भारत सरकार के सूचना प्रसारण मंत्रालय ने अक्तूबर 2000 में सूचना तकनीकी कानून बनाया. इस कानून का संबंध कंप्यूटर आधारित सभी तकनीकों से है. तकनीकी सूचना के इस अधिकार का दुरुपयोग न हो, इसलिए कुछ आरोपों को चिन्हित कर इनको आईपीसी दंड विधान के तहत लाया गया जिनमें से एक धारा थी 66 ए थी, जो यह बताता है कि संवाद सेवाओं के माध्यम से प्रतिबंधित सूचनाएं भेजने के लिए दंड का प्रावधान है. शिवसेना नेता बाल ठाकरे के निधन पर मुंबई बंद के खिलाफ फेसबुक में लिखने के कारण मुंबई की दो लड़कियों की गिरफ्तारी इसी धारा के तहत हुई जिन्हें सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद ही मुक्त किया गया और कोर्ट ने 24 मार्च 2015 को इसे अंतिम रूप से रद्द कर दिया.
खैर, सरकार तर्क देती रही कि फेसबुक पर आपत्तिजनक कथनों से लोगों में क्रोध और हिंसा फैलती है और देश में कानून व्यवस्था बिगड़ती है. दूसरा तर्क यह था कि अखबार या इलेक्ट्रोनिक मीडिया की तरह इंटरनेट संस्थागत व्यवस्था के तहत नहीं चलता है, इसलिए इस पर अंकुश रखने के लिए किसी प्रणाली का विकसित होना जरूरी है. इसके अलावा इस कानून के दुरुपयोग का सोच कर ही इसे निरस्त नहीं किया जाना चाहिये. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की इन दलीलों को नकारते हुए आईटी कानून 66 ए को निरस्त किया था और अभिव्यक्ति की आजादी को सर्वोपरी बतायी थी. न्यायालय का यह भी कहना था कि इस कानून से लोगों को सूचना पाने के अधिकार का भी उल्ल्ंधन होता है.
लेकिन मोदी सरकार की जिद गई नहीं. एक बार फिर सोशल मीडिया पर अंकुश लगाने के लिए सरकार ने देश के प्रत्येक जिले में एक ‘सोशल मीडिया कम्यूनिकेशन हब’ बनाने का प्रस्ताव रखा. इस योजना के तहत सरकार चाहती है कि सोशल मीडिया, यानी फेसबुक, वार्टसएप, ट्वीटर, इस्टाग्राम आदि पर लिखित सामग्री पर निगरानी रखी जाये और उनको एकत्रित कर उसका विश्लेषण हो. उसी तरह डीजिटल मीडिया यानी, न्यूज ब्लाॅग आदि का भी विश्लेषण हो.
इसके लिए आवश्यक मशीन, शाॅफ्टवेयर आदि की खरीद के लिए सरकार ने 20 अगस्त को एक टेंडर तक निकालने की तैयारी कर ली थी. सरकार के इस प्रस्ताव का संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 13 जुलाई को ही सरकार को सावधान किया था कि वह इस तरह की कोई व्यवस्था न करे, क्योंकि इसके द्वारा एक ‘सर्विलेंस स्टेट’ की स्थापना होगी. यह नागरिकों के निजता के कानून का हनन है. सरकार के इस प्रस्ताव के विरुद्ध त्रिणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोयत्री ने सुप्रीम कोर्ट में एक रिट याचिका दायर कर इस प्रस्ताव को चुनाती दी. इस याचिका पर अपना फैसला सुनाते हुए 3 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस तरह लोगों के फेसबुक, वार्टसएप या दूसरे सोशल मीडिया माध्यमों को निरीक्षण कर सरकार लोगों पर निगरानी रखने का काम यदि करेगी तो वह एक स्वतंत्र देश के नागरिकों की निजता के अधिकार पर कुठाराघात होगा. कोर्ट के इस फैसले के बाद सरकार ने अपना सोशल मीडिया कम्यूनिकेशन हब बनाने का प्रस्ताव वापस ले लिया.
लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि झारखंड सरकार ने बिना इस तरह का कोई हब बनाये ही फेसबुक पर लिखे गई कुछ बातों या पोस्टों के आधार पर बीस लोगों को देशद्रोह का अभियुक्त बना दिया है.