग्रामीण इलाकों में जिस तरह तांडव किया, यह किसी भी जनतांत्रिक व्यवस्था के लिए शर्मनाक है. अभियुक्तों की तलाशी के नाम पर सैकड़ों घरों में पुलिस ने छापा मारा. औरतों, मर्दों के साथ मार- पीट, उन्हें हिरासत में लेकर ढ़ोर-बकरी की तरह हांकना. बेमतलब फायरिंग में एक की मौत. अभी खेती का समय है, लेकिन पुलिस-प्रशासन से आतंकित सैकड़ों गांव के लोग पलायन किये हुए हैं, यहां वहां छुपे हुए है. क्या यह राष्ट्रीय मीडिया के लिए गंभीर चिंता का विषय नहीं?

इस बात का भी कोई तर्क समझ में नहीं आता कि अपने गांव घर में आदिवासी पत्थरगड़ी क्यों नहीं कर सकते? वे आपके शहर में आकर तो चैक-चैराहों पर पत्थरगड़ी नहीं कर रहे, वे अपने घर-आंगन में गांव की सीमा क्षेत्र में पत्थरगड़ी कर रहे हैं. पांचवी अनुसूचि और पेसा कानून द्वारा दिये गये अधिकारों को लिपिबद्ध कर रहे हैं. हो सकता है, वे कुछ संविधान विरुद्ध बातें भी लिख रहे हों, तो आप उन पर कानून सम्मत कार्रवाई कीजिये. लेकिन घटनाक्रम जिस तरह है, उससे तो लगता है कि वे गैर कानूनी या असंवैधानिक कुछ नहीं कर रहे, इसलिए उनको कुचलने और उत्पीड़ित करने के लिए फर्जी मामले गढ़ने पड़ रहे हैं.

यह बात भी समझ से परे हैं कि मुंडाओं के एक आदिवासी इलाके में पुलिस का स्थाई कैंप बनाने में सरकार की क्यों रुचि है? क्या वह हिंसा का क्षेत्र है? वहां के नागरिकों ने सरकार से सुरक्षा की गुहार की है? आवेदन दिया है कि आप उनकी जानमाल की रक्षा के लिए एक स्थाई पुलिस कैंप बहाल करें? या वहां से आदिवासी गिरोह बना कर निकल कर आपके घरों में लूट पाट कर रहे हैं?

आदिवासी समाज सदियों से बिना पुलिस और शहर कोतवाल के चलता रहा है. पुलिस थानों की स्थापना वहां अंग्रेजों ने शुरु की, वह भी अपने निहित स्वार्थों के लिए. तो, भाजपा सरकार भी अपने निहित स्वार्थों के लिए सुदूर आदिवासी इलाकों में पुलिस थानों की स्थापना करना चाहती है? मीडिया ने कभी यह समझने की कोशिश की कि वे निहित स्वार्थ क्या हैं?

आदिवासी, गैर आदिवासियों को ‘दिकू’ कह कर संबोधित करते हैं. ‘दिकू’ यानी दिक-दिक करने वाला. यह बात हम गैर आदिवासियों को बहुत कचोटती है, लेकिन जिस तरह का व्यवहार सत्ता, पुलिस और मीडिया उनसे कर रहा है, उससे गैर आदिवासियों के प्रति उनकी नफरत घटेगी नहीं, बल्कि और बढ़ेगी. क्योंकि पुलिस प्रशासन हो या मीडिया, वहां वर्चस्व गैर आदिवासियों का ही है. और वे आदिवासी समाज के प्रति बेहद संवेदनहीन तरीके से व्यवहार कर रहे हैं.