झारखंड सहित देश में अनेकानेक ऐसी भीषण घटनाएं हो रही हैं जो हमारी चेतना को लहूलुहान कर रही है. खास कर माॅब लिंचिंग की घटनाएं, स्त्रियों पर होनेवाले पाशविक अत्याचार, सार्वजनिक संपत्ति की लूट खसोट आदि की घटनाएं. हालांकि, इन घटनाओं को अंजाम देने वाले भी इसी समाज के लोग हैं. इसलिए हम कह सकते हैं कि मानवीय चेतना विभाजित है. उनके कई स्तर हैं. हम जिन घटनाओं से असहनीय मानसिक पीड़ा का अनुभव करते हैं, वहीं घटनाएं कुछ लोगों को महज छू कर निकल जाती है और कुछ लोग तो उन घटनाओं को अंजाम देकर पाशविक आनंद का अनुभव करते हैं.

आपने कभी उन घटनाओं की वीडियो रिकार्डिंग देखी है? क्योंकि तकनलाॅजी की कृपा से और मनुष्य मात्र में छिपी जुजुप्सा से आज ‘माॅब लिचिंग’ के वीडियों, यहां तक कि बलात्कार की घटनाओं के वीडियो, मरते मनुष्य की करुण पुकार, प्राण रक्षा की गुहार, पीड़ा और अपमान से निकलने वाले चित्कार को देख-सुन सकते हैं. और हमारी चेतना को यह सवाल शूल की तरह सालने लगता है कि इतनी गहरी नफरत, इतनी घृणा और इतनी हिंसा मनुष्य ने अपने अंतर में कहां और कब से छुपा रखी है? निराशा के क्षणों में लगता है, हम सभ्यता के आवरण में ढके चलते फिरते रहते हैं. सभा कक्षों में सुसंस्कृत भाषा में अपने उद्गार व्यक्त करते हैं, लेकिन मूलतः हम भी पशु ही हैं.

क्या यही सच है?

दिल कहता है, हां, यही सच है. मनुष्य भी एक बर्बर पशु ही है और सभ्यता दरअसल मनुष्य की पाशविक वृत्तियों को छुपाने की कला है. यह मान लेने में आसानी यह है कि हम आज होने वाली तमाम नृशंस घटनाओं को जस्टीफाई कर सकते हैं. चाहे वह हमारे आस पास होने वाली माॅब लिंचिंग की घटनायें हो या निराश्रित नाबालिग लड़कियों को एक शेल्टर होम में रख कर उनके साथ सतत बलात्कार की घटना.

लेकिन बुद्धि कहती है, विवेक कहता है, हमारे अपने जीवनानुभव कहते हैं कि मनुष्य के भीतर जीवन के उदात्त तत्व भी हैं. वह अपनी बिटिया को कंधे पर बिठा कर मेला घुमाने वाला पिता, जीवन भर अपनी पत्नी का साथ निभाने वाला पति और बिना स्वार्थ अपने बच्चों की परवरिश करने वाला पिता भी है. अपने सामने अचानक किसी सफेद कपोत को खून से लतपथ आ गिरते देख वह करुणा से भर जाता है. मैंने मुंबई के टाटा कैंसर हास्पीटल में युवा लड़कियों को अपने वृद्ध पिता को व्हील चेयर पर बिठा कर चिकित्सकों के कमरों की तरफ ले जाते देखा है. मांओं की सेवा करते युवा लड़कों को देखा है. दोस्ती और प्रेम के लिए प्राणों का उत्सर्ग करने वाली कहानियां सुनी, पढ़ी और देखी है.

इसलिए मनुष्य मात्र की अच्छाईयों पर मेरी आस्था है. मेरा विश्वास है कि मूलतः मनुष्य एक स्नेहिल प्राणी है. उसे क्रूर और नृशंस बना रही है आज की पूंजीवादी व्यवस्था. उपभोक्तावादी संस्कृति और हिंदुत्ववादी राजनीति. पूंजीवादी व्यवस्था का मूल कथ्य यह है कि आज के दौर में सबसे महत्वपूर्ण है अर्थ, यानी पैसा. पैसा अर्जित करना ही चरम लक्ष्य है. पैसे के सामने कोई नैतिक मूल्य नहीं, मानवीय भावनाएं नहीं, रिश्ते-नाते नहीं. जो कुछ भी है पैसा. और सभी पैसा कमाने की धुन में लगे हैं.

लेकिन पैसा ईमानदार श्रम से प्राप्त नहीं होता. ईमानदार श्रम से आप बमुश्किल दो वक्त की रोटी प्राप्त कर सकते हैं. एक सामान्य सा जीवन प्राप्त कर सकते हैं. थोड़ा सा सुख और संतोष भी, लेकिन विलासिता पूर्ण जीवन, ऐश्वर्य, के लिए तो आपको प्रचूर पैसा कमाने की जरूरत है. वह तो आप शोषण-उत्पीड़न पर आधारित इस व्यवस्था के गर्भनाल से जुड़ कर या फिर छल प्रपंच कर, दूसरों के श्रम का शोषण कर ही प्राप्त कर सकते हैं. इसके लिए आपको ठेका प्राप्त कर कमजोर पुल बनाना होगा, भले ही उसके गिरने और उसके मलवे में दब कर सैकड़ों लोगों के मरने का खतरा हो, बैंक से लोन लेकर उसे पचाने की कला आनी होगी, हर डील में कमीशन खाना आना होगा. यदि आपकी आत्मा कचोटे तो समझाना होगा कि जीवन का यही दस्तूर है.

वैसे, आत्मग्लानि के क्षण कम ही आते हैं. क्योंकि सही गलत तरीकों से पैसा कमाने से सामाजिक प्रतिष्ठा में कमी नहीं आती. लोग ऐसे लोगों से नफरत नहीं करते. बल्कि वे उनके रोल माॅडल बनते हैं. उनकी मूर्खतापूर्ण दंभ भरी बातों में अर्थ ढूढा जाता है. सार्वजनिक मंचों पर वे पदासीन होते हैं और उपदेशक बन जाते हैं. उनकी कथनी और करनी में बड़ा फर्क होता है, लेकिन कोई उसे देख नहीं पाता. देख भी पाता है तो अनदेखी कर जाता है, क्योंकि उसके सामने सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से सफल व्यक्ति खड़ा होता है.

उपभोक्तावादी संस्कृति का अर्थ हुआ बिना किसी दायित्वबोध के अपने सुख के लिए हर चीज का उपभोग करना और मान कर चलना कि इसमें कुछ भी अनैतिक नहीं. जंगल काट कर माॅल बनाना, किसी पिकनिक स्पाॅट पर गंदगी फैला कर लौटना, उपेक्षिता मां को अपने बच्चों के लालन पालन के लिए घर में ला कर रखना, किसी लाचार स्त्री की मजबूरी का फायदा उठा कर अपनी वासना को तृप्त करना उपभोक्तवादी संस्कृति है. इस संस्कृति की खासियत यह कि यह आपको कभी भी आत्मचिंतन करने के लिए प्रेरित नहीं करता, न उद्वेलित ही करता है. आप मान कर चलते हैं कि यह धरती, यहां के प्राणी और तमाम मानवीय रिश्ते-नाते आपके उपभोग के लिए हैं.

यह पूंजीवादी व्यवस्था और उपभोक्तावादी संस्कृति, हिंदुत्ववादी राजनीति के साथ मिल कर खौफनाक रूप में प्रकट हुई है. हिंदुत्ववादी धारा का मूल स्वर है कि ‘वीर ही वसुंधरा का उपभोग करते हैं.’ और बहादुर वह जो क्रूर हो, नृशंस हो. और हिंदुत्व के मूल वर्णवादी व्यवस्था में यह भी चिन्हित कर दिया गया है कि वीर कौन हो सकता है. जो सेवा करने के लिए बने हैं, उनके लिए नहीं है वीरत्व. वीर तो जन्मना उंची जाति में पैदा हुआ व्यक्ति ही हो सकता है. और इस अवधारणा को कोई चुनौती न दे, इसलिए बीच-बीच में दलितों की सार्वजनिक रूप से पिटाई होती है. उनकी बस्तियों में आग लगाया जाता है. विडंबना यह कि निम्न तबके से उठ कर उपर के वर्ग/वर्ण व्यवस्था में शामिल होने की इच्छा रखने वाला आदमी भी उन जैसा आचरण करने लगता है.

मुसलमानों से उनकी नफरत जुड़ी है उनकी इस हीन ग्रंथी से कि असंख्य अल्हा-उदलो, पृथ्वीराज चैहानों के होते हुए भी भारत दुनियां में सबसे अधिक समय तक गुलाम रहने वाला मुल्क रहा है. दो ढाई सौ वर्षों तक अंग्रेंजो का गुलाम और उसके पहले के पांच-सात सौ वर्षों तक मुसलमानों को गुलाम. अब अंग्रेज तो वापस अपने मुल्क लौट गये, लेकिन मुसलमान, जिसमें बड़ी आबादी धर्मांतरित हिंदुओं की ही है, विभाजन के बाद भी भारत में ही रह गये. अब हिंदू राजनीति इसी हीनग्रंथी को बार बार जगा कर उनसे मुसलमानों की हत्या करवा रही है और वोट की राजनीति का खेल खेल रही है. इससे निकट भविष्य में छुटकारा नहीं. जिन्हें इस राजनीति से फायदा है, वे भला क्यों चाहेंगे कि इस तरह की घटनाएं रूके. भले इससे विधिसम्मत शासन की धज्जियां उड़े. हमारा लोकतंत्र तार तार हो.

और स्त्री? वह तो हिंदू वर्ण व्यवस्था में हमेशा से एक जिंस रही है. वह भी धरती की तरह गर्भ धारण करती है और वंश वृद्धि के काम आती है. उसका संपूर्ण जीवन पुरुष के लिए समर्पित है. वह पुरुष की संपत्ति है. पिता के घर में पिता की आश्रिता. पिता न रहा तो भाई की आश्रिता और पति के घर जाने के बाद पति की आश्रिता. उसे विवाह के बाद तत्काल चिन्हित कर दिया जाता है. और यदि कभी भी उसने अपनी इस स्थिति से विद्रोह किया तो उसे कड़ी सजा मिलती है. जीवन भर वह अदृश्य लक्ष्मण रेखाओं से घिरी रहती है और यदि उसने लक्ष्मण रेखा पार की तो कलंकिनी हो जाती है. उसके लिए फिर समाज में जगह नहीं रह जाती. फिर चाहे उसने खुद से लक्ष्मण रेखा पार की हो या किसी पुरुष की लंपटता का शिकार हो घर की दहलीज पार की हो. उसकी गति यही होती है कि वह धरती में समा जाये या वेश्या बने. वापस समाज में लौटने की कोई राह नही.

और आदिवासी से तो उनका सदियों पुरानी दुश्मनी है, क्योंकि आदिवासी उनकी वर्णवादी व्यवस्था और लूट खसोट की संस्कृति को हमेशा से चुनौती देते रहे हैं. इसलिए उनकी संस्कृति, अर्थनीति और समाज व्यवस्था को खत्म करने का सतत प्रयास चलता रहता है. राम-रहीम जैसे धर्म गुरुओं के समर्थकों के समक्ष बौनी बनी न्याय व्यवस्था और प्रशासन पुलिस, जाट और मराठा आंदोलन के व्यापक तोड़ फोड़ और अगजनी के समक्ष विवश नजर आने वाले पहरुये, आदिवासी आंदोलनों को बर्बरता पूर्वक कुचलने में देर नहीं करते. याद कीजिये गुआगोली कांड को. हाल के दिनों में पत्थरगड़ी आंदोलन को कुचलने के लिए अपनाये गये हथकंडों और शक्ति प्रदर्शन को.

समाज में इस तरह नफरत की खेती करने वाले लोग हमेशा से रहे हैं. उनकी कोशिश रहती है कि हमारी संवेदना खत्म हो जाये. अच्छाई से हमारा भरोसा खत्म हो जाये. लेकिन हमे अच्छाई पर भरोसा रखना होगा, मनुष्यता को बचाना होगा. वे बहुत ताकतवर नहीं, भीतर से निहायत कमजोर और निहत्थे को घेर कर मारने वाले नपुंसक लोग हैं. लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था और संसदीय चुनाव प्रणाली की खामियों से फायदा उठा कर सत्ता पर काबिज हो गये है और ताकतवर दिखाई देते हैं. वे निर्लज्जता पूर्वक देश को लूट रहे हैं और सत्ता का दुरुपयोग करते हुए गौरक्षा के नाम पर सड़कों पर नृशंसता का प्रदर्शन कर रहे हैं.

उनका मुकाबला करने के लिए समता, सहभागिता, धर्म निरपेक्षता व लोकतंत्र जैसे जीवन मूल्यों में विश्वास रखने वाली तमाम शक्तियों को एकजुट होना होगा.

यकीन रखिये, यह दौर खत्म होगा.

क्योंकि,

'’सियाही देखता है देखता है तू अन्धेरे को

किरण को घेर कर छाये हुए विकराल घेरे को.

उसे भी देखए जो इस बाहरी तम को बहा सकती

दबी तेरे लहू में रौशनी की धार है साथी… ..’’