बस, जब बैल किसी दिन आपको भी लात मारेगा या कोई सवाल करने पर आपके शरीर में भी अपना सिंघ घुसेड़ देगा तब बाप बाप करके रोना मत - ठीक है ?

डरना बुरा नहीं है दोस्त लेकिन डर की आदत हो जाना या उसे ही ताक़त या लोकतंत्र मान लेना ख़तरनाक है। केवल सांस लेना, खाना-पीना सेक्स करना और परिवार पालना ही इंसान की नियति नहीं है।

लोकतंत्र में हमें/आपको कुछ अधिकार दिए हैं कृप्या उन अधिकारों के प्रति सजग रहें। आप जिसे वोट देते हैं उनसे सवाल करना आपका लोकतांत्रिक अधिकार है और उनका फ़र्ज़ है कि वो सवालों के जवाब दें।

लोकतंत्र और आज़ादी के लिए लोगों ने बहुत कुर्बानियां दी हैं, आज उनकी रक्षा करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है, चाहे सत्ता किसी की भी हो। कांग्रेसी, समाजवादी, कॉम्युनिष्ट, संघी, दलितवादी किसी की भी, इनसे सवाल किया ही जाना चाहिए कि बताओ क्या किया और क्या करनेवाले हो?

किसी भी पार्टी या नेता के प्रति आस्था से ज़्यादा ज़रूरी है लोकतंत्र में आस्था होना। कुछ पल्ले पड़ा या सब कपार के ऊपर से गुज़र गया ?

कोई सवाल करता है तो उसको जवाब दीजिए - तार्किक। उसका मुंह बंद करना फासीवाद है; और कोई भी सजग नागरिक इसका समर्थन नहीं कर सकता।

जो सवाल का जवाब नहीं देता या सवाल को भटकाता है, सवाल करनेवाले को चुप कराता है या उसकी नियत पर ही शक करता है या जो सवाल ही नहीं करता, उसका विश्वास लोकतंत्र में है - यह एक महान भ्रम है - झूठ है। लोकतंत्र में जनता सर्वोच्च है, कोई पार्टी या नेता नहीं।

साये में धूप में दुष्यंत कुमार लिखते हैं:

कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए

कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए

यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है

चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए

न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे

ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही

कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता

मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए

तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर की

ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए

जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले

मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए