नवरात्र का समय है. लोग जोर-शोर से देवी दुर्गा की पूजा उपासना में लगे हैं. नौ दिनों तक दुर्गा के विभिन्न रूपों तथा शौर्य का वर्णन होगा. अंत में दसवें दिन महिषासुर के वध के साथ दुर्गा का विजय और लोक कल्याण की गाथा कही जायेगी. जो पूजा-पाठ नहीं करते हैं, उनको भी दुर्गा की स्तुति में भजन गा गा कर सुनाया जा रहा है. इसका अर्थ यह हुआकि एक स्त्री जब देवी बनती है तब उसकी पूजा होगी, अन्यथा उसे पैदा होने के पहले ही मार दिया जायेगा, उस पर एसिड डाल कर बदसूरत बनाया जायेगा. उसका यौन तथा शारीरिक शोषण होगा. मानव होने के नाते या एक स्वतंत्र देश के नागरिक होने के नाते संविधान प्रदत्त अधिकारों से भी उसे वंचित किया जायेगा. केरल स्थित सबरीमाला में महिलाओं का प्रवेश एक बार फिर विवादित हो गया है. सर्वोच्च न्यायालय ने हाल में अपने एक अहम फैसले से मंदिर में दस से पचास वर्ष की महिलाओं के प्रवेश के निषेध को गलत ठहराते हुए उन्हें मंदिर में प्रवेश की अनुमति दे थी. अब इसका वहां विरोध हो रहा है. सर्वोच्च न्यायालय में फिर इस फैसले को चुनौती देते हुए पुनर्विचार याचिका दायर की गई है.
मालूम हो कि इस मंदिर में दस से पचास वर्ष की महिलाओं का प्रवेश वर्जित था. इसका कारण यह बताया गया कि इस उम्र वर्ग की महिलाओं का मासिक धर्म होता है, जब वे अपवित्र होती हैं. इस मंदिर में अयप्पा की पूजा होती है जो चिर ब्रहृमचारी हैं और हमेशा स्त्री से दूर रहे हैं. दस से कम और पचास वर्ष से अधिक उम्र की महिलाएं ही मंदिर में जा सकती हैं. यह एक परंपरा रही है, जिसे धार्मिक कट्टरता का जामा पहना दिया गया है. 2006 में एक सामाजिक संस्था ‘यंग लायर्स एसोसियेशन’ ने उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर सबरीमाला मंदिर में दस से पचास वर्ष की महिलाओं के प्रवेश के रोक को चुनौती दी. 18 सितंबर 2018 को इस पर फैसला देते हुए न्यायालय ने कहा कि एक मनोवैज्ञानिक कारण के लिए स्त्रियों को मंदिर प्रवेश के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता. युवा महिलाओं के शारीरिक स्थिति में महीने में एक बार जो बदलाव आता है, वह एक प्राकृतिक स्थिति है. औरत के स्वास्थ की दृष्टि से यह अनिवार्य भी है. यही उसे सृजन की शक्ति प्रदान करता है. तो फिर कैसे यह धारणा बन गई है कि इसी मासिक धर्म की वजह से वह अपवित्र बन जाती है? न्यायालय तो अपना फैसला संविधान के आधार पर देती है. संविधान में महिलाओं को समानता, धर्म की आजादी के जो अधिकार दिये गये हैं, वह इस निषेध से महिलाओं को वंचित करते हैं. इसलिए यह फैसला आया कि सभी उम्र की महिलाएं मंदिर में जा सकती हैं. न्यायालय के इस आदेश के बावजूद केरल समाज इस फैसले को स्वीकार नहीं कर रहा. नायर सर्विस सोसायटी के लोगों ने न्यायालय में पनर्विचार याचिका दायर कर दी है. उनके विचार से अशुचितावस्था में एक ब्रहृमचारी देवता के मंदिर में महिलाओं को प्रवेश नहीं करना चाहिए. इससे केरल के लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत होती है. सोसायटी के लोगों ने जुलूस निकाले, तोड़फोड़ भी की. इस आंदोलन में केरल की महिलाएं भी शामिल हैं. केरल के लोगों के रुख से हिंदुत्ववादी दल बीजेपी भी उत्साहित हो गई है. उसने भी एक पदयात्रा कर यह प्रचार करना शुरु किया कि पचास वर्षों से केरल की नास्तिक सीपीएम सरकार धर्म के नाम पर लोगों को बांटने का काम कर रही है. हिंदू समाज में औरत को यह अच्छी तरह समझा दिया जाता है कि मासिक धर्म के समय वह अपवित्र होती है. अछूत होती है. तीन दिन तक उनका घर में प्रवेश ही वर्जित होता है, तो मंदिर प्रवेश दूर की बात है. आश्चर्य तो यह है कि शिक्षा की दृष्टि से केरल सर्वोत्तम राज्य माना जाता है. लेकिन शिक्षित लोग भी किस हद तक मूढ़ हो सकते हैं यह सबरीमाला प्रकरण बताता है.