आपने आयुष्मान भारत का पोस्टर देखा है? हर नुक्कड़, हर चौराहे पर मिल जायेगा. झारखंड में तो थोक भाव से लगाया गया है. और उस पोस्टर में सबसे ज्यादा उद्वेलित करती है “मुफ्त”. मुफ्त पांच लाख का स्वास्थ बीमा. देख कर अजीब लगता है. कोई राजा अपनी प्रजा को दान दे रहा है मानो. लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता के शीर्ष पर बैठे व्यक्ति को बहुधा यह भ्रम हो जाता है, जैसे वह जनता के वोट से चुना गया जनप्रतिनिधि नहीं कोई राजा हो और वोटर उसकी प्रजा. मानो किसी तरह की कल्याणकारी योजना सरकारी खजाने से नहीं, उसकी जेब से चल रही हो.
त्रासद यह कि हमारी समझ से यह पूरी योजना सिर्फ और सिर्फ निजी अस्पतालों के लाभ के लिए बनाई गयी है. हो सकता है, आप मुझसे सहमत न हो, लकिन मुझे कोई भ्रम नहीं.
सबसे पहली बात तो यह कि मोदी सरकार जनता के सच्चे हित का कोई काम करेगी, इस पर हमें रत्ती भर यकीन नहीं.
अब आईये कुछ बुनियादी बातों पर. वे इस योजना पर चलने वाली बहस से थोड़ी अलग है, और हो सकता है आसानी से आपके गले न उतरे, लेकिन मैं अपनी बात आपसे शेयर करूंगा, चाहे आप माने या न माने. अभी थोड़ी बहुत बहस इसके व्यावहारिक पक्ष को लेकर है, मेरी दुविधा इसके मूल स्वरूप को लेकर है. पूंजीवादी व्यवस्था पहले आपको असुरक्षित करती है और फिर सुरक्षा के कृत्रिम उपाय बताती है. और इसकी आड़ में अपना उल्लू सीधा करती है. यह योजना पचास करोड़ लोगों को पांच-पांच लाख का स्वास्थ बीमा करने का लक्ष्य लेकर शुरु की गई है. वैसे सरकार का आशय दस करोड़ परिवारों को स्वास्थ सुविधा उपलब्ध कराने की है. एक परिवार में पांच सदस्यों के हिसाब से यह पचास करोड़ का आंकड़ा उछाला जा रहा है.यदि वास्तव में पचास करोड़ लोगों पर सरकार या बीमा कंपनियों को पांच लाख रुपया खर्च करना पड़े तो सरकार या बीमा कंपनियों का दिवाला ही पिट जाये. लकिन वास्तविकता यह है कि कुल आबादी का एक बहुत ही छोटा हिस्सा ही इस हद तक बीमार पड़ेगा कि उसे अस्पताल में भर्ती होना पड़े.और सरकारी अस्पतालों की दशा देश में क्या है, यह किसी से छुपा नहीं. इसलिए मरीज निजी अस्पतालों में ही जायेंगे. हां, अब निजी अस्पतालों को पता है कि उसके यहां आने वाला व्यक्ति पांच लाख का आसामी है तो वह किसी भी प्रकार से उसे दूहने की कोशिश करेगा. लोग भी इस भ्रम में रहेंगे कि सरकारी खर्च पर यदि वे इलाज करवा सकते हैं तो क्यों न करवाये?
अभी की जानकारी यह है कि सरकार ने शुरुआती दौर के लिए 2000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया था जो इस कार्यक्रम को शुरु करने में ही फुर्र हो गया. चालू वित्तीय वर्ष के लिए स्वास्थ एजंसी ने साढ़े चार हजार करोड़ की धनराशि की मांग की है.
बड़ी आबादी को भरपेट भोजन चाहिए. वह खून की कमी की शिकार है. ग्रामीण इलाके मलेरिया, टीबी की चपेट में है. उन्हें स्वच्छ पानी और प्रदूषण मुक्त आबोहवा चाहिए. और चाहिए बुनियादी स्वास्थ सेवाओं के लिए सरकारी अस्पताल, जहां संवेदनशील चिकित्सक हों, खून, खखार, एक्स—रे जैसी जांच की व्यवस्था हो, पांच लाख का बीमा तो सिर्फ निजी अस्पतालों के लाभ के लिए है. सरकारी अस्पतालों को चौपट कर निजी अस्पतालों के हवाले जनता को कर देना, जनता के नाम पर उन्हें उपकृत करने का षडयंत्र हैं.
शिक्षा और स्वास्थ जैसी बुनियादी जरूरतों का निजीकरण तो हो ही चुका है, अब जनता के हित के नाम पर निजी अस्पतालों को मालामाल करने की यह तैयारी है.