आंध्र-ओड़िसा सामावर्ती क्षेत्र में विशाखापटनम शहर के करीब अराकू वैली में माओवादियों ने दो राजनीतिज्ञों की हत्या कर एक बार फिर अपनी उपस्थिति दर्ज कर दी है. मारे गये लोगों में से एक किडारी सर्वेश्वर राव टीडीपी के विधायक थे और एक अन्य उन्हीं के क्षेत्र के निवर्तमान विधायक,सिवेरी सोमा. इस कार्रवाई के बाद माओवाद प्रभावित तमाम राज्यों में सर्च अभियान तेज हो गया है.
पुलिस सूत्रों का कहना है कि 20 से 27 सितंबर तक माओवादी अपने स्थापना दिवस को सेलीब्रेट कर रहे हैं और पुलिस ने राजनीतिज्ञों को अगाह किया था कि वे माओवाद प्रभावित इलाकों की यात्रा से बचें और पुलिस को सूचित करके ही माओवाद प्रभावित इलाकों में जायें. लेकिन इन नेताओं ने ऐसा नहीं किया.
कहा जा रहा है कि मारे गये विधायक उस इलाके में पत्थर व्यवसाय से जुड़े थे और कई क्रसिंग इकाईयां उस क्षेत्र में चलाते थे. उन प्लांटों के लिए पहाड़ों को डाईनामाईट लगा कर तोड़ा जाता था जिसके विस्फोट से उस इलाके में बसे आदिवासियों के घर थर्रा जाते थे और प्रदूषण की गंभीर समस्यायें पैदा हो रही थी, जिसका गिरजन संगठन विरोध कर रहे थे.
हमारी चिंता का विषय यह है कि इस माओवादी कार्रवाई का तत्काल असर क्या होने वाला है? सबसे पहले तो सत्ता के इस प्रचार को बल मिलेगा कि देश माओवाद के रूप में एक गंभीर संकट का सामना कर रहा है. माओवादी तो इस कार्रवाई के बाद सुरक्षित ठिकानों में शिफ्ट कर गये होंगे, पुलिस का कहर उनके समर्थक समझे जाने वालें ग्रामीण जनता को झेलना पड़ेगा.
उन लोगों पर खुफिया तंत्र और पुलिस की दबिश बढ़ेगी जिन्हें ‘अरबन नक्सल’ कह कर सत्ता चिन्हित करती है. हो सकता है, माओवाद के समर्थन के नाम पर हाल में महाराष्ट्र पुलिस ने जिन पांच लोगों को गिरफ्तार किया है और जिनका मामला सर्वोच्च न्यायालय में अटका हुआ है, उस पर फैसला कुछ और टले या उनकी मुश्किलें बढ़े.
सवाल यह भी उठता है कि क्या इससे व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई को कोई मदद मिलने वाली है? यहां यह याद करना जरूरी है कि छिटपुट कार्रवाईयों की गिनती छोड़ दें तो इसके पूर्व एक बड़ी कार्रवाई माओवादियों ने छत्तीसगढ़ में 2013 में की थी, जिसमें सलवा जुड़ुम शुरु करने वाले कांग्रेस के नेता महेंद्र करमा सहित 25 लोग मारे गये थे.
आंध्र में तो एक लंबे अरसे बाद माओवादी कोई कार्रवाई कर सके हैं. इसके पूर्व 2003 के अक्तूबर माह में एक विस्फोट किया था जिससे आंध्र के वर्तमान मुख्यमंत्री चंद्राबाबू नायडु बाल-बाल बचे थे. उसके बाद माओवादियों के खिलाफ माओवाद प्रभावित राज्यों की संयुक्त कार्रवाई शुरु हुई थी और सरकार ने दावा करना शुरु कर दिया था कि माओवाद को खत्म करने में वे बहुत हद तक सफल रहे हैं.
हां, माओवाद के नाम पर जन आंदोलनों को कुचलने या आदिवासी-दलित समर्थकों को परेशान करने के लिए वे बीच-बीच में माओवादी संकट का हौवा जरूर खड़ी करते रहते हैं.
माओवादियों ने इस ताजा घटना को अंजाम दे कर यह तो जता दिया कि वे अभी खत्म नहीं हुए हैं, लेकिन स्थापना दिवस को सेलिब्रेट करने के इस माओवादी तरीके को एक बड़ी आबादी शायद ही पसंद करे.