आज आदिवासी युवाओं की एक बड़ी संख्या खुद को और आदिवासी संस्कृति की दार्शनिक पहलुओं को को ठीक-ठीक समझने की कोशिश करना चाहती हैं. वह उन सारे पहलुओं पर बात करना चाहती हैं जो बचपन से आदिवासी समाज और परिवेश में रहने के बावजूद उन्हें ठीक तरह से समझाया या बताया नहीं गया. उन्हें बचपन से हाथ जोड़कर प्रार्थना करना तो सिखाया गया, मगर उनके सवालों का जवाब नहीं दिया गया. धीरे - धीरे उसने भी सीख लिया कि हाथ जोड़ने से उनकी सुनी जाती है. कोई शक्ति है जो हाथ जोड़ने, आंख बंद करने, कोई सवाल न करने से ही उनकी सुनती है और इस तरह जीवन भर जो भी शक्तिशाली दिखा उनसे सवाल न करना, उनके सामने चुप रहना, हाथ जोड़ना, उन्हें शांति से सुनना और उनकी हां में हां मिलाने का वह अभ्यस्त होता गया.
गांव से शहरों में आकर भटकते हुए कई आदिवासी युवा या तो धर्म के प्रचार के लिए पर्चा बांटते हुए नज़र आते हैं या किसी कंपनी का सामान बेच पाने की अपनी प्रतिभा को साबित करते नज़र आते हैं. वे दिन भर स्कूल कॉलेज के आस पास दूसरे विद्यार्थियों को पकड़ते दिखते हैं. अपनी लच्छेदार भाषा और आत्मविश्वास से कमज़ोर आत्मविश्वास वाले दूसरे युवाओं को चमत्कृत करने की कोशिश करते हैं, ताकि सौ रुपए का कोई टिकट बेच सकें. ऐसा टिकट जिसे वे करियर सेट कर देने की चाबी बताते हैं. किसी कार्यक्रम, सभा में आने के लिए उन पर दबाव बनाते हैं. बताते हैं कि कैसे कोई सभा, सेमिनार या कार्यक्रम कमजोर आत्मविश्वास वाले विद्यार्थियों के जीवन में चमत्कार ला सकता है. उनकी ज़बरदस्ती देख अंततः स्कूल कॉलेज के विद्यार्थी अपनी बचत के पैसे और अपना मोबाईल नंबर देकर उनसे अपना पिंड छुड़ाते हैं. कई आदिवासी युवा इसमें लगे हुए हैं.
जो आदिवासी युवा बेहतर स्थति में हैं, वे असमंजस की स्थति में हैं. खुद से यह पूछते हुए कि आखिर देश, राज्य, समाज, गांव घर में हो क्या रहा है? क्यों उन्हें कुछ स्पष्ट समझ में नहीं आ रहा. उनके मन में कई सवाल हैं मगर किससे पूछे? कौन बतायेगा? क्या बतायेगा? जो बतायेगा उस पर भी कितना भरोसा किया जाय? चारों ओर युवाओं को कुछ न कुछ बताया ही जा रहा, समझाया ही जा रहा, सभाएं हो रही, सेमिनार हो रहे, युवा सबको मूक सुन रहा. और किसी सभा में जैसे ही सवाल पूछने के लिए वह अपना मुंह खोलता है, सभागार के कोने में खड़े चार लोग तुरन्त प्रकट होते हैं और उसका मुंह बंद कर देते हैं. मंच से मुख्य वक्ता उसकी और इशारे करते हुए कहता है— “ये देखिए ऐसे युवा भी मिलेंगे आपको जो बहुत बेचैन रहते हैं. ये विकार से भरे युवा हैं. ये खुश और शांत नहीं रह सकते. ये चुपचाप सुन नहीं सकते. इन्हें परमात्मा का ध्यान करना चाहिए.” बाज़ार की ऐसी सभा जहां प्रकृति को ध्वस्त करने वाली दूसरी जीवन शैली मंच से आदिवासी युवाओं को परमात्मा की ओर ले जाने पर बहस करती है और आदिवासी जीवन शैली को नीचा दिखाती रहती है.
आदिवासी युवा के चारों ओर आज जब ऐसी ही आवाज़ें गूंज रही है. ऐसे में उन्हें खुद पर भरोसा और उन चीज़ों पर भरोसा करना चाहिए जिनसे उनकी नाल जुड़ी हैं. उस मिट्टी, उस ज़मीन, उस इतिहास, उस भाषा को जानने की कोशिश करनी चाहिए जो सचमुच उन्हें अपने आप से जुड़ने में मदद करती है. जिस आदिवासी विस्डम के साथ वह प्रकृति में मौजूद हर दूसरी चीजों का सम्मान करना सीख सकता है. जिसका महत्व उसे कभी नहीं बताया गया. उस धर्म ने उसे नहीं बताया जो हरेक के माता पिता ने उससे बिना पूछे उसे दिया. जिसने अपनी भाषाओं से उसे काट दिया ताकि वह बाज़ार की भाषा सीख सके. लेकिन बाज़ार की भाषा के साथ आज वह हर जगह यहां तक कि अपने घर में, अपने कमरे में भी प्रोफ़ेशनल होने को ग्रस्त हो रहा है. अब हर आदिवासी के पास बाज़ार की भाषा तो है, मगर साथ होने, एक होने वाली भावनाएं कम हो गई हैं, संवेदनाएं कम हो गई है. वह बाज़ार की भाषा से हर सवाल करने वाले पर हमले करने को प्रशिक्षित हो रहा है. ठीक- ठीक जवाब नहीं सूझे तो वह किसी की भी ज़ुबान बन्द कर सकता है. संवाद और बहस करना मुश्किल है, क्योंकि उसके पास गालियों की एक समृद्ध भाषा आ गई है. यह गालियों की भाषा भी उसकी अपनी नहीं है, उसने उधार में लिया है अपने चारों ओर से. मगर अब दावा है कि इस पर उसका भी हक़ है.
चारो ओर दूसरी विश्वास पद्धतियों और संस्कृतियों से घिरा आदिवासी युवा कई बार खुद को आदिवासी बताते हुए भी भीतर महसूस करता है कि वह खुद से झूठ बोल रहा है. पूरा जीवन अपने माता पिता द्वारा मिले विश्वास पद्धति में ढलता हुआ वह आदिवासी समाज के बारे कुछ नहीं जानता. वह उतना ही जानता है जितना ऊपर ऊपर उसने सुन रखा है. वह आदिवासियों की जीवन शैली, जीवन मूल्यों, विस्डम से खुद को दूर रखते हुए उसके बचे रहने की बात में अपना सिर हिलाता है. मगर खुद से कभी कोई सवाल नहीं पूछता कि अंतिम बार उसने कब महसूस किया कि सचमुच उसने जीवन में कुछ खोया है? क्या सचमुच आदिवासियों की जीवन शैली, पुरखों का विस्डम, उसके दार्शनिक पहलुओं को वह समझता है? महसूस करता है? और तब जाकर क्या उसपर भीतर से गर्व महसूस करता है? क्या फिर वह इसलिए चिल्लाता है, क्योंकि सब ऐसा ही कर रहे?
दरअसल, आदिवासी संस्कृति उनके विश्वास पद्धति के चारों ओर घूमती हैं. करम, सरहुल जैसे पर्वों के साथ उनको मनाने की एक पूरी प्रक्रिया जुड़ी होती है. अपनी भाषा में उनकी प्रार्थनाएं होती हैं. सारी चीजें परस्पर एक दूसरे से गूंथी हुई हैं. जैसे ही वे प्रकृति से मनुष्य को पूजने की ओर आते हैं उनकी सारी परंपराएं, संस्कृति, पुरखों का विस्डम छूटता चला जाता है. ऐसे समय में यदि केंद्र में छिपा जीवन मूल्य रिस कर ख़त्म होता रहे तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं.
संस्कृति बचाने के नाम पर तथाकथित सभ्य आदिवासी और दूसरी संस्कृति के लोग भी इस समाज की बाह्य परिधि को बचाने की कोशिश में लगे रहते हैं. मसलन, आदिवासियों का परिधान कैसे बचे, नौकरी में जब अपनी भाषा की मांग बढ़े तो भाषा बचाने की चिंता बढ़ जाती है, आदिवासियों के खान पान को कैसे बचाया जाए, आदि. मगर इस जीवन शैली के केंद्र में जो जीवन मूल्य हैं, उसे अपने जीवन में बचाए रखने, उसपर चलने के लिए बच्चों को प्रेरित करने, आदिवासियों के विस्डम को नई पीढ़ी को देने का प्रयास कभी नहीं करते. और यही कारण है आदिवासियों के बीच भी एक सो कोल्ड आदिवासियों की जमात का तैयार होना, जिनमें अधिकांश बुरी तरीके से भ्रष्ट हैं. विवेक और मूल्यों से रहित किसी अंधी दौड़ में शामिल वे खुद को तथाकथित मुख्यधारा का हिस्सा मानते हैं. बेईमानी, चालाकी, छल कपट करते हुए और एक संकुचित मानसिकता के साथ जीते हुए भी बेहद सहज रहते हैं.
नई आदिवासी पीढ़ी पढ़ी-लिखी और आधुनिक तो हो रही है, मगर अपनी जड़ों से कटी हुई है. और इसमें उनकी गलती नहीं क्योंकि वह लंबे समय से ऐसे ही बढ़ने को दीक्षित होती आई है. मगर यह समय इन सभी पहलुओं पर आदिवासी समाज की नई पीढ़ी को पलटकर सोचने और आत्ममंथन करने की मांग करता है. तार्किक होकर बिना किसी अंधी दौड़ में शामिल हुए अपनी कमियों को स्पष्ट देखने की क्षमता बढ़ाने, समझने और अपनी शक्तियों को पहचानने की मांग करता है. अपने भीतर इसकी पड़ताल करते हुए मनुष्य बनाने वाले जीवन मूल्यों का महत्व समझते हुए अपनी जड़ों की ओर लौटने की मांग करता है.